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Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतबाबरी कांड में धोखा खाए राव ने आडवाणी को हवाला में फंसाकर बदला सधाया

बाबरी कांड में धोखा खाए राव ने आडवाणी को हवाला में फंसाकर बदला सधाया

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बाबरी मस्जिद विध्वंस की 25वीं बरखी पर कांग्रेस की सहमी-सी चुप्पी बहुत कुछ कहती है. दरअसल, यह पार्टी जब तक यह कबूल नहीं करती कि इस मामले में नरसिंहराव निर्दोष हैं, तब तक वह खुद ही ओढ़े गए अपराधबोध से मुक्त नहीं हो सकती.

बाबरी मस्जिद विध्वंस पर दी गई अपनी रिपोर्ट में जस्टिस लिबरहान ने वास्तव में चौकाने वाली केवल दो बातें रखी है. यह समझ पाना मुश्किल नहीं है कि इनमें से केवल एक बात पर ही आमतौर पर क्या ध्यान दिया जाता रहा है. आश्चर्य की बात यह है कि उन्होने अटल बिहारी वाजपेयी पर बार-बार आक्षेप किया है. लेकिन इसे मैं वाजपेयी पर अकारण दोषारोपण के रूप में देखता हूं. लेकिन इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण, कहीं ज्यादा बड़ा जो दूसरा असली आश्चर्य है उसकी पिछले 15 वर्षों से अनदेखी ही होती रही है. ऐसा क्यों है, इसे भी समझ पाना मुश्किल नहीं है.

वास्तव में, लिबरहान आयोग ने नरसिंहराव की जिस तरह पूरी तरह बरी कर दिया है उस पर भाजपा की प्रतिक्रिया भावशून्य रही, तो वामपंथी-सेकुलर बुद्धिजीवी खेमा सन्न रह गया और कांग्रेस उलझन में फंसी दिखी. उसकी उलझन का हाल यह है कि आज जबकि गुजरात चुनाव अभियान में जबरदस्त ध्रुवीकरण किया जा रहा है, बाबरी मस्जिद विध्वंस की 25वीं बरखी पर कांग्रेस ने ऐसी खामोशी ओढ़े रखी जैसे अयोध्या भारत के नक्शे में है ही नहीं. उसकी इस भयाक्रांत चुप्पी का फायदा उठाते हुए भाजपा ने बहस की शर्तें पूरी तरह बदल दी है. बहस अब इस पर नहीं है कि मस्जिद किसने तोड़ी, बल्कि इस पर केंद्रित हो गई है कि मंदिर कैसे और कब बनेगा.

जांच आयोगों की अध्यक्षता करने वाले हमारे रियाटर्ड जजों की आदतों के मुताबिक लिबरहान ने भी काम निबटाने में 17 साल लगाए अौर एक ऐसा दस्तावेज पेश किया जिसे आप शुगरफ्री, अहानिकर कह सकते हैं, जिसमें न तो कोई चिनगारी है और न कई ऊर्जा. वाजपेयी पर दोषारोपण एक आश्चर्य था मगर ऐसा करना सुरक्षित भी था. इसलिए आप समझ सकते हैं कि भाजपा ने इस रिपोर्ट की कोई परवाह क्यों नहीं की. पार्टी की अंदरूनी मंडली के लिए वाजपेयी तब तक अपरिहार्य नहीं रह गए थे. वामपंथी-सेकुलर बुद्धिजीवी खेमे की उदासीनता भी समझ में आती है क्योंकि वे हमेशा यह अफवाह फैलाते रहे कि नरसिंहराव उस षडयंत्र में शामिल थे, और यह कि अंदर से तो वे जनसंघी ही थे. यह खेमा कहा करता था कि राव की धोती खींच लो तो उनकी खाकी निकर दिख जाएगी. लेकिन कांग्रेस क्यों चुप रही और उसने खुशी जाहिर करना तो दूर, यह कहने से भी क्यों परहेज किया कि उसकी सरकार और उसके प्रधानमंत्री को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, कि उन्हें एक ऐसे अपराध के लिए कलंकित और दंडित किया गया, जो जस्टिस लिबरहान के मुताबिक उन्होंने किया ही नहीं था?

इसकी वजह यह है कि लिबरहान ने उस अफवाह को नष्ट कर दिया था जिसे खुद कांग्रेसियों ने अपनी ही पार्टी, खासकर राव के खिलाफ फैलाया था. ऐसा उन्होंने इसलिए नहीं किया था कि वे मानते थे कि राव एक कट्टरपंथी थे और बाबरी विध्वंस की साजिश में शरीक थे. उनमें से अधिकतर (जरा उन्हें याद कीजिए जिन्होंने तब सच्ची धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पार्टी से किनारा कर लिया था) को यह एक ऐसे बहाने के रूप में लगा था जिसके सहारे पार्टी में आंतरिक तख्तापलट, राव की जगह अर्जुन सिंह को गद्दी पर बिठाने की मुहिम को सोनिया गांधी (जो तब पार्टी के लिए आउटसाइडर, बाहरी व्यक्ति ही थीं) से आशीर्वाद दिलवाया जा सकता था.

