मानो भारत का सुरक्षा परिदृश्य इतना आशावादी था कि सेना ने ‘स्वदेशी सैन्य प्रणालियों…रणनीतिक विचार प्रक्रियाओं, जिन्होंने सहस्राब्दियों से यहां शासन किया है’, उसका पता लगाने, बल्कि उजागर करने के लिए, पहले की विधा के बारे में जानने की शुरुआत की.
‘प्रोजेक्ट उद्भव’ शिमला स्थित आर्मी ट्रेनिंग कमांड (एआरटीआरएसी) और दिल्ली के प्रतिष्ठित यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया का एक संयुक्त प्रयास है. यूएसआई आधिकारिक तौर पर भारत की पहली रक्षा सेवाओं और सुरक्षा-संबंधित थिंक-टैंक है. परियोजना ने अपना पहला सेमिनार 29 सितंबर को आयोजित किया, जिसकी अध्यक्षता रक्षा मंत्रालय के सलाहकार लेफ्टिनेंट जनरल विनोद खंडारे (सेवानिवृत्त) ने की और मुख्य भाषण लेफ्टिनेंट जनरल राजू बेल, महानिदेशक, रणनीतिक योजना, सेना मुख्यालय ने दिया.
प्रोजेक्ट उद्भव’ के मूल में भारतीय क्लासिक्स का अध्ययन है, जिसे स्वदेशी ज्ञान के स्रोत के रूप में देखा जाता है, जिसमें तीन प्राचीन ग्रंथों- कौटिल्य के अर्थशास्त्र, कामन्दक के नीतिसार और तिरुवल्लुवर के कुरल पर विशेष जोर दिया गया है. ऐसा माना जाता है कि इन ग्रंथों में, एक के बाद एक विचार के क्रम का लगातार पालन करते हुए, भारत के सुरक्षा मुद्दों और समस्याओं से निपटने का ज्ञान समाहित है, कम से कम जहां तक सेना का संबंध है. परंतु इस सोच से भी मानते हुए कि भारतीय सेना हमेशा से बौद्धिक रूप से निष्क्रिय रही है. उद्भव इस प्रयास को महत्त्व देता है. हालांकि, इसकी राजनीतिक जड़ ‘अंग्रेज़ी राज की सोच और भाषा को समाप्त’ करना है.
यह एक नयी सोच है जिसकी इच्छा बड़े पैमाने पर राजनीतिक प्राधिकारियों द्वारा व्यक्त किया गया है लेकिन हाल ही में वरिष्ठ सैन्य नेतृत्व ने इसे उत्साह के साथ अपनाया है. और तीनों सेनाओं में सबसे बड़े होने के नाते, यह आर्मी के प्रयास के रूप में अधिक दिखाई देता है, हालांकि सबसे अधिक परंपरा से जुड़ी नौसेना को भी अपने नेटिविटी को प्रदर्शित करने में कमी नहीं पाई गई है. राजनीतिक उद्देश्य को आसानी से भारत के पूर्ण बदलाव में एक और कदम के रूप में समझा जा सकता है, जो कि दशकों से चली आ रही अपनी खास छवि को दिखाता करता है. हालांकि, इस कोशिश में सेनाओं की भागीदारी को समझना कठिन है क्योंकि भारत की सशस्त्र सेनाएं पूरी तरह से अंग्रेज़ो का देन नहीं हैं.
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एक बेकार की एक्सरसाइज़
ARTRAC मुख्यालय से कुछ ही दूरी पर सेना का हेरिटेज म्यूज़ियम है, जो घोषित करता है कि भारत की ‘समृद्ध परंपरा 5,000 वर्ष से अधिक पुरानी है’, और प्रदर्शित वस्तुओं को सेना और राष्ट्र, सेना लोकाचार, प्राचीन सैन्य सोच, प्रेरणादायक सेना, नेता, वर्दी, झंडे, सैन्य संगीत और बैंड के रूप में वर्गीकृत किया गया है. यह देश के सबसे व्यस्त सैन्य संग्रहालयों में से एक है. जैसा कि स्पष्ट है, भारत की सैन्य विरासत और सोच पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है. इसमें लोकाचार और दर्शन का सही मिश्रण है, इसलिए यह हैरान करने वाली बात है कि एक सक्रिय सैनिक संस्था को ‘प्रोजेक्ट उद्भव’ जैसे कार्य में शामिल करने की क्या आवश्यकता है.
पाठक की स्कॉटिश या अंग्रेजी पसंद के आधार पर आर्मी हेरिटेज म्यूजियम के खूबसूरत क्षेत्र का नाम भी सुंदर है- एनाडेल अंग्रेजों का और अननडेल स्कॉटिश के लिए. निस्संदेह, जब ‘अंग्रेज़ी राज की सोच और भाषा को समाप्त’ को मिटाने की कोशिश की जाती है तो यह नाम कैसे स्वीकार है. ARTRAC मुख्यालय शिमला मॉल पर स्थित है, जिसका निर्माण 1880 के दशक में किया गया था, और इसका रखरखाव अच्छे तरीके से किया गया है. एआरटीआरएसी का अल्फा, प्राथमिक, मेस को मूल रूप से विल हॉल कहा जाता था और बाद में इसका नाम बदलकर नॉकड्रिन कर दिया गया, जबकि चौड़ा मैदान में ARTRAC जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ का निवास, कमांड हाउस, है जिसका नाम रिट्रीट है. चिसेलहर्स्ट वह इमारत है जहां शिमला के सैनिक स्टेशन कमांडर रहते हैं.
