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Saturday, 28 December, 2024
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पुलवामा के बाद, महज ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करना एक रणनीतिक भूल होगी

भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई जल्दबाज़ी में नहीं की जानी चाहिए; और यह सख्त और प्रामाणिक हो ताकि पाकिस्तान उसे गंभीरता से लेने को बाध्य हो सके.

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अब जबकि लोकसभा चुनावों में तीन महीने से भी कम समय रह गया है, पुलवामा आतंकी हमले ने नरेंद्र मोदी सरकार को एक मुश्किल स्थिति में डाल दिया है. हो सकता है ये वक्त पहले से तय नहीं हो, पर आइएसआइ जम्मू कश्मीर में हर प्रमुख आतंकी हमले को योजनानुसार अंजाम देती है. पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद ने हमले की ज़िम्मेवारी लेते हुए दावा किया है कि उसने अपनी जम्मू कश्मीर इकाई, जिससे आत्मघाती हमलवार आदिल अहमद डार संबद्ध था, के ज़रिए इसे अंजाम दिया.

मुसीबतों और नाकामियों को सहने के लिए प्रशिक्षित सुरक्षा बलों से अधिक, राजनीति-प्रेरित राष्ट्रवाद से जुड़ी जनभावनाओं के कारण सरकार पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करने के लिए बाध्य हो सकती है.

लेकिन जवाबी कदम जल्दबाज़ी में नहीं उठाए जाने चाहिए, और ऐसी कोई कार्रवाई सख्त और प्रामाणिक होनी चाहिए ताकि पाकिस्तान उसे गंभीरता से लेने को विवश हो सके, साथ ही यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत हो ताकि पाकिस्तान को हमारी बात मानने के लिए बाध्य किया जा सके. बदलते घटनाक्रम के अनुरूप हमें बढ़ते तनाव के लिए भी तैयार रहना चाहिए. 2016 का सर्जिकल हमला सफल रहा था पर मात्र एक बार का ऑपरेशन होने के कारण उसके अपेक्षित रणनीतिक परिणाम नहीं मिले. वैसी ही एक और अकेली प्रतिशोधात्मक कार्रवाई रणनीतिक नासमझी होगी.

सुरक्षा चुनौतियां

आतंकी हमले के जवाब में सैन्य विकल्पों पर विचार करते हुए भारत को अपनी आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों पर भी पुनर्विचार करना चाहिए. आतंकवादी पिछले दो वर्षों से भागे फिर रहे थे और उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा था. अपने काडर और समर्थकों का हौसला बढ़ाने के लिए उन्हें एक बड़ी कामयाबी की जरूरत थी. एक स्थानीय फिदायीन हमलावर द्वारा सीआरपीएफ के काफिले पर किए गए हमले की अभूतपूर्व कामयाबी के कारण संभावना है कि वे जम्मू क्षेत्र में सुरक्षा बलों और आमजनों पर परोक्ष हमले पर फोकस करने के लिए प्रेरित होंगे.


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स्थानीय आतंकी संगठन हिज़बुल मुजाहिदीन के अलावा पाकिस्तानी जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा हमलों के लिए सीमा पार से आतंकियों को भेजने के बजाय अधिक संख्या में स्थानीय लोगों को भर्ती कर रहे हैं. ये स्थानीय आतंकी उतने प्रशिक्षित नहीं होते हैं, और सुरक्षा बल छोटे हथियारों से सीधे हमले में इन्हें आसानी से खत्म कर देते हैं.

तार्किकता यही कहती है कि भविष्य में आतंकवादियों के परोक्ष हमले का विकल्प चुनने की ज़्यादा संभावना है. इन हमलों में सम्मिलित होंगे फिदायीन हमलावरों द्वारा विस्फोटक बेल्टों या विस्फोटकों से भरे वाहनों का उपयोग; टाइमर्स या रिमोट नियंत्रित बमों और स्वनिर्मित विस्फोटक उपकरणों (आईईडी) का इस्तेमाल; भारी वाहनों से भीड़ को कुचलना; कंधे से छोड़ी जाने वाली मिसाइलों से सैन्य और नागरिक विमानों एवं हेलिकॉप्टरों को निशाना बनाना; भीड़ भरे इलाकों में ईंधन/गैस टैंकरों में विस्फोट करना; ड्रोन बमों से हवाई हमले; तथा रासायनिक/जैविक हमले.

