मोदी सरकार को राफेल मामले में खुद को बेदाग साबित करते हुए सिर्फ यह साफ करना चाहिए था कि वह भारतीय वायुसेना की खातिर यह सौदा जल्दी करना चाहती थी इसलिए उसने अफसरशाही की आपत्तियों को खारिज कर दिया
शेखर गुप्ता
‘द हिंदू’ अखबार के एन. राम ने राफेल विमान सौदे पर जो ताज़ा खुलासा किया है और इसके जवाब में सरकार ने जो रहस्योद्घाटन किए हैं उन सबने इस मामले पर जारी विवादों को भड़काने में और मदद ही की है. राफेल सौदे के बारे में अब तक यही स्पष्ट हुआ है कि यह अहंकार एवं मूर्खता से उपजा एक आत्महंता घोटाला है. अब इसमें जो ताज़ा खुलासे हुए हैं वे इसकी ही पुष्टि करते हैं और इसमें संदेह और गहरे हुए हैं.
अब तक जो कुछ इस मामले में उभरा है वह निम्नलिखित है
- मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में रक्षा मंत्रालय की अफसरशाही यह सोचकर परेशान थी कि इस सौदे की वार्ताओं में दखलंदाज़ी की जा रही है. उसने इस पर अपनी आपत्तियां दर्ज़ करा दीं.
- रक्षा मंत्री ने इन आपत्तियों को ‘अतिउत्साही प्रतिक्रिया’ बताकर खारिज कर दिया और उन्हें पीएम के पीएस (संभवतः प्रधान सचिव) के साथ परामर्श करते हुए आगे की कार्यवाही करने का निर्देश दिया.
- इसका सीधा सा मतलब यह है कि शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व ने अफसरशाही की आपत्तियों को रद्द कर दिया. वह सौदा फटाफट कर डालना चाहता था.
- सिद्धांततः तो यह बिलकुल सही है. संदेह जाहिर करना अफसरशाही का स्वभाव है, और निर्णयसक्षम राजनीतिक नेतृत्व आपत्तियों को रद्द करते हुए अपने फैसले की ज़िम्मेदारी ले सकता है.
यहां तक तो सब कुछ ठीकठाक है. लेकिन इसके आगे समस्या शुरू हो जाती है. ऊपर जो चार बातें कही गईं हैं, वैसा ही इस सौदे में हुआ है; यानी हमेशा की तरह अफसरों ने अपनी खोपड़ी बचाने की कोशिश की, और एक सख्त, राष्ट्र्वादी, ईमानदार सरकार ने उनकी अड़चनों को परे धकेल दिया. तो फिर वही साहसी सरकार इसे खुल कर कहने में शरमा क्यों रही है?
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एक के बाद एक बहाने क्यों? कभी यह कि कीमत, विमान में अतिरिक्त साज़ो-सामान, खासकर भारत के लिए किए गए सुधार गोपनीय हैं; कभी यह कि खुलासे न करने का द्विपक्षीय करार है; कि एचएएल सक्षम नहीं है; कि ‘सोवरेन गारंटी’ ‘लेटर ऑफ कंफ़र्ट’ बन गई; कि सुप्रीम कोर्ट ने सौदे को बेदाग कह दिया है; कि सीएजी की रिपोर्ट का इंतज़ार कीजिए; और सबसे बदतर यह कि सौदे की वार्ताएं रक्षा खरीद की सुनिश्चित प्रक्रियाओं के अनुसार चलाई गईं.
अगर सरकार ने शुरू में ही सच का खुलासा कर दिया होता तो आम चुनाव के पहले वह शायद एक बड़े रक्षा खरीद घोटाले की आंच से बच जाती.
वह ‘सच’ कुछ इस तरह का होता
राफेल को 2012 में यूपीए के राज में 126 विमानों के लिए सबसे नीची बोली लगाने वाले के तौर पर चुना गया, लेकिन उस दौरान जो 14 सदस्यीय कीमत वार्ता कमिटी बनी थी उसके तीन सदस्यों ने आपत्तियां (अधिकतर हल्की किस्म की) दर्ज की थीं. इन आपत्तियों की जांच के लिए ए.के. एंटनी ने रक्षा मंत्री के तौर पर एक कमिटी गठित की थी और इसके बाद पूरी प्रक्रिया पर नज़र रखने के लिए बाहर के तीन ‘मॉनीटरों’ का एक दल नियुक्त किया था.
