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Wednesday, 13 November, 2024
होममत-विमतपीवी नरसिम्हा राव भारत के ऐसे PM जिसने सबसे ज्यादा अपमान झेला और जानबूझकर उन्हें गलत समझा गया

पीवी नरसिम्हा राव भारत के ऐसे PM जिसने सबसे ज्यादा अपमान झेला और जानबूझकर उन्हें गलत समझा गया

नरसिम्हा राव की कार्यशैली इतनी शालीन थी कि वे आत्म-निषेध की हद तक जाती थी, जिसे किसी राजनीतिक नेता का गुण नहीं माना जाता, लेकिन उनका तरीका मुकम्मिल और प्रभावी था.

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जिस प्रधानमंत्री से उनके कार्यकाल में मेरी पहली सीधी बातचीत हुई, वे पामुलपर्थी वेंकट नरसिम्हा राव थे. तब तक मैंने ऐसा खास कुछ नहीं किया था कि यह सम्मान हासिल करने का हकदार बन सकूं. 1991 की सर्दियों में काबुल में अफगानिस्तान के तानाशाह नज़ीबुल्लाह ने इंटरव्यू के बीच मेरी कोहनी पर थपकी देते हुए अपने दुभाषिए के मार्फत मुझसे पूछा था, “मुझे बताया गया है कि आप एक अहम शख्स हैं. क्या आप मेरी तरफ से अपने प्रधानमंत्री जनाब नरसिम्हा राव तक एक अहम बात पहुंचा सकते हैं?”

उस समय मैं महज़ एक रिपोर्टर था. मैंने उनसे कहा कि मैं उतना अहम शख्स नहीं हूं, लेकिन नजीब ने कहा, महज़ रिपोर्टर को अफगानी जंग के दौरान साल में पांच बार वहां नहीं भेजा जा सकता. इसके बाद उन्होंने मुझे वो बात बताई, जो वह राव तक पहुंचाना चाहते थे और यह भी कहा कि उन्हें अपने राजदूत पर भरोसा नहीं है. मैंने खुद से कहा, इस बात को अपने पोते-पोतियों को सुनाने के लिए अपनी यादों में दर्ज करके फिलहाल भूल जाओ, लेकिन भारत लौटने के बाद, एक पार्टी में मैंने इसे एक चुटकुले के रूप में एम.जे. अकबर को सुनाया, जो उस समय राव के करीबी थे. उन्होंने हंसते हुए मुझसे कहा कि मैं प्रधानमंत्री को यह बात ज़रूर बता दूं. मैंने भी हंस कर बात खत्म कर दी.

अगली सुबह प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आ गया और उनसे मुलाकात की पेशकश की गई.

राव वहां बैठे थे और किसी बुजुर्ग दादा की तरह दलिया सुड़क रहे थे, जो उनकी गर्दन में लगे नैपकिन पर भी गिर रहा था. मैंने बार-बार माफी मांगते हुए उन्हें उस वाकये, उस संदेश की पूरी कहानी सुना दी कि मैं नहीं जानता कि वहां मेरा क्या काम है, कि नजीब ने इस काम के लिए मुझे क्यों चुना या कि शायद मुझे बेवकूफ बनाया गया है. मैंने कहा, एक रिपोर्टर होने के नाते मैं इस सबमें जोड़े जाने पर अटपटा महसूस कर रहा हूं, सो क्या आप इन बातों को अपने तक ही रखने की कृपा करेंगे?

उन्होंने अपने पेट को तीन बार ठोका, अपनी बांहों को समेटा और मुस्कराते हुए बोले, इसके अंदर जो जाता है वो हमेशा के लिए वहीं रह जाता है.

