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Saturday, 7 December, 2024
होममत-विमतभारत, रूस से लेकर ईरान और चीन तक जंगी घोड़ों के विश्व व्यापार का हिस्सा था

भारत, रूस से लेकर ईरान और चीन तक जंगी घोड़ों के विश्व व्यापार का हिस्सा था

तेरहवीं सदी के शुरुआती दौर में, मंगोल लोगों ने एक ऐसा साम्राज्य तैयार किया था, जो मानव इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया.

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हम जो कल्पना कर सकते हैं उसके विपरीत 13वीं शताब्दी वैश्विक हथियार सौदों, निवारकों, प्रसार और शानदार सामरिक पैंतरेबाज़ियों का समय था, काफी कुछ आज की तरह. उस समय के एक सबसे प्रमुख हथियार थे मध्य और पश्चिम एशिया के जंगी घोड़े. सावधानी से तैयार, प्रशिक्षित और हज़ारों किलोमीटर में फैले नेटवर्क्स के ज़रिए, निर्यात किए जाने वाले इन घोड़ों का जीवन, बहुत छोटा और बेरहम होता था. उन डाइनामिक्स का अध्ययन करके जिनका ये घोड़े हिस्सा थे, हम एक जटिल और उन्नतशील मध्यकालीन दुनिया की एक झलक देख सकते हैं और अपनी दुनिया को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं.

जंगी घोड़ों का विश्व व्यापार

तेरहवीं सदी के शुरुआती दौर में, मंगोल लोगों ने एक ऐसा साम्राज्य तैयार किया था, जो मानव इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया. उनका आधिपत्य रूस से लेकर ईरान और चीन तक यूरेशिया के एक विशाल हिस्से में फैला हुआ था- और उसने व्यापार तथा विनिमय के तंत्रों को एक नया आकार दिया, जिसमें इन क्षेत्रों के बीच परस्पर मेल-मिलाप को बढ़ावा दिया गया. इस मंगोल संसार के दो आधार- ईरान और चीन विशेष रूप से विदेशी व्यापार के ज़रिए आपस में जुड़ गए. इन देशों को आने-जाने वाले जहाज़ भारत से होकर गुज़रते थे और सीज़न में यहां रुक कर, इसके पश्चिमी और दक्षिणी तटों पर व्यापार करते थे.

हालांकि, हम आदतन ये सोचते हैं कि उस समय का भारत वैश्विक विकास से कुछ कटा हुआ और अलग सा था, लेकिन सच्चाई ये है कि आज की तरह ही, इस महाद्वीप में 13वीं सदी में भी इन परिवर्तनों की प्रतिक्रिया देखी गई, बल्कि उसने इन्हें संचालित भी किया. प्रायद्वीप की सैन्य राजनीति ने तुरंत ही, मंगोल-शासित हुकूमतों के साथ बढ़ते व्यापार के फायदों को समझ लिया, ख़ासकर इसलिए कि उनके मध्य एशिया के घोड़ों के पालकों से संबंध थे. विशेषकर कुदिराई चेटी और हेदाबुका जातियों के व्यापारियों ने, घोड़ों के व्यवसाय से ख़ूब दौलत कमाई. इस बात के प्रमाण हैं कि वो यमन में होने वाली वार्षिक नीलामियों में, सक्रिय रूप से हिस्सा लेते थे और सोना और सिल्क देकर, सैकड़ों की संख्या में बेहतरीन नस्ल के जंगी घोड़े ख़रीदते थे.

1270 के दशक में अपनी यात्राओं में, वेनिस के व्यापारी मार्को पोलो ने लिखा कि आज के महाराष्ट्र का सेउना यादव वंश जंगी घोड़ों के लिए इतना हताश था कि उसने जहाज़ों में जाते व्यापारियों के घोड़ों पर क़ब्ज़ा करने के लिए, समुद्री लुटेरों के साथ मिलकर साज़िश कर थी. दूसरी ओर,आज के तेलंगाना के काकातिया वंश ने पूरे हिंद महासागर क्षेत्र के घोड़ा व्यापारियों को लुभाने की कोशिश की. 1244 के एक शिलालेख में राजा गणपति देव ने ऐलान किया कि पिछले राजाओं ने जहाज़ों के अवशेषों से जो पूरा माल (ख़ासकर घोड़े) ज़ब्त कर लिया था, उसे वो उदारता के साथ व्यापारियों को वापस कर देगा और सिर्फ सीमा शुल्क की मांग करेगा. ऐसा लगता है कि इसका वही असर हुआ जो वांछित था. प्रोफेसर रणबीर चक्रवर्ती ने लिखा है कि काकातिया में ईरान, भूटान, युन्नान, और तिब्बती पठार जैसे दूर-दराज़ इलाक़ों से घोड़े लाए जाते थे.