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इसी हफ्ते ‘दप्रिंट’ के लिए कल्याणी शंकर को दिए इंटरव्यू में नटवर सिंह ने इस बात की पुष्टि भी की है कि सोनिया ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया था. राव इस और ऐसी कई बगावतों को झेल गए लेकिन जो नुकसान उन्हें हो चुका था उससे उबर न सके. बाबरी कलंक के कारण सीताराम केसरी ने उन्हें 1998 में लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए टिकट देने तक से मना कर दिया था. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित तमाम जो लोग राव को अच्छी तरह जानते हैं, वे धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर कभी शक नहीं कर सकते. यह तो सर्वविदित है कि वे एक आस्तिक थे और मंदिर में जाते थे, अनुष्ठान वगैरह में भाग लेते थ्¨. लेकिन इससे धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता कम नहीं होती. एक नास्तिक के लिए सेकुलर होना तो आसान है लेकिन एक आस्तिक के लिए तो धर्मनिरपेक्षता एक स्पष्ट वैचारिक प्रतिबद्धता होती है.

राव पुरानी किस्म की भारतीय राजनीति में दीक्षा-प्राप्त नेता थे. इसलिए वे भाजपा समेत सभी पक्षों के साथ संबंध और संवाद बनाए रखते थे. वास्तव में, वाजपेयी के साथ उनके संबंध खास तौर से गर्मजोशी भरे थे. मुझे याद है कि एक राजनीतिक आयोजन में उन्होंने किस तरह कहा था कि वाजपेयी तो राजनीति में उनके गुरु हैं. वाजपेयी ने इस पर जवाब दिया था कि राव तो गुरुओं के गुरु, ‘गुरुघंटाल’ हैं. बाबरी मस्जिद ढहाई गई तभी उन्हें एहसास हो गया था कि अब तो उनकी राजनीतिक मौत हो चुकी है. किसी की सहायता करने में वे खुदकशी की हद तक नहीं जाते थे, और न ही अपनी मारक विफलता का जश्न मनाते थे.

भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से उनकी करीबी उनके दुश्मनों को इतना मसाला देती थी कि वे 10, जनपथ में चुगली कर सकें या मीडिया में राव के जो मित्र थे उन तक खबरें पहुंचा सकें. चंद्रास्वामी के ऊपर उनकी बढ़ती निर्भरता ने ऐसे लोगों की मुहिमों को तेजी ही प्रदान की. फिर भी, यह कहना कि बाबरी विध्वंस पर उन्होंने गुपचुप जश्न मनाया, या कि वे उस दौरान गहरी नींद ले रहे थे, उस राजनेता के प्रति भारी नाइंसाफी होगी, जो अगर घाघ था, तो दिलचस्प भी था; ज्ञानी था, तो निराशावादी भी था; देशभक्त था, तो बिकाऊ भी था.

उनके कदाचार की कई कहानियां लंबे समय तक चर्चा में थीं और उन पर यकीन भी किया जाता था. आखिर उन्होंने भाजपा नेताअं के इस आश्वासन पर विश्वास कैसे कर लिया कि बाबरी मस्जिद को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा? उन्होने राज्य सरकार को दरकिनार करते हुए केंद्रीय बलों को गोली चलाने के आदेश क्यों नहीं दिए? उन्होंने कल्याण सिंह सरकार को बरखास्त करके उत्तर प्रदेश को अपने नियंत्रण में क्यों नहीं लिया? इसलिए, निष्कर्ष यही निकाला गया कि बाबरी मस्जिद गिराई जाने से उन्हें कहीं गहरी खुशी हुई थी.

सत्ता से वंचित होते ही प्रायः नेतागण काफी सौम्य हो जाते हैं, खासकर तब जब आप उनके अकेलेपन के दिनों में उनके साथ समय बिताने को राजी हों. मैंने राव के साथ इस तरह कुछ समय बिताए, खासकर तब जब वे भारी संकट के दौर से गुजर रहे थे, विशेषकर करगिल युद्ध के दौरान. मैं मोतीलाल नेहरू रोड स्थित उनके निवास पर अकसर जाया करता था और उनसे मैंने यह भी पूछा था कि नरसिंराव इस संकट का सामना कैसे करेंगे? वे छह दशकों का राजनीतिक अनुभव तो रखते ही थे, उनकी याददाश्त भी जोरदार थी. सो, अगर आप राजनीतिक इतिहास के जिज्ञासु छात्र हैं, तो ऐसी शख्सियत से कुछ सीख कर ही लौटेंगे.

तब, वे कई मुकदमे से उलझे हुए थे, जो भ्रष्टाचार से लेकर रिश्वतखोरी तक से संबंधित थे. उन्हें अकेले ही इन सबसे निबटना था. अंततः वे सबसे बरी हो गए. उन दिनों सूने घर में अकेलेपन की जिंदगी जी रहे राव का सहारा कुछ किताबें, अखबार, एक पुरानी ट्रेडमिल, कुछ चरमराते फर्नीचर और एक कंप्युटर ही थे. वे मुझे देखकर खुश ही होते थे. अकेली जिंदगी जी रहे एक दादा की तरह उन्हें गप्प करना, कहानियां सुनाना अच्छा लगता था. कभी-कभी वे अपनी तकदीर पर हंसा भी करते थे. अपने मुकदमों का जिक्र करते हुए उनका यह वाक्य मुझे आज भी याद है- ‘‘कोई कहता है मैंने मुर्गी चुराई, कोई कहता है मुर्गी के अंडे, पर सब कहते हैं कि हूं तो चोर ही.’’ और करीब 15 सेकंड तक वे खिलखिलाकर हंसते रहे थे.

