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Monday, 4 November, 2024
होममत-विमतराफेल की पूजा करने पर हो रहा विवाद, टेक्नोलॉजी पर नींबू-मिर्च के हावी होने का क्या है मतलब

राफेल की पूजा करने पर हो रहा विवाद, टेक्नोलॉजी पर नींबू-मिर्च के हावी होने का क्या है मतलब

अंतरिक्ष में प्रयोगों से लेकर दुनिया भर में जितनी भी तकनीकी उपलब्धियां हासिल की गई हैं, वे सब विज्ञान के बूते मुमकिन हुईं. उसमें धार्मिक आस्था या चमत्कार की कोई भूमिका नहीं है.

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रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने फ्रांस में रफाल विमान के साथ जिस तरह नींबू-नारियल आदि से ‘शस्त्र-पूजा‘ की, उसके बाद यह एक बार फिर सवाल उठा कि विज्ञान और आस्था या अंधविश्वास के साथ कैसे अंतर्संबंध होने चाहिए. रफाल के साथ ताजा कर्मकांड पर बहुत सारे लोगों के साथ कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी इसे ‘तमाशा’ या ‘ड्रामा’ करार दिया तो कुछ भाजपा नेताओं ने खड़गे को ‘भारतीय संस्कृति की जानकारी नहीं होने’ की बात कही तो खुद कांग्रेस के एक नेता ने कहा कि ‘खड़गे नास्तिक हैं, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं.’ उन्होंने ये भी कहा कि कांग्रेस के सभी नेता नास्तिक नहीं हैं.

विज्ञान पर अंधविश्वास को तरजीह

यह कोई पहला मामला नहीं है, जिसके जरिए यह समझा जाए कि कैसे परंपरा, आस्था और संस्कृति और अंधविश्वास के बीच नाम मात्र का ही फर्क है और किस तरह से विज्ञान और तकनीक की किसी उपलब्धि को अंधविश्वास के जरिए खारिज करने की कोशिश की जाती है. कई बार ये बताने की कोशिश होती है कि विज्ञान और प्राचीन आस्थाओं में कोई अंतर्विरोध नहीं हैं और दोनों साथ-साथ चल सकते हैं.

हाल ही में इसरो यानी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के प्रमुख के. सिवन ने जब ‘चंद्रयान-2’ के प्रक्षेपण के पहले तिरुपति में सार्वजनिक रूप से पूजा-अर्चना की, या फिर पूर्व इसरो-चीफ राधाकृष्णन ने भी जब ऐसा किया तब भी सवाल उठा कि क्या ऐसा करके विज्ञान को कमतर करने और उस पर अंधविश्वास को तरजीह देने की कोशिश नहीं की जा रही है?


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लेकिन हर बार ऐसे सवाल उठने पर परंपरा और संस्कारों का हवाला दिया जाता है, पूजा या कर्मकांड को निजी आस्था का मामला बता कर विज्ञान के समानांतर कर्मकांड को सही ठहराने की कोशिश की जाती है.

संवैधानिक जिम्मेदारी है वैज्ञानिक चेतना का विस्तार

भारतीय संविधान धार्मिक भावनाओं और आस्था की आजादी देता है, लेकिन यही संविधान अपने अनुच्छेद- 51-ए (एच) के तहत नागरिकों का ये कर्तव्य निर्धारित करता है कि वह वैज्ञानिक चेतना, मानवतावाद के विकास और विस्तार में अपनी भूमिका निभाए, जड़ परंपराओं पर सवाल उठाने और उसमें सुधार करने के हौसले के साथ लगातार काम करता रहे. इसका मतलब यह है कि अगर किसी की आस्था अंधविश्वासों और निराधार कल्पनाओं के बुनियाद पर टिकी है, तो वैज्ञानिक तर्क और दृष्टिकोण के साथ उस पर सवाल उठाने, आलोचना करने और वैज्ञानिक नजरिए से सोचने की अपेक्षा या मांग करना न केवल एक सभ्य समाज के लिए जरूरी है, बल्कि यह संवैधानिक दायित्व भी है. खासतौर पर नेताओं और जनप्रतिनिधियों के लिए इस संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वाह करना अनिवार्य होना चाहिए क्योंकि उनके व्यवहार का असर काफी लोगों पर पड़ता है.

