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Sunday, 17 November, 2024
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कांग्रेस को बचाए रखने का समय आ गया है, यह बात मोदी तो जानते हैं लेकिन गांधी परिवार बेखबर नजर आ रहा है

भारत में परिवारवाद से किसी कोई समस्या नहीं है, कांग्रेस की नाकामियां दरअसल उसके खराब राजनीतिक प्रबंधन की देन हैं .

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस हफ्ते संसद में कांग्रेस पर बेहद तल्ख जबानी हमले किए. उनके भाषण में एक तो जवाहरलाल नेहरू पर तीखे हमले की परंपरा जारी रही. दूसरे, यह दावा किया गया कि कांग्रेस के नेता गरीबों से कट गए हैं. लेकिन असली डंक चुनावी गणित को लेकर था. उन्होंने कहा कि कांग्रेस तो अगले सौ साल तक सत्ता में नहीं आने वाली. इसके बाद मोदी ने उन राज्यों का नाम गिनाया जिन्होंने इस पार्टी को खारिज कर दिया है.

उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस 1972 के बाद सत्ता में नहीं आई. उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात उसके हाथ से 1985 में ही निकल गए. इसके बाद मोदी ने हाल के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की पराजयों का जिक्र किया. इन वर्षों में कांग्रेस लोकसभा की 50 सीटों से ज्यादा शायद ही कभी जीत पाई है. इसकी तुलना में 1984 के लोकसभा चुनाव को देखिए, जब अकेले उत्तर प्रदेश में उसने 83 सीटें जीती थीं. मोदी का कहना था कि कांग्रेस अपनी मौत की ओर तेजी से बढ़ रही है. अपने इस कटाक्ष भरे भाषण से मोदी इतने खुश हुए कि इस तरह का भाषण अगले दिन राज्यसभा में भी दोहरा दिया.

प्रधानमंत्री के इस भाषण से दो सवाल उभरते हैं. पहला सवाल तो सीधे मोदी के विद्वेषपूर्ण जबानी हमले से जुड़ा है. अगर कांग्रेस मृतप्राय ही हो चुकी है तो फिर उस पर हमला करने में समय क्यों जाया किया जाए? भाजपा के पूरे प्रचार तंत्र— आइटी सेल, तमाम मंत्रीगण, तमाम प्रवक्ता, दो-दो रुपये में ट्रोल करने वाले, नतमस्तक टीवी चैनल आदि— को प्रधानमंत्री के इस भाषण को प्रचारित करने के लिए ठीक उस तरह क्यों झोंक दिया गया था जिस तरह उसे कुछ दिनों पहले संसद में राहुल गांधी के भाषण को खारिज करने में झोंक दिया गया था? अगर राहुल गांधी और कांग्रेस इतने ही बेमानी हो चुकी है तो उन पर हमला करने में अपनी ऊर्जा क्यों खर्च की जाए?

इसके अलावा, एक और पहेली भी है. प्रधानमंत्री के इस भाषण के अधिकांश भाग को राजनीतिक लफ्फाजी कहके तो खारिज किया जा सकता है लेकिन बात जब चुनावी नतीजों की आती है तब उनकी बातें सही लगती हैं, कि कम-से-कम चुनावी दृष्टि से तो कांग्रेस खत्म हो ही रही है. केवल मोदी ही यह बात नहीं कर रहे हैं. प्रशांत किशोर ने भी कहा है कि पिछले कई वर्षों में कांग्रेस ने जो चुनाव लड़े हैं उनमें से 90 फीसदी में उसने हार का मुंह देखा है.

इसलिए, कांग्रेस को इसकी चिंता क्यों नहीं हो रही है?


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परिवार वास्तव में मुद्दा नहीं है

दुनियाभर में तमाम राजनीतिक दल जब किसी संकट में घिरते हैं तब वे समस्या का सभी पहलुओं से विश्लेषण करके समाधान ढूंढते की कोशिश करते हैं. क्या नेता बदलने की जरूरत है? अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की जरूरत है? क्या वे अपना संदेश पहुंचाने में चूक रहे हैं? आदि-आदि.

कांग्रेस के मामले में रहस्यमय बात यह है कि उसके अंदर ऐसा कोई मंथन नहीं चल रहा है. 2014 में चुनाव हारने के बाद राहुल ने अपने इस्तीफे की पेशकश की थी मगर बाद में उसे वापस ले लिया था. 2019 में पार्टी ने उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा और दोबारा हार गई तो राहुल ने इस्तीफा दे दिया और कहा कि उनके परिवार का कोई सदस्य अब पार्टी का नेतृत्व नहीं करेगा.