Shekhar Gupta with Najibullah
अफगानिस्तान के ताकतवर नेता नजीबुल्लाह के साथ 1991 का शीतकालीन इंटरव्यू जिसके कारण नरसिम्हा राव से मेरी पहली मुलाकात हुई | फाइल फोटो

लेकिन राव ऐसे शख्स नहीं थे जो इसे हल्के से लेते. उन्होंने अपनी लीड पेंसिल से काफी बातें नोट की और इसके बाद अफगान समस्या पर मुझे लंबा भाषण दिया, जिसमें इस बात का गहरा विश्लेषण था कि सुपरिभाषित राष्ट्रीयता के अभाव में जब जनजातीय और स्थानीय आग्रहों का धर्म के साथ टकराव होता है तब क्या होता है. अब, नजीब का संदेश क्या था, उसे भविष्य के लिए मेरे पास सुरक्षित रहने दीजिए, लेकिन नेहरू के सिवा और किसी भारतीय प्रधानमंत्री में इतनी समझ और प्रतिभा शायद ही होगी जो इतने जटिल मसले पर आधे घंटे के विमर्श में इतनी गहरी सूझबूझ और विवेक का समावेश कर सकता था.

A weary Narasimha Rao showing clearly that its at times boring fulfilling the role of Prime Minister | Photo: Praveen Jain
एक कार्यक्रम में जम्हाई लेते हुए कैमरे में कैद नरसिम्हा राव | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

लेकिन आज जब पूरे देश ने उन्हें भुला दिया है, तब यह सब लिखते हुए मन उदास हो जाता है. वे हमारे एक ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिनकी सबसे ज्यादा निंदा की गई है और सोचे-समझे ढंग से उन्हें गलत भी समझा गया. मैंने ऐसा ही कुछ उस दिन भी लिखा था जब एक सुनवाई अदालत ने उन्हें दोषी ठहराया था (हालांकि, बाद में उन्हें बरी कर दिया गया था). उस समय हर कोई उन्हें कोस रहा था और उनकी पार्टी उस पुराने जुमले को दोहरा रही थी कि “कानून को अपना काम करने दीजिए”, लेकिन पार्टी जिन्हें वास्तव में अपना मानती थी उनके मामले में उसने इस जुमले का कभी इस्तेमाल नहीं किया. तब भी नहीं जब इलाहाबाद हाइकोर्ट ने श्रीमती (इंदिरा) गांधी को चुनाव में गड़बड़ी करने के आरोप में लोकसभा की सदस्यता से बर्खास्त कर दिया था (तब उनकी पार्टी ने इसे मामूली गलती बताई थी); तब भी नहीं जब संजय गांधी को इमरजेंसी के दौरान की गई ज़्यादतियों और भ्रष्टाचार के कई मामलों के लिए अदालत में पेश होना पड़ा.

राव उन प्रधानमंत्रियों में नहीं थे, जिन तक आसानी से पहुंचा जा सकता था. वे एच.डी. देवेगौड़ा के बाद निश्चित रूप से दूसरे सबसे अनाकर्षक प्रधानमंत्री थे, लेकिन वे काम पर हमेशा तैनात रहते थे. उन्होंने शीतयुद्ध की समाप्ति, अर्थव्यवस्था और विदेश नीति को खोले जाने के दौरान कमज़ोर भारत का किस तरह नेतृत्व किया; बेनज़ीर भुट्टो को उनके सबसे उग्र दौर के दौरान किस सफाई के साथ दरकिनार किया; जब कश्मीर तथा पंजाब में आग लगी हुई थी और अयोध्या में नई आग भड़काने की कोशिश हो रही थी तब देश को किस तरह आगे बढ़ाया उन सबके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. यह वो समय भी था जब अमेरिका भारत की गर्दन पर सवार था; हमें उबरने के लिए आईएमएफ की मदद की ज़रूरत थी; मानवाधिकार समर्थक पूरा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय एक अकेला कश्मीर पर नज़र गड़ाए था. उस नाज़ुक दौर में इज़रायल के साथ संबंधों का स्तर ऊपर उठाने का फैसला और कौन कर सकता था, लेकिन इसकी औपचारिक घोषणा करने के लिए अराफात के भारत के दौरे और उस फैसले का उनसे एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में समर्थन करवाने का पूरे धैर्य के साथ कौन इंतज़ार कर सकता था?

