कोई दो साल पहले बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के परिसर में बढ़ती छेड़छाड़ व बदसलूकी से क्षुब्ध छात्राओं की सहनशक्ति जवाब दे गयी और वे आन्दोलित होकर सड़क पर उतर आईं तो कुलपति डाॅ. गिरीशचन्द्र त्रिपाठी ने धमकाते हुए कहा था कि वे किसी मुगालते में न रहें, बीएचयू को किसी भी कीमत पर जेएनयू नहीं बनने दिया जायेगा. तब उनकी इस धमकी ने छात्राओं के जले पर नमक छिड़क दिया था और वे ‘और’ भड़क उठी थीं. वे अपने आन्दोलन को तार्किक परिणति तक पहुंचाने हेतु कमर कस ली थी और अपनी मांगें स्वीकार कराकर ही मानी थीं. अभी भी अपनी समस्याओं को लेकर संघर्ष की राह पर जाने से परहेज नहीं ही बरततीं.
इसके बावजूद विश्वविद्यालय में अभी भी गाहे-ब-गाहे इस तथ्य को ‘प्रमाणित’ करने वाली घटनाएं होती ही रहती हैं कि वाकई, बीएचयू अभी भी जेएनयू नहीं ही ‘बन’ पाया है- देश के बड़े केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में से एक और पिछले पांच से ज्यादा वर्षों से प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में अवस्थित होने के बावजूद.
इसकी ताजा मिसाल यह है कि जेएनयू के छात्र जहां विश्वविद्यालय द्वारा गरीब छात्रों को परेशान करने वाली हॉस्टल वगैरह की फीसों में वृद्धि के रौलबैक के लिए सड़कों पर उतरकर सरकार का दम फुला देते हैं, बीएचयू के अनेक छात्र अपनी धार्मिक-साम्प्रदायिक ग्रंथियों तक से आजाद नहीं हो पाये हैं.
पिछले दिनों वहां संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में एक मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति हुई, तो संस्कृत छात्रों की भावनाएं ‘भड़क’ उठीं और उन्होंने इसके खिलाफ इस तरह मोर्चा खोल दिया, जैसे किसी महान उद्देश्य के लिए काम कर रहे हों. विवि के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय के अनुगामी होने का दावा करने वाले इन छात्रों ने विवि प्रशासन की इस सफाई को भी ‘स्वीकार’ करना गवारा नहीं किया कि उक्त शिक्षक की नियुक्ति में किसी प्रक्रिया का उल्लंघन नहीं किया गया. नियुक्त मुस्लिम प्राध्यापक की यह दलील भी नहीं मानी कि उनका संस्कृत का ज्ञान अधकचरा नहीं है. उनके पिता भी संस्कृत के ज्ञाता और गौसेवक थे, जबकि दादा भजन गाया करते थे. उलटे प्रतिप्रश्न पूछते रहे कि कोई मुस्लिम शिक्षक कैसे हमें संस्कृत पढ़ा या हमारा धर्म सिखा सकता है?
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गौरतलब है कि इन छात्रों का नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी का छात्र संगठन कर रहा है, जिससे साफ है कि प्रधानमंत्री भले ही ‘सबके साथ, सबके विकास और सबके विश्वास’ की बात करते हों, उसे सबका साथ गवारा नहीं है.
लेकिन संस्कृत जैसी समर्थ भाषा को, जिसकी कई मायनों में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा तक प्रशंसक है, अपने धर्म से जोड़कर देखने वाले इन संस्कृत छात्रों की बुद्धि व विवेक पर तरस खाने से पहले कुछ और चीजें जान लेनी चाहिए.
