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Thursday, 18 April, 2024
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दलितों के जूते, घड़ी, घोड़ी से क्यों परेशान होते हैं लोग

संविधान ने बेशक छुआछूत का निषेध कर दिया है और जातीय भेदभाव के खिलाफ बेशक संसद ने कानून बना दिया है, लेकिन दलितों को बराबरी से देखने का भाव समाज के एक हिस्से में अब तक नहीं आया है.

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किसी सभ्य समाज में एकबारगी इस बात पर विश्वास करना मुश्किल होगा कि एक जिलाधिकारी स्तर का व्यक्ति जातीय भेदभाव की शिकायत आने पर कार्रवाई करने से पहले, वहां मौजूद किसी दलित नेता की गाड़ी, कपड़े, घड़ी और जूते की कीमत का हवाला देकर एक तरह से समूचे समुदाय की ओर से होने वाली शिकायत पर सवाल उठाता है और उसका मजाक उड़ाता है!

ये मामला उत्तर प्रदेश के बलिया जिले का है, जहां के बारे में मीडिया में खबर छपी कि वहां मिड-डे-मील में बच्चों के साथ जातीय भेदभाव हो रहा है. प्रिंसिपल के हवाले से बताया गया, ‘बच्चे घर से अपनी थाली लेकर आते हैं और अलग बैठकर खाते हैं.’ बीएसपी की अध्यक्ष मायावती ने इस मामले में कानूनी कार्रवाई करने के लिए सरकार से मांग की.

बलिया के डीएम इसी मामले के जांच करने के लिए गांव में गए थे, जहां उन्हें बीएसपी के एक नेता मदन राम दिख गए, जो शिकायत सुनकर वहां आए थे. डीएम ने उस नेता से उनकी कार, घड़ी और जूतों के बारे में पूछ डाला. पूछने का अंदाज कुछ ऐसा था कि इतनी ठाठ से जीने वालों को जातीय उत्पीड़न की शिकायत नहीं करनी चाहिए. चूंकि वे नेता दलित थे और शिकायत भी दलित बच्चों की तरफ से थी, इसलिए डीएम के इस व्यवहार को जातिगत नज़रिये से देखा गया. इसका वीडियो वायरल होने के बाद दलितों ने सोशल मीडिया पर विरोध किया और अपने जूतों की तस्वीरें पोस्ट कीं.


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जातिवाद से बच नहीं पाते नौकरशाह

हैरानी की बात यह है कि शिक्षित और सभ्य दायरे का हिस्सा माना जाना वाला कोई व्यक्ति जाति से जुड़ी कुंठा का इस तरह बिना किसी हिचक के सार्वजनिक प्रदर्शन कैसे कर सकता है! खासतौर पर तब जब जातिगत भेदभाव से जुड़े किसी भी बर्ताव की शिकायत पर दोषी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करना उनकी ड्यूटी है! जातिगत दुराग्रह और इसके तहत होने वाले दुर्व्यवहार, खासकर छुआछूत का संविधान में निषेध है और डीएम को उसका पालन करना चाहिए था.

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सवाल है कि अगर किसी नेता के पास महंगी गाड़ी, महंगे कपड़े और महंगे जूते हैं और अफसर को लगता है कि उनके पास ये सब होना कानून के तहत अपराध है तो वे उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकते थे. ऐसी कोई कार्रवाई करने की जगह उन्होंने उक्त नेता का मजाक उड़ाने की कोशिश की.

दलितों को एक खास छवि में देखना चाहते हैं कुछ लोग

इन घटनाओं पर गौर करें –

1. गुजरात के एक गांव में एक दलित किशोर को इस लिए पीट दिया गया क्योंकि एक खास तरह का जूता (मोजड़ी) पहन लिया था, जिसे उस इलाके में सिर्फ ऊंची जाति के लोग पहनते हैं. साथ में उसने एक इमिटेशन गोल्ड चेन भी पहन ली थी.

2. गुजरात में ही 22 साल के एक युवक को सवर्णों ने इसलिए पीट दिया कि उसने फेसबुक पर अपने नाम में सिंह टाइटिल जोड़ लिया था.

