म्यूनिख, जर्मनी के बेयेरिशर हॉफ होटल के शीशे से ढके गुंबद वाले लाउंज में, धुंधली रोशनी के एक गड्ढे में खड़े होकर, अफगानिस्तान के पूर्व जासूस प्रमुख अमरुल्लाह सालेह को समझ आ गया था कि जिस राष्ट्र को बनाने में उन्होंने अपनी ज़िंदगी दी, वह मरने वाला है. लगभग एक दशक तक, तालिबान को दोहा में सुरक्षित ठिकाना मिला हुआ था. वे वहां एक तरह से दूतावास चला रहे थे, उन्हें कूटनीतिक सुरक्षा मिली हुई थी. वे पैसे जुटाते थे, लड़ाई की योजनाएं बनाते थे और कराची व पेशावर में अपने शीर्ष नेताओं से मिलने जाते थे. लेकिन अफगानिस्तान में हत्या और हिंसा बिना रुके जारी रही. राष्ट्रपति अशरफ गनी चाहते थे कि ये जिहादी बाहर जाएं.
साल 2020 में म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन के दौरान गनी ने यही बात क़तर के अमीर से कही. अमीर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया: “हमने तो सिर्फ़ उन्हें क़तर में रहने की इजाज़त दी है. बाकी सब, जिसमें उनके खर्च भी शामिल हैं, सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी देखती और संभालती है. अगर आप चाहते हैं कि यह ख़त्म हो, तो सीआईए से कहिए कि इसे रोकें.”
इस हफ्ते, मध्य पूर्व में शांति दूत के तौर पर क़तर की भूमिका पर हमला हुआ, जब इज़राइली लड़ाकू विमानों ने दोहा के मशहूर कॉर्निश से ज़्यादा दूर नहीं स्थित आतंकी संगठन हमास के मुख्यालय को निशाना बनाया. बमबारी उस समय हुई जब हमास, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के ग़ज़ा युद्धविराम प्रस्ताव पर चर्चा कर रहा था. अल-उदीद एयर बेस पर तैनात मज़बूत वायु रक्षा तंत्र की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. यह वही ठिकाना है जहां क़तर इमीरी एयर फ़ोर्स, संयुक्त राज्य अमेरिका की एयर फ़ोर्स और यूनाइटेड किंगडम की रॉयल एयर फ़ोर्स मौजूद हैं.
दशकों से क़तर ने सुरक्षा और प्रतिष्ठा पाने के लिए खुद को अमेरिका और मध्य पूर्व में संघर्षरत देशों के बीच मध्यस्थ के तौर पर पेश किया है. उसने हमास को अरबों डॉलर भेजे, वह भी इज़राइली प्रधानमंत्री की पूरी मंज़ूरी के साथ. बेंजामिन नेतन्याहू के सहयोगियों तक नक़दी पहुंचाई. सीरिया में सत्ता हथियाने वाले इस्लामियों की मदद की. और मिस्र से लेकर लीबिया और ट्यूनीशिया तक अपना प्रभाव बढ़ाया.
लेकिन जब विश्व व्यवस्था नए दबावों के बोझ तले डगमगा रही है, तो शांति स्थापना अब और भी ख़तरनाक काम बनती जा रही है. इस साल की शुरुआत में, अल-उदीद पर ईरानी बैलिस्टिक मिसाइलों से हमला हुआ, जो अमेरिका द्वारा उस देश के परमाणु ढांचे पर किए गए हमलों के बदले में था.
रेगिस्तान में शरणस्थल
“बेघर लोगों का काबा”—क़तर के संस्थापक शासक शेख़ जसीम बिन मोहम्मद बिन थानी ने कभी अपने अमीरात को यही कहा था. ब्रिटेन और तुर्की जैसे दो बड़े साम्राज्यों की पहुंच के किनारे पर स्थित क़तर लंबे समय से उन लोगों के लिए सुरक्षित जगह रहा था जिन्हें कहीं और से भागना पड़ा हो—चाहे वे समुद्री लुटेरे हों, व्यापारी हों या विद्रोही.
उन्नीसवीं सदी के आख़िर में, हालांकि, शेख़ जसीम के इर्द-गिर्द बसे क़बीले और तुर्क शासकों के बीच तनाव बढ़ गया. 1892 में, शेख़ जसीम ने तुर्की सेना पर ऐतिहासिक जीत हासिल की और खुद को इस क्षेत्र का सबसे अहम सरदार स्थापित किया, इतिहासकार हबीबुर रहमान बताते हैं.