उस नाटकीय घोषणा के बाद भी वे गैर-संवैधानिक रूप से उन सारे अधिकारों का उपयोग कर रहे हैं जिनका उपयोग पहले कर रहे थे. कांग्रेस की नीतियों में या अपना संदेश प्रचारित करने के उसके तरीके में कोई बदलाव नहीं आया है. कुछ पदाधिकारियों को जरूर बदला गया है. राहुल के भरोसेमंद ‘युवा’ सलाहकार या तो पार्टी छोड़कर चले गए हैं या इस कोशिश में लगे हैं. इस बीच उनकी बहन प्रियंका ने पारिवारिक नाटक में अपनी भूमिका संभाल ली है.

जहां तक बदलाव की बात है, तो यही हुआ है

कांग्रेस की रहस्यमय आत्मतुष्टी के साथ, यह उसकी घातक गलती है. राहुल गांधी साबित कर चुके हैं कि वे बड़ी संख्या में मतदाताओं तक सफलतापूर्वक पहुंच पाने में असफल हैं. अमेठी को तो भूल ही जाइए, जिस सीट पर पार्टी दशकों से काबिज थी उस पर वे हार गए. यहां तक कि केरल में भी, जहां हर चुनाव में प्राय सत्ता बदलती रहती है वहां भी कांग्रेस हार गई.

राहुल गांधी की असफलताओं की आसान और चलताऊ व्याख्या यह कहकर की जा सकती है कि भारत अब एक महत्वाकांक्षी देश है, जिसे परिवारवाद बर्दाश्त नहीं है. इसलिए राहुल इतना तक ही कर सकते हैं, लेकिन यह सच नहीं है. अगर भारत को परिवारवाद नापसंद है तो ओड़ीशा में ऐसा क्यों नहीं है, जहां नवीन पटनायक राज्य के सबसे लोकप्रिय नेता बने हुए हैं? उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी अपने परिवार की विरासत के हवाले देते फिर रहे हैं और उनकी चुनावी सभाओं में भारी भीड़ क्यों जुट रही है? और अखिलेश यादव भाजपा को कड़ी टक्कर क्यों दे रहे हैं? तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन सत्ता में कैसे आए? भाजपा परिवारवाद से उभरे कांग्रेस नेताओं के स्वागत में कालीन क्यों बिछा रही है? अगर भारत ने परिवारवाद को नकार दिया है तब तो भाजपा को इससे उभरे नेताओं को गले नहीं लगाना चाहिए था.

कांटो भरा ताज

कांग्रेस की बार-बार की असफलता की ज्यादा विश्वसनीय व्याख्या यह हो सकती है कि वह राजनीतिक कुप्रबंधन से ग्रस्त है. उदाहरण के लिए पंजाब को देखिए. वह तो कांग्रेस के लिए मुकाबला आसान होना चाहिए था, लेकिन अगले चुनाव के नतीजे उसके लिए स्पष्ट नहीं हैं. चुनाव विशेषज्ञ वहां त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी कर रहे हैं. यह सीधे तौर पर गांधी परिवार के वंशजों की अयोग्यता का नतीजा है. कांग्रेस के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि नेतृत्व ने राज्य में एक असंतुष्ट को खड़ा किया, उसे एक मुख्यमंत्री का तख़्ता पलटने के लिए प्रोत्साहित किया और गुटबंदी के झगड़े होने दिए. केंद्रीय नेतृत्व ने नवजोत सिंह सिद्धू को शुरू में ही अपनी औकात बताने की जगह आंतरिक कलह को लंबे समय तक चलने दिया.

इसके बाद अभी कुछ दिन पहले राहुल किसी गेम शो के मेजबान की तरह वहां पहुंचे और उन्होंने शानदार घोषणा कर दी कि ‘सस्पेंस’ खत्म होता है, चरणजीत सिंह चन्नी ने मुक़ाबला जीत लिया है और वे मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. आपको यह सोचने के लिए माफ किया जा सकता है कि राहुल ने शायद अपना ही ‘टैलेंट शो, पंजाबी आइडॉल’ आयोजित किया.

दूसरे राज्यों की कहानियां भी ऐसी ही हैं. उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की तैयारियां कर रहे हरीश रावत को उठाकर सिर्फ कैप्टन अमरिंदर सिंह को अस्थिर करने के लिए पंजाब ले जाना अजीबोगरीब फैसला ही था. अब रावत को भी वही दवा पीनी पड़ रही है. वे अपने राज्य के सबसे लोकप्रिय कांग्रेस नेता हैं मगर राहुल उन्हें मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार घोषित करने से हिचक रहे हैं. गोवा में आम आदमी पार्टी से सीटों पर आपसी समझदारी से तालमेल किया जा सकता था. मगर कांग्रेस ने मना कर दिया.