राव की कार्यशैली इतनी शालीन थी कि वह आत्म-निषेध की हद तक जाती थी, जिसे किसी राजनीतिक नेता का गुण नहीं माना जाता, लेकिन उनका तरीका मुकम्मिल और प्रभावी था. संशय उनकी कार्यशैली की पहचान बेशक थी, लेकिन उस शख्स से आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं जिसकी अपनी पार्टी उसे उसके सही कामों का श्रेय भी न देने को तैयार हो? सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अगर वे नहीं चाहते तो वे आपको कुछ भी नहीं बताते थे, मानो अगर उन्होंने एक फालतू शब्द भी बोल दिया तो किसी राष्ट्रीय रहस्य का खुलासा हो जाएगा.

एक बार मैंने उनसे पूछा था, क्या हम कश्मीर में पहले से बेहतर काम कर रहे हैं? उनका जवाब था, “देखिए, हम कुछ करेंगे, वे कुछ करेंगे. हमें जो हासिल होगा वह हमेशा इस सबका कुल नतीजा ही होगा.”

“मैं अंदर ही अंदर बुदबुदाया था, बहुत मददगार है यह.

कारगिल युद्ध जब अपने चरम पर था तब इन बुजुर्ग नेता से ज्ञान के कुछ शब्द हासिल करने के मकसद से मैं एक दोपहर उनके पास पहुंच गया था. यह जानने के लिए कि ये पुराने शातिर नेता इस तरह के संकट से किस तरह निबटते? क्या इस संकट के आगे हार मान लेते? क्या उन्होंने युद्ध को और तेज़ कर दिया होता? संकट प्रबंधन की ‘नरसिम्हा राव कला’ में एक और सबक क्या होता. यह तब की बात है जब उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन जरा खुल कर बताया था कि तब उन्होंने क्या किया था (इसके बारे में मैंने बाबरी विध्वंस की 25वीं वर्षगांठ पर विस्तार से लिखा था जिसका शीर्षक था—‘बाबरी कांड में धोखा खाए राव ने आडवाणी को हवाला में फंसाकर बदला सधाया’. यह भी कि जब चरारे शरीफ में आग लगने की खबर आई थी तब उन्होंने हज़रतबल की घेराबंदी के मसले को किस तरह ‘सुलझाया’ था और इसी क्रम में कार्रवाई के नियम पंजाब में किस तरह तय किए गए थे. जिस दिन अदालत में उन्हें सज़ा सुनाई गई थी उस दिन वहां मौजूद उनके समर्थकों में के.पी.एस. गिल भी शामिल थे और इसका आप चाहे जो अर्थ निकाल लें. सौभाग्य से सभी लोगों में स्वाभिमान की उतनी कमी नहीं होती जितनी आम कांग्रेसियों में होती है.

यह राव के सम्मान में लिखा कोई राजनीतिक स्मृति-लेख नहीं है. उनके बारे में आप विनय सत्पथी द्वारा लिखित उनकी जीवनी ‘हाफ लायन’ (पेंगुइन बुक्स, 2016) से और भी बहुत कुछ जान सकते हैं. यहां केवल उस दिलचस्प शख्सियत को रेखांकित करने की कोशिश की गई है जिसने पांच बेहद चुनौतीपूर्ण वर्षों में बहुत कुछ हासिल किया और मित्र विहीन होकर इस दुनिया से विदा हुए और इसका ताल्लुक उनके “भ्रष्ट तरीकों” को लेकर किसी नैतिक आक्रोश से नहीं है.

मध्यवर्ग ने पूरे पांच साल तक भाजपा को सत्ता से दूर रखने की सजा राव को दी. वरना वह उस नेता से इतनी नफरत क्यों करता जिसने आर्थिक सुधारों के जरिए उसे इतना कुछ दिया? इसी तरह, कांग्रेस पार्टी ने उन्हें गांधी परिवार को सत्ता से बाहर रखने के लिए सजा दी—इसलिए कि उन्होंने पार्टी का नेतृत्व करने की हिम्मत की और उसे किसी सक्रिय नेहरू या गांधी के बिना भी सत्ता में रखा चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पड़ी हो. इसी पाप की वजह से, जिस पार्टी को उनका आभारी होना चाहिए था उसी ने चाहा कि कानून अपना काम करे और वह उन्हें सज़ा मिलने पर जश्न भी मनाती है और उनके शव को पार्टी मुख्यालय में लाने से भी मना कर देती है.

यह लेख मूल रूप से 23 दिसंबर, 2017 को प्रकाशित हुआ था.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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