जिन महादेवी वर्मा को आज हम हिंदी की विख्यात कवयित्री, विचारक और लेखिका के रूप में जानते हैं, बीएचयू के इसी संस्कृत विभाग में उन्हें एमए करने की इजाजत नहीं दी गई थी. कारण यह कि वे गैरब्राह्मण और महिला थीं. लेकिन इससे यह समझना गलत होगा कि बीएचयू तब से अब तक वहीं खड़ा है. बाद में कई बड़े विद्वान व बुद्धिजीवी प्रोफेसर उससे जुड़े और उन्होंने उसे विरासत में मिली संकीर्णताओं से उबारने की कोशिश भी की. ऐसा नहीं होता तो प्रोफेसर शांतिस्वरूप भटनागर अपने कुलगीत में इसे ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी’ क्यों कहते?
आज की तारीख में यह सर्वविद्या की राजधानी जेएनयू जैसी ज्ञान, विवेक, स्वतंत्रता और संस्कृति की केन्द्र नहीं बन पा रही और इस न बन पाने में ही अपना बड़प्पन मानती है, तो इसका बड़ा कारण यह है कि पिछले दशकों में न सिर्फ इस विश्वविद्यालय बल्कि हमारे समूचे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक जीवन में ऐसे तत्व केन्द्रीय भूमिका में आ गये हैं, जो समय के पहिये को उसकी उलटी दिशा में घुमाने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार रहते हैं. भले ही इससे उन चीजों का भी अपूरणीय नुकसान हो जाये, जिनका अलम लिये फिरने का वे दावा करते हैं.
इस मामले में तो वे यह तक समझने को राजी नहीं हैं कि शुद्धता की ऐसी जिद कहें या छुआछूत से संस्कृत पहले ही अपने ऊपर धर्म या जाति विशेष का ठप्पा लगवाकर व्यापक क्षति उठा चुकी है. लोक भाषा का आसन तो उसने इस तरह खोया है कि उसे प्राप्त करने की सोच भी नहीं सकती. देववाणी भर रह जाने की उसकी वर्तमान नियति इसी का नतीजा है. इसके बावजूद उसके शुभचिंतक ‘देवों की, प्राचीनतम और सबसे वैज्ञानिक भाषा’ कहकर उसका गुणगान भले ही करते हैं, उसकी पहुंच के विस्तार के लिए कुछ नहीं करते. इसीलिए कालिदास, भवभूति, शूद्रक, माघ व भतृहरि आदि महान संस्कृत साहित्यकारों की रचनाओं से आज की पीढ़ी का कोई परिचय नहीं है.
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार संस्कृत के ‘उन्नयन’ के लिए उसमें प्रेस-विज्ञप्तियां जारी करने जैसा टोटका करती है तो इतना भी नहीं समझती कि उन विज्ञप्तियों का उपयोग करने वाले संस्कृत के अखबारों का कैसा अकाल है. दूसरी ओर संस्कृत को क्लासिकल भाषा की तरह पढ़ाया भी नहीं जाता.
ऐसे में क्या ताज्जुब कि बीएचयू के संस्कृत छात्र उसे हिंदू धर्म के साथ जोड़कर गौरवान्वित होते हैं. यह जानकर भी कि भाषाएं आमतौर पर किसी धर्म की बपौती नहीं होतीं, ये छात्र जिस तरह संस्कृत को मुस्लिम द्वेष के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे साफ है कि उनके जैसे दोस्तों के रहते संस्कृत को किसी दुश्मन की जरूरत नहीं है. फिर जानें क्यों, कोई जर्मन, रूसी, अमेरिकी या अंग्रेज संस्कृत पढ़ता या संस्कृत साहित्यकारों की रचनाओं का अपनी भाषा में अनुवाद करता है, तो खुशी जताई जाती है? अगर कोई धर्म मुस्लिम शिक्षक के संस्कृत पढ़ाने भर से ‘भ्रष्ट’ होता हो तो उसे इस खुशी से भी ‘भ्रष्ट’ ही होना चाहिए.
