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Saturday, 27 April, 2024
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कनाडा ने निज्जर की जगह रॉ अधिकारी को बाहर कर हद पार की, ये अलिखित जासूसी नियमों का उल्लंघन है

निज्जर की हत्या कहीं न कहीं किसी के लिए उकसाने वाली बात हो सकती है, लेकिन पवन कुमार राय को बाहर करने में कनाडा की भूमिका एक घृणित कदम है.

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इस साल 18 जुलाई को हुई खालिस्तान समर्थक कार्यकर्ता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के लिए कनाडा द्वारा भारतीय एजेंसियों पर आरोप लगाना दो लोकतंत्रों के बीच एक असाधारण घटना है. कथित तौर पर भारत ने सीमा पहले लांघी, उसके बाद कनाडा ने भी शिष्टाचार का उल्लंघन किया. यह कोई रहस्य नहीं है कि लोकतांत्रिक देश एक-दूसरे की जासूसी करते हैं; असल में वो अपने निकटतम सहयोगियों पर भी नज़र रखते हैं, लेकिन यह एक आम बात है कि कुछ रेखाएं पार नहीं होती हैं. यह इस स्पष्टता पर आधारित है कि जासूसी की खोज में एक मित्रवत लोकतांत्रिक देश आधुनिक कानून के मूल सिद्धांत – जीवन के अधिकार – का उल्लंघन नहीं करेगा.

लोकतांत्रिक देश स्पष्ट रूप से मित्रवत धरती पर अपने दुश्मनों की जान नहीं लेता. कनाडाई संसद के पटल पर बोलते हुए प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो द्वारा भारत पर हत्या का आरोप लगाए गए इस गंभीरता को साफ तौर पर दर्शाता है. नई दिल्ली के लिए इस मामले को हल्के में लेना मूर्खतापूर्ण होगा, क्योंकि निश्चित रूप से दोनों पक्ष अब सीमा को लांघ चुके हैं. जैसा कि अपेक्षित था, अब दोनों देशों के बीच राजनयिकों के निष्कासन की घोषणा कर दी गई है और रिश्ते स्पष्ट रूप से ठंडे पड़ गए हैं.

ये लोकतांत्रिक देशों के बीच स्पष्ट रूप से अभूतपूर्व घटनाएं हैं और उन्हें संबंधों को और अधिक पटरी से उतरने की अनुमति नहीं देनी चाहिए.

नई दिल्ली के लिए कूटनीतिक चुनौतियां

भारत पर एक साथी लोकतांत्रिक देश और राष्ट्रमंडल सदस्य ने हत्या का आरोप लगाया है — एक ऐसा देश जो नाटो और फाइव आइज़ इंटेलिजेंस क्लब का संस्थापक सदस्य है. जबकि पूर्व गठबंधन (नाटो) के सदस्यों को किसी भी खतरे की सहायता के लिए आने की ज़रूरत पड़ती है, याद रखें कि कनाडा ने भारत के खिलाफ संप्रभुता उल्लंघन के आरोप लगाए हैं. जबकि फाइव आइज़ इंटेलिजेंस समूह दुनिया भर में सबसे संघटित समूह है. इसलिए बहस में एक निश्चित संतुलन लाने के लिए तुरंत एक विराम, एक टाइम-आउट, की ज़रूरत है, क्योंकि अगर पूरे स्पेक्ट्रम में अनियंत्रित रूप से चलने की अनुमति दी जाती है, तो परिणाम कूटनीतिक रूप से भयानक हो सकते हैं और बाद में एक त्रासदी भी पैदा हो सकती है.

अगर आरोप सही हैं, तो पिछले दशकों के संसाधनों के साथ 21वीं सदी के जेम्स बॉन्ड की भूमिका निभाने की कोशिशों से भारतीय अयोग्यता एक बार फिर पकड़ में आ गई है. एक प्रेरित नौसेना अधिकारी पाकिस्तानी जेल में पीड़ित है और मेहुल चोकसी के संभावित अपहरणकर्ता बड़े पैमाने पर बाहर हैं — सभी एक ही दिशा में उंगलियां उठा रहे हैं.

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भारत उस सुपर जासूस की भूमिका निभाने में लापरवाह और अक्षम दिख रहा है जो कई लोगों के सपनों में गूंजता है. जब संसाधन कमज़ोर हैं, तो ऐसी स्क्रिप्ट का पीछा करने के बजाय अपने भीतर देखना चाहिए और घर की स्थितियों में सुधार करना कहीं बेहतर है.


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पंजाब को बड़ी समस्याओं से निपटना है

1980 के दशक के उन भूतों के उत्थान की कल्पना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मुद्दे 2023 में पंजाब के सामने हैं. खालिस्तान समर्थक कार्यकर्ता लंदन या टोरंटो में हज़ारों की संख्या में इकट्ठा हो सकते हैं, लेकिन वो पंजाब में उन भयानक दशकों की आग को फिर से नहीं भड़का सकते, क्योंकि यहां का खालसा आगे बढ़ चुका है. वो उस प्रेत को वापस लौटने और पंजाब को और अधिक बर्बाद करने की इज़ाज़त नहीं देंगे. किसी भी मामले में नशीली दवाओं की लत हज़ारों दोषी युवाओं को प्रभावित कर रही है. संगठित अपराध और अंतरराज्यीय गैंगस्टर आज के पंजाब में खालिस्तान समर्थक तत्वों की संख्या से कहीं अधिक हैं. उनसे निपटना राष्ट्रीय सुरक्षा का विषय है.