इसके बाद पूरे 14 सदस्यों की कमिटी की बैठक हुई, जिसने तीन आपत्तियों को खारिज कर दिया. इनमें से एक आपत्ति कुछ इस तरह की थी- यूरोपीय ईएडीएस यूरोफाइटर (एकमात्र दूसरी दावेदार) ने राफेल की कंपनी द्साल्ट के मुक़ाबले अपना आवेदन ज्यादा उपयुक्त फ़ारमैट में दाखिल किया है.
एक कमिटी के ऊपर दूसरी कमिटी बैठाई गई, जिसकी निगरानी एक दूसरी कमिटी ने की और तब जाकर 126 विमानों के सौदे को हरी झंडी दिखाई गई. इसके बाद क्या हुआ?
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हमेशा की तरह एंटनी के हाथ-पैर फूल गए और उन्होंने फैसले को टालते हुए सुझाव दिया कि निविदाएं फिर से मंगाई जाएं. याद रहे कि इस सौदे की शुरुआत 2001 में वाजपेयी सरकार के समय की गई थी. एंटनी का इरादा यही था कि इसका फैसला अगली सरकार पर छोड़ दिया जाए. उनकी मंशा यही थी कि उनका कार्यकाल बिना किसी रक्षा सौदा घोटाले के पूरा हो जाए, भले ही सेनाओं को मजबूत किया जाए या नहीं. उन्होंने बहुत ज्यादा खरीद-फ़रोख्त करने से परहेज किया, फिर भी अगस्ता वेस्टलैंड घोटाला उनके पल्ले पड़ ही गया.
और, ‘हमारी’ निर्णयसक्षम, कोई समझौता न करने वाली मोदी सरकार ने क्या किया? उसने बकवासों पर विराम लगाते हुए कहा कि भारतीय वायुसेना अनंत काल तक इंतज़ार नहीं कर सकती. इसलिए, क्या हो गया जो उसने कुछ प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया? ये सब महज कार्यपालिका के नियम-कायदे हैं, जिन्हें संवैधानिक मान्यता हासिल नहीं है. सो, चीफ एक्सक्यूटिव- इस मामले में प्रधानमंत्री- व्यापक राष्ट्रहित की खातिर हमेशा इन्हें नज़रअंदाज़ कर सकते हैं.
इसका पूरा खुलासा क्यों नहीं किया
अहम सवाल यह है कि मोदी सरकार ने इसका पूरा खुलासा क्यों नहीं किया? अगर उसने ऐसा किया होता तो आज हर खुलासा जिस तरह सुर्खियां बन रही हैं उसे पहले ही रोक लिया गया होता और बेमानी कर दिया गया होता.
तब रक्षा मंत्री को कैमरे के सामने या संसद में यह जताने की जरूरत नहीं पड़ती कि वे कितनी आहत या अपमानित महसूस कर रही हैं. उन्होंने प्रभावशाली तथ्यों और संदर्भों के साथ इस सौदे का अच्छा बचाव तो किया मगर क्या आपको वह सवाल याद है, जिसे राहुल गांधी बार-बार उठाते रहे लेकिन रक्षा मंत्री ने उसका जवाब नहीं दिया?
उनका सीधा सा सवाल यह था— माननीया रक्षा मंत्री जी, हमे सिर्फ यह बता दीजिए कि रक्षा मंत्रालय ने इस सौदे पर आपत्तियां उठाई थीं या नहीं? अगर उन्होंने सच-सच जवाब दे दिया होता कि हां उसने उठाई थीं, जो कि आम बात है लेकिन सरकार ने अपने विवेक से उन्हें खारिज कर दिया था, तब कहानी इस हद तक आगे नहीं खिंचती.
सरकारें प्रायः दो कारणों से खुद को साफ़-सुथरी बताने जैसे सरल काम नहीं करतीं. एक तो तब जब कि उनकी अंतरात्मा साफ नहीं होती, क्योंकि शायद वे बहुत कुछ छिपाना चाहती हैं और यह मान बैठती हैं कि उसके आलोचक उन रहस्यों तक नहीं पहुंच पाएंगे. दूसरी तब जब कि वे खुद को सर्वगुणसंपन्न मानते हुए आक्रामक हो जाती हैं और अपने विरोधियों के प्रति नफरत से भरकर उनके सवालों के जवाब देना अपनी शान के खिलाफ समझने लगती हैं. तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझसे सवाल करने की? क्या तुम यह समझते हो कि मैं तुम्हारी तरह भ्रष्ट हूं? राफेल के इसी ढलवां रनवे पर मोदी सरकार रपट रही है.