लेकिन कुछ ही महीनों में शेख़ को यह समझ आ गया कि उनके साम्राज्यवादी संरक्षक पतन की ओर बढ़ रहे हैं. ब्रिटिश, जो बहरीन की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे, ने 1895 में शेख़ जसीम की सेनाओं पर पहले ही हमला कर दिया. इससे फ़ारस की खाड़ी में ब्रिटेन की प्रधान शक्ति स्थापित हो गई. पहले विश्व युद्ध के भड़कने के बाद, तुर्कों ने क़तर में अपने आख़िरी ठिकाने खाली कर दिए, जिसके बाद जसीम का क़तर ब्रिटिश संरक्षित क्षेत्र बन गया.
अन्य फ़ारस खाड़ी अमीरातों की तरह, क़तर भी जल्द ही आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनाने की समस्या से जूझने लगा. 1939 में तेल की खोज ने कुछ राजस्व उपलब्ध कराए, लेकिन विद्वान डेविड रॉबर्ट्स ने लिखा है कि उस साल पूरे देश में एक भी आधुनिक स्कूल नहीं था. केवल एक शैक्षणिक संस्था थी—सऊदी मौलवी अल-शेख़ अब्दुल-अज़ीज़ अल-मन्ना द्वारा स्थापित एक मदरसा, जो अमीरात के अकेले क़ाज़ी भी थे.
शिक्षा व्यवस्था खड़ी करने का काम जसीम अल-दरविश को मिला, जो अल-मन्ना के पूर्व छात्र थे. क़तर का पहला स्कूल 1951 में शुरू हुआ, जिसमें सिर्फ़ 241 छात्र थे, सभी लड़के, और छह पुरुष शिक्षक थे. और शिक्षकों को नियुक्त करने के लिए, अल-दरविश ने अपने मदरसा संपर्कों के ज़रिए मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक हसन अल-बन्ना से मदद मांगी. अल-बन्ना ने एक और ब्रदरहुड सदस्य, अब्दुल बदी-सक़र को शिक्षा व्यवस्था खड़ी करने का ज़िम्मा दिया.
हालांकि, रॉबर्ट्स लिखते हैं कि ये नियुक्तियां वैचारिक चुनाव से ज़्यादा मौक़ों का नतीजा थीं. शिक्षित मुस्लिम ब्रदरहुड कार्यकर्ताओं की उपलब्धता मिस्र में धार्मिक दक्षिणपंथ पर बढ़ती कार्रवाई का नतीजा थी. बाद में, खलीफ़ा बिन हमद अल-थानी, जिन्होंने 1972 से 1995 तक शासन किया, ने सीरियाई अब्दुल्ला अब्द अल-दैम जैसे अरब राष्ट्रवादियों को भी नियुक्त किया.
पश्चिम के जिहादी
इस्लामवादियों की भर्ती के पीछे असली ताक़त यूनाइटेड किंगडम थी. अरब राष्ट्रवाद को ख़तरनाक प्रभाव मानते हुए ब्रिटिश ने अल-दाइम को हटाने के लिए मजबूर किया. फिर, 1958 में मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड नेता इज़्ज़ेद्दीन इब्राहीम को असिस्टेंट डायरेक्टर ऑफ नॉलेज बनाया गया, जो स्कूल का पाठ्यक्रम तैयार करने के ज़िम्मेदार थे. शिक्षा विभाग के इस्लामिक साइंसेज़ डिवीजन के डायरेक्टर, अब्दुल्ला बिन तुकरी अल-सुबई को काहिरा के मशहूर अल-अज़हर सेमिनरी भेजा गया ताकि शिक्षक नियुक्त किए जा सकें. उनकी सबसे मशहूर नियुक्ति साबित हुए यूसुफ अल-करदावी, जो खाड़ी में ब्रदरहुड के लिए एक ध्रुवतारा बनकर उभरे.