घोड़ों के आयात के मामले में आज के तमिलनाडु का पांड्या वंश और भी अधिक महत्वाकांक्षी था- इतिहासकार एलिज़बेथ लैम्बॉर्न लिखती हैं कि 1290 के दशक में एक महत्वपूर्ण मंगोल परिवार, तमिल और ईरानी दोनों बंदरगाहों पर उनके सलाहकारों और मुख्य ख़रीदारों का काम करता था और पांड्या की घुड़सवार सेना के लिए हज़ारों की संख्या में घोड़े भेजता था तथा हॉर्मूज़ से लेकर काइलपट्टिनम तक के घोड़ा-बाज़ारों में उनकी क़ीमतें तय करता था. एक अकेले घोड़े के लिए लाल सोने के 220 दीनार तक अदा किए जाते थे और पूरी क़ीमत का भुगतान किया जाता था, चाहे डिलीवरी मिलने पर घोड़ा ज़िंदा या मुर्दा किसी भी हाल में पहुंचे. इससे संकेत मिलता है कि पांड्या वंश दूसरे प्रमुख वंशों के खिलाफ सैन्य अभियानों में, घोड़ों पर अपना एकाधिकार जमाने की कोशिश कर रहा था.


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हथियारों पर एकाधिकार और शानदार रणनीति

लेकिन अंत में, ये कोई आर्थिक ताक़त नहीं बल्कि प्रभावी चालें और शानदार रणनीति थी, जिसकी बदौलत एक भारतीय ताक़त ने आयातित घोड़ों पर एकाधिकार जमा लिया. 1290 के दशक में जब दिल्ली सल्तनत का मंगोलों की चुनौती से सामना हुआ, तो उसने प्रायदीप के दूसरे राज्यों से लड़ाई करके, कम ख़र्च पर भारी संख्या में घोड़े हासिल करने की कोशिश की. सैन्य इतिहासकार साइमन डिगबी और जॉं डेलोचे का मानना है कि तकनीक के मामले में पांड्या, काकातिया और दूसरी शक्तियां सल्तनत के बिल्कुल बराबर थीं, लेकिन सल्तनत उनसे बस इस मामले में अलग थी, कि वो घुड़सवार तीरंदाज़ों का इस्तेमाल करती थी.

इस प्रकार, 14वीं सदी के शुरू में बहुत से अभियानों के ज़रिए, दिल्ली के तत्कालीन जनरल मलिक काफूर ने, छल और स्थानीय खुफिया के ज़रिए इस सामरिक बढ़त को और पुख़्ता कर लिया. उसने ऐसे समय हमला किया जब ये राज्य इसकी बिल्कुल अपेक्षा नहीं कर रहे थे. मैदानों में उलझने की बजाय उसने सीधे इनकी राजधानियों की घेराबंदी कर ली. उसने यादवों, काकातियों, और पांडयों से नज़राने के रूप में हज़ारों घोड़ों की मांग की, और कुछ धनी मंदिरों में लूट भी मचाई. इसकी वजह से इन राज्यों के लिए अपनी घुड़सवार सेनाओं का, जो उनकी अंदरूनी और बाहरी लड़ाईयों के लिए बेहद ज़रूरी थीं, आर्थिक रूप से रख-रखाव करना असंभव हो गया, और इसके नतीजे में उनका पतन हो गया. इस तरह भारी संख्या में जंगी घोड़ों से मज़बूत हुई दिल्ली, मंगोलों को हराकर दक्षिण में अपना आधिपत्य जमाने में कामयाब हो गई, हालांकि वो लंबे समय तक इस सामरिक एकाधिकार को बनाए नहीं रख सकी, और जल्द ही विजयनगर और बहमनी सल्तनत जैसे नए राज्यों ने उसे बाहर खदेड़ दिया.

मध्यकालीन भारतीयों की अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर अत्याधिक निर्भरता, और सैन्य संसाधन जुटाने पर किया गया भारी ख़र्च, साफतौर पर त्रुटिपूर्ण था लेकिन उससे शायद एक सीख हासिल की जा सकती है, कि दिल्ली सल्तनत ने किस तरह रणनीतिक एकाधिकार स्थापित करने की कोशिश की. इस सब से हमें पता चल जाना चाहिए, कि मध्यकालीन दुनिया कोई अस्पष्ट या अंधेरी और अप्रासंगिक दुनिया नहीं है, बल्कि एक ऐसी दुनिया है जिसका निष्पक्ष रूप से अध्ययन किया जा सकता है, और किया जाना चाहिए, अगर हमें अपनी ख़ुद की चुनौतियों के परिदृश्य को समझना है.

अनिरुद्ध कनिसेट्टी एक लेखक और डिजिटल पब्लिक ह्यूमैनिटीज स्कॉलर हैं. वह लॉर्ड्स ऑफ द डेक्कन के लेखक हैं, जो मध्यकालीन दक्षिण भारत का एक नया इतिहास है और इकोज ऑफ इंडिया और युद्धा पॉडकास्ट को होस्ट करते हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.

(यह लेख ‘थिंकिंग मिडीवल’ श्रृंखला का एक हिस्सा है जो भारत की मध्यकालीन संस्कृति, राजनीति और इतिहास पर नज़र रखती है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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