साफ कहें तो इस धर्म को ‘भ्रष्ट’ होने के अंदेशे इधर कुछ ज्यादा ही सताने लगे हैं. तब से, जब से कुछ लोग उस पर अपना दावा पुख्ता करने के चक्कर में व्यापक समाज को उससे दूर रखने में लग गये हैं. ये लोग इस देश की उदार परंपराओं, प्रगतिशील सोच और विवेकशीलता को अपने स्वार्थों की चेरी बनाना चाहते हैं और जैसा कि पहले कह आये हैं, समय के पहिये को उलटा घुमाकर, संविधान के बजाय, मनुस्मृति को समाज व्यवस्था की संचालक बनाने के फेर में हैं. इतिहास, धर्म, संस्कृति और विरासत के साथ मनमाने खिलवाड़ को वे उस दौर तक वापस ले जाना चाहते हैं, जिसमें स्त्रियों व तथाकथित निचली जातियों के लिए वेद का पाठ तक वर्जित था.
उनके मंसूबे यह देखकर खुश हैं कि हमारे सामाजिक संस्थानों को धर्म के महान उद्देश्यों की पगबाधा बनती जा रही उनकी राजनीति को चुपचाप बर्दाश्त करते रहने में कोई परेशानी नहीं दिख रही. ये संस्थान हाथ पर हाथ धरकर बैठे तमाशा देख रहे हैं और समझते हैं कि बुद्ध, कबीर या गांधी के नाम की माला जपने भर से हालात बदल जायेंगे. काश, वे समझते कि धर्म के कल-कल बहते झरने को रोककर उसे ठहरा हुआ, कीचड़ भरा तालाब बनाने के दुष्परिणाम इस देश ने सदियों भुगते हैं और आगे नहीं भुगतना चाहता.
वे समझते तो बीएचयू के संस्कृत के मुस्लिमद्वेषी छात्र भी समझ ही जाते. अभी वे नहीं समझ रहे तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि विवि के मिर्जापुर स्थित एक परिसर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के झंडे को लेकर एतराज जताने वाली डिप्टी चीफ प्राक्टर किरण दामले के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उन्हें इस्तीफा देने के लिए बाध्य कर दिया जाता है, मगर भरपूर धार्मिक घृणा फैलाने के बावजूद इन छात्रों को अभयदान मिला हुआ है.
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उन्हें कोई यह भी बताने वाला नहीं कि इस बाबत विवि के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय के विचार जैसे भी रहे हों, उन्होंने कहीं यह नहीं कहा या प्रावधान किया कि विवि के छात्र अपने समय के साथ न चलें. छात्रों की जड़ताओं का ही परिष्कार करना होता तो वे और जो भी करते, विश्वविद्यालय तो नहीं ही खोलते. न ही उसके लिए धन जुटाने में हैदराबाद के निजाम की चप्पलें उठाते. वैसे भी विवि अपने छात्रों की ज्ञान की आंखें खोलने के लिए होते हैं, बन्द करने के लिए नहीं. आमतौर पर वे उन्हें मुक्त करते हैं, बन्दी नहीं बनाते.