लेकिन असली मुद्दा यह है कि ऐसा लगता है, कांग्रेस को इस सबकी कोई फिक्र नहीं है. नेतृत्व चाटुकारों से घिरा नज़र आता है, जो गांधी परिवार को यह समझाते रहे हैं कि वे कितने साहसी हैं, कि अकेले वे ही मोदी को टक्कर दे सकते हैं, कि कांग्रेस किस तरह सभी विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने जा रही है, वगैरह-वगैरह. ऐसी भावनाओं को ट्विटर पर कांग्रेस की तारीफ के पुल बांधने वालों से बढ़ावा मिलता है, जो यह तर्क देते हैं कि जो सेकुलर उदारवादी राहुल गांधी को देवपुत्र नहीं मानता वह जरूर मोदी समर्थक ही है.

यह शिकायत कोई नयी नहीं है कि राहुल पहुंच से दूर रहते हैं. ऐसा ही कुछ सोनिया गांधी के बारे में भी कहा जाता था. लेकिन सोनिया के साथ अहमद पटेल जैसे नेता और सक्षम सहयोगी थे, जो पार्टी के मिजाज के बारे में उन्हें अवगत कराते रहते थे और जिन तक कांग्रेस वालों की पहुंच थी. कांग्रेस के लोग कहते हैं कि आज ऐसा कोई नहीं है जिससे वे बात कर सकें और जिसके जरिए वे अपनी बात ऊपर तक पहुंचा सकें या जो उन्हें यह बता सके कि नेतृत्व क्या सोच रहा है.

मोदी के हमलों की वजह

ये सब परेशान करने वाली बातें हैं क्योंकि कांग्रेस बेशक कमजोर हो लेकिन भाजपा का एकमात्र राष्ट्रीय विकल्प वही है. मोदी को यह पता है. यह इस पहली पहेली का खुलासा है कि वे कांग्रेस को बेमानी बताते हुए भी उस पर हमले क्यों करते रहते हैं.

अनुमानों में फर्क हो सकता है लेकिन जाने-माने चुनाव आंकड़ा विशेषज्ञ यशवंत देशमुख का कहना है कि अगले लोकसभा चुनाव में 220 से 250 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर हो सकती है. अगर कांग्रेस मजबूत हुई और उसने इसमें से आधी (मसलन 120) सीटें भी जीत ली, तो भाजपा का कुल बहुमत खत्म हो जाएगा और उसे अपनी अगली सरकार बनाने के लिए सहयोगी दलों का सहारा लेना पड़ेगा. नरेंद्र मोदी की अजेयता के दावे की हवा निकल जाएगी और विपक्ष एक ठोस ताकत बन जाएगा.

राजनीति विज्ञानी और चुनाव आंकड़ा विशेषज्ञ संजय कुमार कहते हैं कि मोदी को यह मालूम है. इसलिए भाजपा के दूसरे नेता जबकि क्षेत्रीय मुकाबलों पर ध्यान देंगे, मोदी असली खतरे पर निशाना साधते रहेंगे. वे हमें यह दिलाते रहना चाहेंगे कि कांग्रेस हमेशा हार का मुंह देखने वालों का एक कमजोर जमावड़ा है, जिसे कोई गंभीरता से नहीं लेता और न उस पर भरोसा करता है कि वह देश चला सकेगी. मोदी का मानना है कि अगर वे कांग्रेस पर चोट करते रहेंगे तो उनकी अपनी सरकार की चाहे जो भी नाकामियां हों, लोकसभा चुनाव में मतदान करते समय मतदाता को यह भरोसा नहीं होगा कि उनके सिवा दूसरा कोई विकल्प है.

इसलिए, कांग्रेस पर मोदी के अनावश्यक दिखते हमलों के पीछे भी एक मकसद है. लेकिन क्या सरकार से कांग्रेस की लड़ाई के पीछे कोई बड़ा मकसद या कोई बड़ी रणनीति है? जैसा कि देशमुख ने कहा, कांग्रेस जब तक चुनाव जीतने वाली पार्टी के रूप प्रभावी तौर पर नहीं उभरती तब तक विपक्ष लोकसभा चुनाव में मोदी को हराना तो दूर, उन्हें नुकसान भी नहीं पहुंचा सकता. अधिक से अधिक विपक्षी दल कांग्रेस के साथ काम करने की उम्मीद छोड़ रहे हैं क्योंकि उन्हें उसका नेतृत्व आश्चर्यजनक रूप से उदासीन और अलगथलग सिमटा नज़र आ रहा है. और तो और, खुद कांग्रेस वाले ही उसे छोड़कर जा रहे हैं.

संजय कुमार का कहना है कि जब तक यह दिशाहीनता बनी रहेगी, कांग्रेस को 2024 में एक और चुनावी शिकस्त ही देखनी पड़ सकती है. कांग्रेस अपने वर्तमान स्वरूप में तो जिंदा नहीं रह सकती. वह और टूट कर बिखर जा सकती है.
इसलिए, कांग्रेस को बचाने का यही समय है, बशर्ते वह खुद यह न मान बैठी हो कि उसे बचाने की कोई जरूरत नहीं है.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @virsanghvi .विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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