प्रियंका गांधी ने जवाहरलाल नेहरू की अंतिम इच्छा पढ़ी होती तो यूं गंगा यात्रा ना करतीं.
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने वसीयतनामे में जो लिखा. उसका सार यह था कि मेरी अस्थियों को गंगा में प्रवाहित किया जाए और बची हुई राख को देश भर की नदियों और खेतों में बिखरा दिया जाए. कोई यह नहीं कहेगा कि उस समय नेहरू ने यह कहकर राजनीति की. उन्होने गंगा को भारतीय संस्कृति का ध्वजवाहक कहा था. वो उसके पथ की ताकत जानते थे. यदि प्रियंका गांधी ने नेहरू की इच्छा का मर्म समझा होता तो गंगा को यूं छोटा करके नहीं देखतीं और ठहरी हुई गंगा पर राजनीतिक यात्रा ना करतीं.
प्रियंका गांधी की गंगा यात्रा उनकी सीमित नजर को दिखाती है. साफतौर पर इसका उद्देश्य इलाहाबाद और वाराणसी के बीच जनसंपर्क बढ़ाना है. हो सकता है वाराणसी पहुंच कर वे भी घोषणा कर दें कि मुझे गंगा ने बुलाया है. लेकिन इस बुलावें में गंगा कहीं नहीं है. गंगा प्रधानमंत्री की घोषणा में भी नहीं थी. प्रियंका की गंगा इतनी छोटी क्यों है समझ से परे है. उनकी समझ की तुलना नेहरू से करना फिजूल है लेकिन यदि कोई दूरदर्शी सलाहकार होता तो उन्हे कानपुर से वाराणसी की यात्रा करने की सलाह देता.
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इस बहाने वे गंगा सफाई के कई दावों की सच्चाईयों से रूबरू हो जाती. जिस क्षेत्र में वे यात्रा कर रही है वो प्रधानमंत्री का क्षेत्र है और गंगा के जुड़ी सभी योजनाएं अमूमन गंगा के इसी तट पर लागू की जाती है. यही कारण है कि यहां कि गंगा कुछ बेहतर नजर आती है.
कानपुर ही क्यों बेहतर होता वे अपनी यात्रा हरिद्वार से शुरु करतीं और जान पाती कि कितने नाले धड़ल्ले से गंगा में गिर रहे हैं. उन्हे ये भी पता चल जाता कि बीच में बने बैराजों, नहरों और पांटुन पुल के कारण नाव चल ही नहीं सकती. नाव तो छोड़िए एक मछली भी हरिद्वार से वाराणसी का सफर नहीं कर सकती, उसे भी कम से कम पांच जगहों पर जमीन पर आना होगा.
शायद प्रियंका को यह पता होगा कि कानपूर गंगा पथ का एकमात्र ऐसा शहर है जहां नाव पतवार से नहीं बांस से चलती है. गाद की वजह से नाव कीचड़ में फंसी रहती है इसीलिए बांस गढ़ाकर उसे आगे बढ़ाना पड़ता है. सोचिए यदि उनकी नाव कानपूर से फंसती – फंसाती आगे बढ़ती तो उन्हें कितना मीडिया कवरेज मिलता . साथ ही वे कुंभ का श्रेय लूट रही सरकार को कठघरे में खड़ा कर पाती.
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वे उस 126 साल पुराने सीसामऊ नाले के सामने तस्वीर खिंचा सकती थी जिसे पूरी तरह बंद करने का दावा किया गया. लेकिन उन्होंने यह मौका खो दिया. वास्तव में उनके चिंतन में गंगा है ही नहीं. ना ही गंगा को लेकर को नीति उनके पास है. गंगा को लेकर वे गंभीर होती तो यात्रा से पहले भीम आर्मी प्रमुख के बजाए आत्मबोधानंद से मिलती. उन्हे पता चलता कि गंगा वास्तव में अपने इन यात्रियों से चाहती क्या है. लेकिन उन्हे सिर्फ अपने क्षेत्र की राजनीति करनी है और गंगा को माध्यम बनाना है, और प्रियंका वहीं कर रही है.
गंगा यात्रा करके राजनीतिक मंसूबे पूरे करना कोई नई बात नहीं है. उमा भारती ने तो गंगा सफाई को मुद्दा बनाने के लिए गंगासागर से गंगोत्री तक यात्रा की थी और राजनीतिक उद्देश्य पूरा होने के बाद गंगा को हमेशा की तरह उसके हाल पर ही छोड़ दिया.
अब तक किसी भी सरकार ने गंगा को लेकर गंभीर प्रयास नहीं किए, पहले और अब की सरकार में फर्क सिर्फ नारों और वादों का है. पहले बिना काम किए शांत रहते थे अब बिना गंगा की चिंता किए हल्ला मचाते है. इस हो हल्ले में ये सवाल दब जाते है कि कुंभ के बाद तमाम कारखानों ने अपना कचरा दोबारा गंगा में डालना क्यों शुरु कर दिया? या वादा करने के बाद भी गंगा एक्ट पास क्यों नहीं हो रहा ?
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अफसोस प्रियंका के जेहन में यह सवाल नहीं है. वे सिर्फ अपनी स्वीकार्यता चाहती है, यूपी में कुछ सीटें जीतकर. उनके लिए गंगा का काम इतना ही है. इसलिए उन्होंने अपनी गंगा को छोटा करके देखा. गंगा उनके लिए भी चुनाव जीतने का साधन है जैसे प्रधानमंत्री के लिए है. गंगा का पानी इतना गंदा हो चुका है कि उसमें छांकने पर कोई अक्स नजर नहीं आता. नजर आती है तो एक धुंधली सी परछाई. कोई अपनी ही परछाई को 56 इंच के सीने वाला शेर समझता है तो कोई नेहरू – इंदिरा जैसा दूरदर्शी.
(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं.)