अधंश्रद्धा को बढ़ावा देने की राजनीति

समस्या यह है कि वैज्ञानिक चेतना या दृष्टिकोण के सवाल को जान-बूझ कर दरकिनार किया जाता है. इस तरह के सवाल उठाने वालों को कई तरह की मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं. कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने अगर रफाल की शस्त्र-पूजा और नींबू-नारियल के साथ पूजा को ‘तमाशा’ बताया तो उन्हें भाजपा सहित अपनी पार्टी में भी आलोचना झेलनी पड़ी. उन्हें ‘नास्तिक’ बता कर उनके सवाल को दरकिनार करने की कोशिश की गई. सवाल है कि क्या ‘नास्तिक’ होना या फिर वैज्ञानिक चेतना से लैस होने में कोई समस्या है?

चार्वाक से लेकर पेरियार या फिर भगत सिंह जैसे नास्तिकों की एक लंबी परंपरा रही है, जो विज्ञान पर भरोसा करते रहे और वैज्ञानिक चेतना से लैस रहे. आज भी ऐसे तमाम लोग हैं, जो विज्ञान को सिर्फ किताबों में नहीं पढ़ते, वैज्ञानिक चेतना को अपनी ताकत बनाते हैं. ऐसे लोग जानते हैं कि अंतरिक्ष में प्रयोगों से लेकर दुनिया भर में जितनी भी तकनीकी उपलब्धियां हासिल की गई है, वे सब विज्ञान के बूते मुमकिन हुई. उसमें धार्मिक आस्था, पूजा-पाठ, कर्मकांड या चमत्कार वगैरह की कोई भूमिका नहीं है.

लेकिन इस तरह सोचने को ‘संस्कारविहीन’ और परंपराद्रोही बता कर खारिज करना और इसके बरक्स परंपरा और आस्था का महिमामंडन आखिर जिस तरह जमीन रच रहा है, उसका अंत आखिर कहां होगा! अगर आस्था के पर्दे में पलते अंधविश्वास के जरिए युद्धक विमान उड़ाए जा सकते हैं, अंतरिक्ष में प्रक्षेपण को कामयाब बनाया जा सकता है, तो शहरों-कस्बों में व्यापक स्तर पर फैले वे लोग कैसे गलत हैं जो किसी ‘वशीकरण मंत्र’ के जरिए रोजगार, प्रेमिका, पड़ोसन आदि दुनिया के हर ‘सुख’ को हासिल कराने का दावा करते हैं और न जाने कितने लोगों को रोज ही ठगी का शिकार बनाते हैं.


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विडंबना यह है कि सार्वजनिक रूप से परंपरा के नाम पर अंधविश्वास को निबाहने और बढ़ावा देने के काम में लगे जनप्रतिनिधि या मशहूर लोग इस सवाल को खारिज करते हैं कि उनकी ऐसी गतिविधियों का असर सामान्य जनता पर क्या पड़ता है! यह बेवजह नहीं है कि विज्ञान की किताबों के सहारे अच्छी पढ़ाई पूरी करने वाले युवा भी आमतौर पर वैज्ञानिक चेतना के सवालों से दूर रहते हैं. विज्ञान और आस्था के बीच में टंगे हुए वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में समाज के सामने होते हैं, जो कुछ भी करते तो खुद है, लेकिन उसे खुद पर भरोसा नहीं होता है. इसी भरोसे की कमी को वह सबसे निर्णायक वक्त में पूजा-पाठ, कर्मकांड के जरिए पूरा करने की कोशिश करता है.

अंधविश्वासों के प्रदर्शन की राजनीति

यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि मनुष्य के जीवन को सहज और सुविधा से संपन्न बनाने वाले दुनिया के लगभग सारे आविष्कार वैज्ञानिक चेतना से लैस लोगों ने किए. जिनके हिस्से ऐसी कोई उपलब्धि नहीं रही, वे या तो दावों के दंभ में जीते रहे या फिर उन दावों की राजनीति करते रहे.

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि वैज्ञानिक चेतना और आस्था, दोनों दो ध्रुव के विचार हैं और एक दूसरे के विपरीत हैं. अगर दोनों का निर्वाह एक साथ करने की कोशिश की जाती है तो एक विभ्रम की स्थिति बनती है और आखिरकार इसका खामियाजा वैज्ञानिक चेतना को उठाना पड़ता है.

राजनीति, समाज या किसी संस्था की जानी-मानी हस्तियां अगर सार्वजनिक रूप से विज्ञान को कमतर बताने वाली गतिविधियां करते हैं तो इसका मकसद समाज को ये संदेश देना होता है कि आम जनता भी धार्मिकता का निर्वाह इसी शिद्दत से करे. ऐसे नेताओं के रहते हुए समाज में वैज्ञानिकता का विकास मुमकिन नहीं है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)

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