अल-करदावी जैसे लोग 1970 के दशक की इस्लामिक अवेकनिंग में अहम भूमिका निभाने वाले थे. यह वैचारिक आंदोलन सोवियत-विरोधी अफ़ग़ानिस्तान युद्ध में और बाद में राष्ट्रीय जिहादी आंदोलनों में अरब युवाओं की बड़े पैमाने पर भर्ती की ज़मीन बना. ब्रदरहुड के अन्य प्रभावशाली नेताओं के साथ मिलकर अल-करदावी ने तथाकथित शहादत अभियानों को धार्मिक मान्यता दी.
पूरे क्षेत्र में, ब्रिटिश प्रभाव इस्लामवादियों को ऐसे ही अधिकारिक पदों पर बैठा रहा था. यह कार्यक्रम कम्युनिस्ट प्रभाव को पीछे धकेलने के लिए बनाया गया था. पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान ने इस्लामी नेता सईद रमज़ान को रेडियो स्लॉट दिया और उनकी एक किताब की भूमिका लिखी.
ब्रदरहुड ने इसका बदला चुकाया और मध्य पूर्व में पाकिस्तानी मुद्दों के लिए प्रचार किया. अन्य चीज़ों के अलावा, अल-बन्ना ने हैदराबाद और कश्मीर के भारत में विलय को इस्लामी भूमि का ग़ैर-क़ानूनी क़ब्ज़ा बताया.
फिर भी, ब्रदरहुड ही अकेले उग्रपंथी नहीं थे जिन्हें क़तर में सुरक्षित ठिकाना मिला. वेस्ट बैंक और ग़ाज़ा से विस्थापित बड़ी संख्या में फ़लस्तीनियों ने यहां घर बनाया और बौद्धिक जगत में प्रभाव जमाया. मोहम्मद यूसुफ अल-नज्जार और कमाल अदवान—जिन्हें बाद में 1973 में इज़रायली ओलंपिक खिलाड़ियों की हत्या में उनकी भूमिका के लिए इज़रायली ख़ुफ़िया एजेंसी ने मार डाला—ने अमीरात में कई साल गुज़ारे.
आखिरी सबक़?
इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन के कुवैत पर आक्रमण से यह सबक सीखते हुए कि छोटे, तेल-समृद्ध देश भी असुरक्षित हैं, क़तर ने 1990 के बाद अमेरिका से अपने रिश्ते मज़बूत करने शुरू किए.
1996 से, क़तर ने अल-उदीद एयरबेस पर अरबों डॉलर लगाए, जहां वर्तमान में 11,000 से अधिक अमेरिकी सैनिक और 100 से ज़्यादा विमान मौजूद हैं. और ज़रूरत पड़ने पर, क़तर ने मुस्लिम ब्रदरहुड और हमास के साथ अपने रिश्तों को नरम करने की भी तत्परता दिखाई. अपने पड़ोसियों सऊदी अरब, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात के साथ छह साल लंबे कड़े विवाद के बाद—जिन्होंने ब्रदरहुड का विरोध किया था—क़तर ने अमीरात के सहयोगियों की मौजूदगी को कम करने पर सहमति जताई.
कई विशेषज्ञों के लिए यह साफ़ है कि अमीरात का इस्लामवादियों के साथ गठबंधन महिमा की चाह से प्रेरित है. 1995 से 2013 तक शासन करने वाले हमद बिन ख़लीफ़ा अल-थानी ने इज़रायल–फ़लस्तीन सुलह करवाकर क़तर के लिए वैश्विक समर्थन जीतने की कोशिश की. गिल फ़ीलर और हायिम ज़ीव का तर्क है कि वे खुद को एक तरह के इस्लामवादी गमाल अब्दुल नासिर के रूप में देखते थे, जो अरब पहचान के नए रूप के संस्थापक थे.
भले ही मौजूदा अमीर, शेख तमीम बिन हमद अल-थानी, उन मसीही जुनूनों से प्रेरित न हों, लेकिन वे साफ़ समझते हैं कि क़तर की अहमियत इस्लामवादियों और पश्चिम—दोनों के साथ उसके समानांतर रिश्तों से आती है. अफ़ग़ानिस्तान, सीरिया और लीबिया में, क़तर ने उन इस्लामवादियों को जगह दिलाई जिन्हें पश्चिम अपने काबू में रखना चाहता है. यह एक ख़तरनाक स्थिति है—लेकिन किस्मत ने अमीरात को दुनिया के ऐसे हिस्से में रखा है, जहां छांव में छुपने की कोई शांत जगह नहीं है.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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