क्या ही अच्छा हो कि धार्मिक ग्रंथियों के बन्दी ये छात्र अपनी मुक्ति के लिए संस्कृत के साथ थोड़ा बहुत राहुल सांकृत्यायन और आचार्य विनोबा भावे को भी पढ़ें. इनमें राहुल सांकृत्यायन उन्हें यह सिखा सकते हैं कि किसी के विचारों को अपने पार उतरने के लिए बेड़े की तरह अपनाना चाहिए, न कि बोझ की तरह सिर पर उठाये फिरने के लिए, जबकि विनोबा कहना है यह कि ग्रंथों व गुरुओं की बातों को अपने विवेक की कसौटी पर कसकर माना जाये तो कहीं कोई झगड़ा ही न रह जाये.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)
इक्कीसवीं सदी के विचार
देश में इन दिनों एक चर्चा बहुत जोरों पर है. बी. एच. यू. यानि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत संस्कृत के छात्रों ने विश्व- विद्यालय में पदस्थ संस्कृत के नए प्रोफेसर प्रो. फिरोज खान द्वारा संस्कृत पढ़ाएं जाने का विरोध कर रहे हैं. प्रो. फिरोज खान संस्कृत में पीएचडी की है. और उनकी नियुक्ति विधिवत उनकी योग्यता के आधार पर हुआ है. बी. एच. यू. के छात्र तो प्रशासन द्वारा दिए जाने वाले तर्क को भी मानने से इन्कार कर दिया. उनका स्पष्ट कहना है कि फिरोज खान एक मुस्लिम है और उन्हें किसी मुस्लिम द्वारा संस्कृत पढ़ाएं जाने पर एतराज है, और उनसे वे संस्कृत नहीं पढ़ेंगे. प्रशासन द्वारा उनकी माँगे न मानने पर उन्होंने इसके विरोध में धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया, जिसकी गूँज अब पूरे देश में हो रही है. इस आंदोलन से एक बात तो स्पष्ट लगती है कि इस प्रकार के प्रतिरोध करने वालों का लक्ष्य संस्कृत पढ़ना नहीं बल्कि पढ़ाने वाले के धर्म से है. वो बात अलग है कि इस इस तरह की प्रथा गुरुकुल में होती रही. लेकिन इस तरह का विरोध कोई साधारण स्कूल के बच्चे नहीं बल्कि एक विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र कर रहे हैं. हालाकि अभी तक धर्म के आधार पर विरोध किसी भी सूरत में उचित नहीं है. शिक्षा यानि ज्ञान प्राप्त करना. इसका किसी भी धर्म से नाता हो यह आवश्यक नहीं. ज्ञान या शिक्षा जिससे भी मिले ले लेना चाहिए क्योंकि ज्ञान का खजाना आज तक कोई भी पूरा नहीं भर पाया. इसीलिए तो कहा जाता है कि ज्ञान या शिक्षा जिससे भी मिले उसे ग्रहण करके आत्म सात कर लेना चाहिए. वैसे भी हम जब अपने स्कूल में पढ़ा करते थे तो यह कभी ध्यान नहीं देते थे कि हमें शिक्षा देने वाले हमारे शिक्षक किस धर्म या जाति के हैं. उस समय हमारा एक उद्देश्य होता था शिक्षा प्राप्त करना न कि शिक्षक की जाति या धर्म देखना. क्योंकि ऐसे में धर्म जाति का प्रश्न नहीं आता था.
जब प्रो. फिरोज खान का विरोध शुरू हुआ तो उन्होंने कहा- “अभी तक धार्मिक भेदभाव नहीं हुआ”. उन्होनें आगे यह भी कहा कि – “संस्कृत से मेरा खानदानी नाता है,मैंने बचपन से ही अपने घर में भगवान कृष्ण की फोटो देखी है. दूसरी प्रमुख बात यह कि उनके दादा गफूर खान राजस्थान में हिंदू देवी – देवताओं के भजन गाया करते थे, यहां तक कि भजन मंडली में भी गया करते थे जिसके लिए उनको याद किया जाता था. इसी कारण वे देवी देवताओं के भजन गाकर प्रसिद्ध हुए थे. उनके पिता भी संस्कृत में पढ़ाई करने के साथ गौ शाला का प्रचार प्रसार करते थे. इसमें उन्हें किसी धर्म की बंदिश में नहीं बाँधा. किन्तु प्रो. फिरोज खान को अब लगने लगा है कि उनकी शिक्षा और योग्यता को धर्म की बंदिश में बांधने का प्रयास किया जा रहा है. एक धर्म निरपेक्ष देश में इस प्रकार की बंदिश से तो यही बताती है कि आज भी हम आदिकाल में ही जी रहे हैं न कि इक्कीसवीं सदी में.
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