3. मध्य प्रदेश में एक दलित दूल्हे को बारात में हेलमेट लगाकर निकलना पड़ा क्योंकि वहां के सवर्णों को इस बात पर एतराज था कि वह दलित होने के बावजूद घोड़ी पर कैसे सवार हो सकता है.

4. राजस्थान में एक दलित दूल्हे को इसलिए पीट दिया गया क्योंकि वह घोड़ी पर सवार होकर बारात ले जा रहा था.

5. मध्य प्रदेश में एक दलित युवक को गांव के सरपंच और उनके साथियों ने इसलिए पीट दिया क्योंकि वह उनके घर के सामने से बाइक पर सवार होकर गुजर रहा था.


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इस तरह की खबरें लगातार देश के अलग-अलग हिस्सों से आती रहती हैं. बलिया में अभी डीएम ने जो किया है वह गुजरात की उस घटना से कितना अलग है, जिसमें एक दलित किशोर के अच्छा जूता पहनने पर ऊंची कही जाने वाली जाति के युवकों ने पिटाई की और कहा कि क्या तुम हमारी तरह होना चाहते हो! फर्क बस इतना है कि गुजरात के गांव में जातिगत श्रेष्ठता बोध के प्रदर्शन के तरीके में प्रत्यक्ष हिंसा थी और बलिया के डीएम का व्यवहार एक ऐसी परोक्ष हिंसा का मनोविज्ञान और उसकी व्यवस्था रचता है, जिसमें मध्य प्रदेश के गांव में दलितों को जूता-चप्पल नहीं पहनने दिया जाता है. अगर किसी जिले के प्रशासन में सर्वेसर्वा माने जाने वाले किसी अफसर यानी डीएम को ही दलितों का महंगा जूता पहनना खटकने लगे तो इसका क्या इलाज होगा!

स्टीरियोटाइपिंग की समस्या

दरअसल, दलित-वंचित जातियों-तबकों के लोगों को फटेहाल, दयनीय, लाचार और विनीत हालत में देखने की आदत और अभ्यास वाली आंखों को दलित-बहुजन जातियों-तबकों के लोगों का अच्छा पहनना-ओढ़ना या अच्छे आर्थिक हैसियत में रहना अपने ‘पोजिशन’ या पद-कद के खिलाफ लगता है! इसे रोकने के लिए परोक्ष रूप से एक सुनियोजित व्यवस्था बनाई ही गई है, इसके लिए वे कई बार प्रत्यक्ष हिंसा तक का सहारा लेते हैं! मिर्चपुर, गोहाना, धर्मपुरी जैसी तमाम जगहों पर दलित बस्तियों पर हमले की प्रकृति का अध्ययन किया जा सकता है, जिसमें दलितों के घर और उनकी थोड़ी-सी संपत्ति को ज्यादा और बर्बरता से नुकसान पहुंचाया गया!


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एक सभ्य होता या होने का दावा करता समाज जब सहज और स्वाभाविक तरीके से मानवीय मूल्यों का विकास होता नहीं देखता है तो उसके लिए वह नियम-कायदे बनाता है. उस पर अमल सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी शासन के तंत्र को सौंपता है! लेकिन क्या ऐसे व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ और किसी सार्वजनिक जिम्मेदारी के पद पर काम करने के योग्य माना जा सकता है जो संविधानेतर व्यवहार करें?

इस समूचे सामाजिक व्यवहार की परतें बहुस्तरीय होती हैं. एक ओर वह दूरदराज के अशिक्षित माने जाने वाले इलाकों में किसी दलित किशोर के जूता पहनने पर ऊंची कही जाने वाली जाति के युवकों के जरिए पिटाई या फिर किसी गांव में दलितों के जूता-चप्पल पहनने पर पाबंदी के रास्ते तैयार करता है तो दूसरी ओर शीर्ष पद पर बैठे किसी अधिकारी और तंत्र में बैठे बहुत शिक्षित माने जाने वाले लोगों के सांस्थानिक बर्ताव से भी यह सुनिश्चित करता है! इस दुश्चक्र को समझना बहुत जटिल नहीं है, लेकिन तोड़ना मुश्किल जरूर है! इसके लिए समाज को एक लंबी यात्रा से गुजरना पड़ सकता है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)

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