लिस्ट आगे बढ़ती जाती है. लेकिन जो बात नहीं भूलनी चाहिए वह है आर्मी हेरिटेज म्यूजियम में रखे गए डिस्प्ले, जो कई सदियों पहले के हैं. एक घटना जो महज़ 200 साल तक चली वह भारत की लंबी यात्रा मैं एक छोटा सा पल है. कैसा भी हो, सेना को वर्तमान में लिए गए कार्यों पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए, क्योंकि उनकी प्रतिभा के बावजूद, प्राचीन ग्रंथ पहले से मौजूद संक्षिप्त संस्करण और प्रशिक्षण मैनुअल का विकल्प नहीं हैं. ARTRAC फिलॉसफी में पूरी तरह से इस बात को शामिल कर लिया गया था: किसी भी सैनिक या अधिकारी को युद्ध में कभी भी अपनी जिंदगी से या अंग से हाथ इसलिए न धोना पड़े क्योंकि उसे पर्याप्त ट्रेनिंग न मिली हो. यही भारतीय सेना में ट्रेनिंग का सार तत्व है.
एआरटीआरएसी की भूमिका, ड्यूटी का चार्टर या किसी विशेष आर्मी ऑर्डर में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि ‘रणनीतिक विचार प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाए जिन्होंने सहस्राब्दियों तक शासन किया है.’ शासन भारत में सैन्य अध्ययन के दायरे में नहीं है, और होने की संभावना भी नहीं है. इसलिए, ऐसी प्रक्रियाओं का अध्ययन करना अनावश्यक है जब अधिकारियों और दिग्गजों के बौद्धिक कौशल का बेहतर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों के लिए उपयोग किया जा सकता है. 2023 में, स्वदेशी सैन्य प्रौद्योगिकियां सशस्त्र बलों के लिए मुश्किल से ही काम आएंगी, तो ‘स्वदेशी सैन्य प्रणालियों की गहन गहराई’ ऑपरेशनल ज़रूरतों में कहां फिट बैठती है?
प्राचीन ग्रंथ भारत के इतिहास और समाजशास्त्रीय विकास के प्रमाण हैं. इसमें लिखी बातें अच्छे राजनीतिक नेतृत्व के लिए मार्गदर्शक के रूप में हैं, हालांकि सैन्य रूप से महत्वपूर्ण बातें भी सामने आती हैं. कुरल में तीन सतत प्रासंगिक श्लोक हैं: ‘लेकिन किला कितना भी मजबूत क्यों न हो, अगर रक्षकों ने कार्रवाई में जोश नहीं दिखाया तो इससे कोई फायदा नहीं होगा’ (750); ‘भले ही सैनिकों की कोई कमी न हो, जब नेतृत्व करने के लिए कोई प्रमुख नहीं होते तो कोई सेना नहीं होती’ (770); ‘यदि आपको दो शत्रुओं से अकेले और बिना सहयोगियों से लड़ना है, तो उनमें से एक को अपने पक्ष में करने का प्रयास करें’ (875).
अर्थशास्त्र और नीतिसार में उत्कृष्ट सैन्य अनुसंधान कर्नल प्रदीप कुमार गौतम (सेवानिवृत्त) द्वारा पहले ही किया जा चुका है, जो वर्तमान में सेंटर फॉर मिलिट्री हिस्ट्री एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज़, यूएसआई से संबद्ध हैं. सीधे शब्दों में कहें तो – ‘दोनों ग्रंथ धन के अधिग्रहण और उसके वितरण से संबंधित हैं, जिसमें अंतिम उपाय के रूप में युद्ध पर जोर दिया गया है.’ यह एआरटीआरएसी के प्राथमिक कार्य से बहुत दूर है, लेकिन यह तब किया जा सकता है जब सैन्य इतिहास का सटीक वर्णन किया जाए – कुछ ऐसा सम्मानित सलाहकार खंडारे ने गलती की जब उन्होंने कहा कि शिवाजी ने अंग्रेजों सहित पांच मोर्चों पर लड़ाई लड़ी. ब्रिटिश सैन्य खतरा उभरने से बहुत पहले, 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गई.
(मानवेंद्र सिंह कांग्रेस नेता, रक्षा एवं सुरक्षा अलर्ट के प्रधान संपादक और सैनिक कल्याण सलाहकार समिति, राजस्थान के अध्यक्ष हैं. उनका एक्स हैंडल @ManvendraJasol. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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