1999 की गर्मियों में करगिल युद्ध के दौरान एक दोपहर मैं उनके यहां पहुच गया था. बातचीत के दौरान वे अयोध्या प्रकरण पर खुल कर बोलने लगे थे. मैंने उनसे पूछा था कि उन्होंने केंद्रीय बलों को गोली चलाने के आदेश क्यों नहीं दिए थे? उन्होंने सवाल किया, ‘‘मस्जिद पर हमला कर रही भीड़ चीख-चीखकर क्या कह रही थी? राम…राम….’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘…मेरे आदेश पर गोली चला कर सैकड़ों लोगों को मारने वाले जवान राम राम के सिवा क्या बोलते?’’ और वे मेरे चेहरे पर उभर आई उलझन को पढ़ने लगे थे. उन्होंने फिर पूछा, ‘‘अगर उनमें से कुछ जवान भीड़ के साथ हो जाते तब क्या होता? तब एक ऐसी आग लग जाती जिसमें पूरा भारत जलने लगता.’’

तो, उन्होंने कल्याण सिंह सरकार को बरखास्त क्यों नहीं किया? उनका कहना था कि केवल बरखास्त करने से नियंत्रण आपके हाथ में नहीं आ जाता. सलाहकारों को नियुक्त करने, उन्हें लखनऊ भेजने, राज्य की बागडोर अपने हाथ में लेने में एक-दो दिन लगते. इस बीच जो होना होता वह हो जाता और तब कोई कल्याण सिंह नहीं रह जाता जिस पर आप दोष मढ़ सकते थे. उन्होंने बताया कि गृह मंत्रालय ने कुछ आपातकालीन योजना बनाई थी. लेकिन राव ने आडवाणी के इस आश्वासन पर गंभीरता से यकीन कर लिया था कि कुछ अशुभ नहीं घटेगा. लेकिन बाद में घटनाक्रम अचानक कयामत बनकर टूटा.

आखिर उन्होंने भाजपा नेताअं पर भरोसा करने का भोलापन क्यों किया? उनका जवाब था, ‘‘यह आडवाणी की करतूत थी, और इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी.’’ जाहिर है, उनका इशारा इस ओर था कि उन्होंने बेकसूर आडवाणी को किस तरह हवाला मामले में फंसाया था. जब तक अदालत ने आडवाणी को डिस्चार्ज नहीं किया (याद रहे कि अदालत ने उन्हें बरी नहीं किया बल्कि यह कहा कि उनके खिलाफ मामला बन नहीं पाया) तब तक उन्हें अपने राजनीतिक जीवन के कई वर्ष गंवाने पड़ गए थे. राव के शब्दकोश में माफी शब्द नहीं था.

एक प्रधानमंत्री के नाते बाबरी मस्जिद की रक्षा में उनकी विफलता बहुत बड़ी थी. लेकिन अंदरूनी प्रतिद्वद्वियों ने यह अफवाह फैलाकर कांग्रेस को कमजोर कर दिया कि उनकी सरकार इस साजिश में शरीक थी. इससे उसे सबसे ज्यादा नुकसान यह हुआ कि उत्तर प्रदेश तथा बिहार में मुस्लिम वोट गंवाने पड़े. इसने मुलायम तथा लालू को उनके एम-वाइ वोट बैंक का एम मुहैया करा दिया. इसी वोट बैंक को फिर से हासिल करने में राहुल गांधी एक दशक से जुटे हैं और उन्हें खास सफलता नहीं मिली है. मुसलमान आखिर उन पर भरोसा कैसे करें, जब कि कांग्रेस ने खुद ही यह कथा तैयार की है कि मुसलमान मतदाता भाजपा को नहीं बल्कि उनकी ही पार्टी को बाबरी विध्वंस के लिए जिम्मेदार मानने लगे हैं?

जस्टिस लिबरहान की रिपोर्ट अयोध्या-बाबरी कांड पर अंतिम प्रामाणिक दस्तावेज है. उन्होंने कई नेताओं को दोषी बताया है. अगर आप उसे गंभीरता से लेते हैं, तो फिर इस पर यकीन क्यं नहीं करते कि उन्होंने राव और उनकी सरकार को बरी किया है? जब तक कांग्रेस यह नहीं करती तब तक वह भय के कारण जड़ बनी रहेगी और खुद ही अपराधबोध से त्रस्त रहेगी, जो कि स्वतंत्र भारत के सबसे विभाजनकारी दिन यानी बाबरी विध्वंस की 25वीं बरखी पर उसकी शर्मनाक चुप्पी से स्पष्ट है.

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