एक विश्लेषक और संपादक के तौर पर मैं उपरोक्त दो में से पहले निष्कर्ष- कि इस सरकार की अंतरात्मा रिश्वत जैसे किसी कलुष को छिपाने की जुगत में कलुषित हो चुकी है- पर निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए और ज्यादा प्रमाणों की प्रतीक्षा करूंगा. लेकिन विपक्ष के लिए इतना धीरज रखने की कोई वजह नहीं है. और, उपरोक्त दूसरा निष्कर्ष तो अब बिना किसी संदेह के साफ हो चुका है.
रक्षा मामलों में 30 वर्षों में दो बार फंसी है सरकार
पिछले तीन दशक में यह नाटक हम दो बार देख चुके है, जिनके परस्पर विरोधी परिणाम सामने आ चुके हैं. पहला नाटक बोफोर्स का था. अगर राजीव गांधी की अंतरात्मा साफ होती तो वे गंभीर जांच के आदेश देकर और दोषियों को दंडित करने का वादा करके उस घोटाले पर पहले ही दिन ढक्कन लगा देते. लेकिन वे एक के बाद एक गलतियां करते गए, और अंत में संयुक्त संसदीय कमिटी गठित की भी, तो उसका इस तरह खुल्लमखुल्ला इस्तेमाल किया कि स्विस खातों के ब्यौरे सामने आने से पहले ही वे पाखंडी और दोषी नज़र आने लगे थे.
बोफोर्स मामले में तो उन्होंने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी तब मार ली थी जब संसद में यह घोषणा कर दी कि न तो खुद उन्होंने और न उनके परिवार के किसी सदस्य ने इस सौदे में कोई रिश्वत ली है.
इस पर अगला सवाल स्पष्ट था कि माना कि आप पाक-साफ हैं लेकिन अगर दूसरे किसी ने गड़बड़ की है तो क्या देश के प्रति आपका यह फर्ज़ नहीं बनता कि उपयुक्त, निष्पक्ष और गहरी जांच करवा के उसे सजा दिलवाएं? कांग्रेस कह सकती है कि 32 साल हो गए लेकिन बोफोर्स सौदे में कमीशन लेने के लिए न तो कोई पकड़ा गया, न एक क्रोनर तक वापस आया. लेकिन इसी के साथ, न ही पार्टी की साख वापस लौटी. बोफोर्स का दाग कायम है, भले ही दिल्ली हाइकोर्ट ने मामले को खारिज कर दिया हो.
मुलायम सिंह से ले सकते थे सीख
दूसरा नाटक सुखोइ-30 की खरीद में महाघोटाले का था. सौदे पर दस्तखत हो गए थे और पी.वी. नरसिंहराव सरकार ने 1996 के चुनाव के बाद भी बड़ी अग्रिम राशि का भुगतान कर दिया था. इसमें तय प्रक्रियाओं का कम ही पालन किया गया था और अगर आप आज के मानदंडों लागू करें तो उसे देश के खिलाफ एक अपराध ही कहा जाएगा. लेकिन राव ने अपने विरोधियों (उस चुनाव में भारी पड़ रहे) भाजपा नेताओं को भरोसे में लिया.
बाद में, देवेगौड़ा के रक्षा मंत्री के तौर पर मुलायम सिंह यादव ने सारी फाइलें बड़े विपक्षी नेताओं के सामने खोल कर रख दीं और बेदाग निकल आए. उस जोरदार राजनीतिक जुगलबंदी की कहानी हम पहले बता चुके हैं. उसके बाद से सुखोइ खरीद पर कोई सवाल नहीं उठाया गया, और 23 साल बाद भी यह वायुसेना का मुख्य आधार है तथा उसका आधा मोर्चा संभाल रहा है.
सो, आप देख सकते हैं कि मोदी सरकार कौन-सा पाठ दोहरा रही है. अगर वह यह सोचती है कि अपमानित तथा प्रताड़ित किए जाने का उसका आत्मतुष्ट भाव और नरेंद्र मोदी की खरी साख उसका बेड़ा पार लगा देगी तो वह मुगालते में है. आम धारणा भले ही यह हो कि यह सरकार अपनी गोपनीयता की रक्षा करने में बेहद कुशल है, लेकिन इसके उलट हकीकत यह है कि राफेल से संबन्धित दस्तावेज़ लुटिएन्स की दूषित हवाओं में उड़ रहे हैं.
अब इस मुकाम पर भी सरकार श्वेतपत्र जैसा कुछ जारी करके आलोचकों तथा पत्रकारों को झिड़कने की जगह उनके सवालों के जवाब दे सकती है. अगर वह ऐसा कुछ नहीं करती तो राफेल का भूत अब आसानी से उसका पीछा नहीं छोड़ने वाला.
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