जम्मू कश्मीर में बीते वर्षों में सूफी संस्कृति का ह्रास हुआ है और एक अतिवादी किस्म के इस्लाम ने अपनी जगह बना ली है, फिदायीन हमले जिसका अभिन्न अंग हैं. साथ ही, अब आईईडी विस्फोटक उपकरण बनाने के तरीके इंटरनेट के ज़रिए आसानी से उपलब्ध हैं.

हमले के लिए तैयार आतंकी

यकीनी तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि पुलवामा हमला पूरी तरह एक खुफिया और सुरक्षा नाकामी थी. जगह और समय का चुनाव आतंकवादियों के हाथ में होता है. इसलिए चौथी-पीढ़ी के इस युद्ध में आतंकवादी हमेशा चौंकाने की स्थिति में होते हैं. सुरक्षा बलों को जहां हमेशा कामयाब होना पड़ता है, वहीं आतंकवादियों के लिए मात्र एक सफलता काफी होती है.

जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ सतत अभियान चलाया जा रहा है और गत दो वर्षों के दौरान सुरक्षा बलों को इसमें उल्लेखनीय सफलता मिली है. आतंकवादियों पर एक स्तब्धकारी हमले की साजिश का भारी दबाव था, और पुलवामा हमला उसी का नतीजा है.


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पर ऐसे हमलों से बचने के लिए सुरक्षा बलों को निश्चय ही अधिक सतर्कता बरतने की ज़रूरत है. मार्गों को ज़्यादा प्रभावी ढंग से सुरक्षित बनाना होगा, और जहां ज़रूरी हो सुरक्षा बलों के काफिलों को गुजारने के लिए असैनिक वाहनों के आवागमन को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए. इस ऐहतियाती कदम को नहीं उठाना और काफिले के साथ असैनिक वाहनों को आने-जाने देना एक गंभीर सुरक्षा चूक थी और पुलवामा में आतंकवादी हमले की कामयाबी की मुख्य वजह भी. हमारे इलेक्ट्रानिक जैमरों को भी उन्नत बनाए जाने की ज़रूरत है. काफिले के मार्ग को सतत निगरानी में रखने के लिए छोटे ड्रोनों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. और आखिरकार, लोगों से जुटाई गई सूचनाएं आतंकवादी हमलों के खिलाफ सर्वश्रेष्ठ निवारक उपाय साबित होती हैं.

लोगों का भरोसा जीतना

चरमपंथी और सरकार दोनों ही एक राजनीतिक रणनीति पर काम करते हैं, जो उनकी सैन्य रणनीति को आगे बढ़ाती है. राजनीतिक रूप से, दोनों ही समर्थन हासिल करने के लिए लोगों के दिलोदिमाग को जीतने के लिए प्रयासरत रहते हैं. एक शक्तिशाली सरकार, सामरिक रूप से हमेशा ही आतंकवादियों को परास्त करती है, फिर भी यदि उसने दिलोदिमाग की लड़ाई नहीं जीती तो रणनीति लड़ाई में उसे पराजय हाथ लगती है.

भाजपा ने पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार बनाकर अच्छी शुरुआत की थी, और जम्मू कश्मीर के लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें थीं. संशयवादियों तक को आशाएं थीं. पर, भाजपा की विचारधारा ने उसे सामंजस्य बिठाने वाला गठबंधन सहयोगी नहीं बनने दिया. उसने ना सिर्फ गठबंधन को तोड़ा, बल्कि पीडीपी को बदनाम भी किया. भावनाओं को शांत करने के कोई प्रयास नहीं किए गए और ना ही लोगों के राजनीतिक जुड़ाव के लिए कोई सार्थक पहल की गई. राजनीतिक समाधान में लोगों का कोई भरोसा नहीं रहा और इस कारण उग्रवाद का फिर से उभार हुआ.

राजनीतिक रणनीति की कीमत पर सख्त सैनिक रणनीति के ऊपर पूर्ण निर्भरता उग्रवाद की सतत मौजूदगी सुनिश्चित करती है. पुलवामा हमले से यही बात ज़ाहिर होती है.

(ले.जन. एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (से.नि.) ने भारतीय सेना को 40 साल तक अपनी सेवाएं दी हैं. वे उत्तरी तथा सेंट्रल कमान के प्रमुख रहे. सेवानिवृत्त होने के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य भी रहे.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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