पंजाब में खालसा का अपमान होता है जब कोई सोचे कि कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत में खालिस्तान समर्थक नेता की आवाज़ से कोई पिंड (गांव) को प्रभावित करेगा, इस लिए उस अलगाववादी को खत्म करना चाहिए. ऐसी सोच से 1980 के दशक मैं जो पक्षपात फैला हुआ था वो भारत में दोबारा उजागर होता है, अंतर इतना ही कि अब उत्सुक श्रोता स्मार्टफोन से लैस हैं. खालसा को जो दिखता है वो एक पक्ष की साजिश, जिस मे बड़े पैमाने पर मॉब लिंचिंग और गौरक्षकों की प्रशंसा, और साथ ही एक अलगाववादी विद्रोह को उजागर करने का प्रयास जो मौजूद नहीं है. डिजिटल देशभक्ति, जो मणिपुर में मारे गए सैनिक के प्रति सहानुभूति की तुलना में कनाडा को अपमानित करने में अधिक ऊर्जा खर्च कर रही है.

पंजाब में ज्वलंत मुद्दों और कानून के अनुप्रयोग पर इस तरह के दोहरे मानदंड 1980 के दशक के खलिस्तानी सपनों से भी बड़ी राष्ट्रीय सुरक्षा चिंता का विषय है. हालांकि, अब सूचना प्रवाह की तीव्रता और सीमा को देखते हुए, निज्जर की हत्या कहीं न कहीं किसी के लिए उकसावे का कारण बन सकती है और उस स्कोर पर रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) प्रमुख पवन कुमार राय का नाम सार्वजनिक करने में कनाडा की भूमिका एक घृणित कदम है.

राय को भारत में सुरक्षित रूप से रखा जाना सबसे अच्छा है, विदेश सेवा में उनका करियर अब एक बंद अध्याय है. भारत ने इसका बदला कनाडाई सुरक्षा खुफिया सेवा प्रमुख ओलिवियर सिल्वेस्ट्रे को सार्वजनिक करके दिया है. अब अध्याय बंद नहीं हुआ.


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‘बाहर’ होने के परिणाम

कनाडा ने राय को सार्वजनिक करने में हद पार की, जो लोकतांत्रिक देश नहीं करते है. ऐसे मामलों के प्रति अधिक जागरूकता और संवेदनशीलता है जहां कानून का शासन कायम है, लेकिन स्पष्ट रूप से ओटावा बेपरवाह है. नई दिल्ली ने भी इसका अनुसरण किया, परंतु पवन कुमार राय निश्चित रूप से कनाडाई जासूस की तुलना में अधिक खतरे मैं हैं. क्योंकि जासूस के रूप में सार्वजनिक किए जाने की एक दुखद मिसाल है और इसकी शुरुआत नवंबर 1979 की सुबह इस्लामाबाद में हुई जब अफवाहों से भड़की छात्रों की भीड़ ने वहां अमरीकी दूतावास पर हमला कर दिया था. भीड़ अमेरिकी सैनिकों द्वारा मक्का पर कब्ज़ा करने की ईरानी रिपोर्टों से नाराज़ थी.

फर्ज़ी खबरें तब डिजिटल परिवहन के बिना काम करती थीं और भीड़ ने दूतावास को आग के हवाले कर दिया था. मदद के लिए पाकिस्तानी अधिकारियों से बार-बार गुहार लगाने पर भी तुरंत प्रतिक्रिया नहीं मिली और इस प्रक्रिया में दो अमेरिकी और दो स्थानीय कर्मचारी मारे गए, लेकिन जलाने से पहले भीड़ द्वारा बड़ी संख्या से कई महत्वपूर्ण कागज़ात लूट लिए गए, जिनमें एक उल्लेखनीय केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) फील्ड एजेंट, एक युद्ध-अनुभवी अमेरिकी विशेष बल अधिकारी की पहचान भी शामिल थी. आग अब दक्षिण एशिया की तरह ही पश्चिम एशिया को भी अपनी चपेट में ले रही थी और कुछ साल बाद, 18 अप्रैल 1983 को एक आत्मघाती हमलावर ने बेरूत में अमेरिकी दूतावास को नष्ट कर दिया, जिसमें 17 अमेरिकियों सहित 63 लोग मारे गए थे.

सीआईए की पूरी टीम खत्म हो गई. इसलिए, लेफ्टिनेंट कर्नल विलियम फ्रांसिस बकले को सीआईए स्टेशन दोबारा खड़ा करना, नए सूत्रों की भर्ती करने और कई खतरनाक चीज़ों के लिए भेजा गया था. जिसे उन्होंने आत्मविश्वास से किया होगा क्योंकि जब हिज़्बुल्ला ने 23 अक्टूबर 1983 को अमेरिकी मरीन कॉर्प्स बैरक को उड़ा दिया था, तो उन्होंने सीआईए स्टेशन प्रमुख को मारने का दावा किया था. सिवाय इसके कि उन्हें अभी तक नाम नहीं पता था. इस्लामाबाद से जब्त किया गया खुफिया पहचान पत्र बेरूत के कैफे में घूम रहा था बोली के बाद बोली भाव बढ़ाते हुए. अंत मे हिज़्बुल्ला के हाथ आया और मार्च 1984 के दोरान बकले को बेरूत की गलियों से उठा लिया गया और एक साल से अधिक भयानक यातना के बाद उनकी मृत्यु हो गई.

(मानवेन्द्र सिंह कांग्रेस के नेता, डिफेंस एंड सिक्योरिटी अलर्ट एडिटर-इन-चीफ और सैनिक कल्याण सलाहकार समिति, राजस्थान के चेयरमैन हैं. उनका ट्विटर हैंडल @ManvendraJasol है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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