संसद के नए भवन के उद्घाटन को लेकर एक अशोभनीय विवाद छिड़ गया है. सरकार की योजना के मुताबिक, उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों होना है और निर्धारित कार्यक्रम में राष्ट्रपति की कोई भूमिका नहीं रखी गई है. वे इस कार्यक्रम में उपस्थित भी नहीं रहेंगी. कांग्रेस समेत विपक्ष के 19 दलों ने इसे राष्ट्रपति के पद और गरिमा का अपमान माना है. उन्होंने ये कहते हुए उद्घाटन कार्यक्रम का बहिष्कार करने की घोषणा कर ही है कि ये संवैधानिक मूल्यों और परंपराओं के खिलाफ है.
इस विवाद को मैं तीन अलग-अलग पहलुओं से देखता हूं. पहला पक्ष नीति और नैतिकता का है. राष्ट्रीय महत्व के आयोजन में क्या राष्ट्रपति को बुलाया जाना चाहिए? मेरी स्पष्ट मान्यता है कि ये एक ऐसा आयोजन है, जिसमें अगर राष्ट्रपति महोदया को बुलाया जाता तो इससे न सिर्फ राष्ट्रपति पद की गरिमा की रक्षा होती, बल्कि आयोजन की शोभा और उसका महत्व भी बढ़ता. राष्ट्रपति भारतीय गणराज्य की प्रतीकात्मक मुखिया और सेना के तीनों अंगों की सुप्रीम कमांडर हैं और राजकाज मोटे तौर पर उनके नाम से ही चलता है.
संविधान और कानून की व्यवस्थाएं
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की भूमिका और जिम्मेदारियों के बारे में संविधान में स्पष्ट उल्लेख है और इसके बीच विभाजन भी साफ है. राष्ट्रपति की भूमिका मुख्य रूप से प्रतीकात्मक और समारोहों के मुख्य अतिथि के तौर पर है. हालांकि विशेष मौकों पर वे संवैधानिक मूल्यों और प्रतिमानों की रक्षक का कार्य भी करती हैं या कर सकती हैं. अतीत में कई मौकों पर राष्ट्रपति भवन ने लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए हैं. वे संसद में पारित विधेयकों को अंतिम मंजूरी देती हैं और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती हैं.
वहीं, प्रधानमंत्री कार्यपालिका के अधिकारों का प्रयोग करता है, वह देश का सबसे प्रमुख नीति निर्माता और प्रशासन का प्रमुख होता है, वह कैबिनेट की बैठकों की अध्यक्षता करता है और देश को किस दिशा में ले जाना है, इसका निर्धारण करता है.
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जहां तक संविधान का सवाल है, उसमें इस तरह की बातों का जिक्र नहीं है कि राष्ट्रीय महत्व की इमारतों का उद्घाटन कौन करेगा. संविधान में कार्य विभाजन करते हुए इन बारीकियों को सरकारों और संवैधानिक संस्थाओं के जिम्मे छोड़ दिया गया है. बिल्डिग्स के उद्घाटन को इतना महत्वपूर्ण नहीं माना गया था कि संविधान में उसके लिए निर्देश लिखा जाए.
इस संदर्भ में देखें तो विपक्ष का ये दावा नैतिक तौर पर तो सही है कि राष्ट्रपति को इस आयोजन में बुलाया जाना चाहिए या उद्घाटन उनके हाथों कराया जाना चाहिए, लेकिन इस मांग का कोई वैधानिक या संवैधानिक आधार नहीं है. संसद भवन की इमारत का उद्घाटन अगर प्रधानमंत्री करते हैं तो ये संविधान के किसी प्रावधान के खिलाफ नहीं होगा. ऐसे मामलों में जहां संविधान में स्पष्ट उल्लेख न हो तो विषय को तय मान्यताओं और परंपराओं के आधार पर निपटाया जाना चाहिए. किसी को कितना आदर या सम्मान देना है, ये बताना वैसे भी संविधान का काम भी नहीं है.
ऐतिहासिक परंपराओं के हवाले से
किसी देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं के संचालन में परंपराओं और पहले के हुए घटनाक्रम का बहुत महत्व है. ये दिशासूचक का काम करते हैं, खासकर तब जबकि संविधान से कोई स्पष्ट दृष्टि न मिल रही हो या किसी तरह का भ्रम पैदा हो रहा हो.
भारतीय गणराज्य के, बल्कि भारत के गणराज्य बनने से पहले से प्रधानमंत्री पद पर आसीन जवाहरलाल नेहरू ने राजकाज के विषय में कई परंपराएं स्थापित की थीं, जो बाद में भी जारी रहीं. मिसाल के तौर पर जिस दिन देश आजाद हो रहा था यानी 14-15 अगस्त, 1947 की रात, आजादी की घोषणा करने का भाषण – “नियति से साक्षात्कार”- प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पढ़ा. अगर स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े नेता को ये भाषण पढ़ना होता, तो ये जिम्मा मोहनदास करमचंद गांधी के हिस्से आता. उस समय संविधान सभा ही संसद का काम कर रही थी और डॉ. राजेंद्र प्रसाद उसके अध्यक्ष होने के नाते महत्वपूर्ण पद पर थे और वे 1960 में राष्ट्रपति भी बने, पर आजादी की घोषणा करने का जिम्मा इन सबने नहीं, नेहरू ने संभाला. इसका मतलब है कि समारोहों में राष्ट्र का नेतृत्व प्रधानमंत्री भी कर सकते हैं, बल्कि करते रहे हैं.
1950 के बाद राष्ट्रपति अपने पद पर आसीन हो चुके थे. लेकिन लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करने का दायित्व फिर से नेहरू ने प्रधानमंत्री होने के नाते अपने ऊपर लिया. इसका मतलब ये नहीं है कि वे राष्ट्रपति का अनादर कर रहे थे. ये कार्य और जिम्मेदारियों का विभाजन था, जिसके बारे में संविधान से कोई मार्गदर्शन नहीं मिला था. देश इस दौरान परंपराएं स्थापित कर रहा था. इसी तरह नेहरू ने राष्ट्रीय महत्व की कई संस्थाओं और भवनों का उद्घाटन भी किया और इसे लेकर तब कोई विवाद नहीं हुआ. सत्ता पक्ष अब कांग्रेस और विपक्ष से पूछ रहा है कि ये सवाल सिर्फ नरेंद्र मोदी से क्यों पूछे जा रहे हैं, जबकि ऐसा तो पहले भी होता रहा है.
#WATCH | In August 1975, then PM Indira Gandhi inaugurated the Parliament Annexe, and later in 1987 PM Rajiv Gandhi inaugurated the Parliament Library. If your (Congress) head of government can inaugurate them, why can't our head of government do the same?: Union Minister Hardeep… pic.twitter.com/syv8SXGwIS
— ANI (@ANI) May 23, 2023
नेहरू ने प्रधानमंत्री रहते हुए जिस तरह से उद्घाटन आदि किए, वही अब सत्ता पक्ष का तर्क बन चुका है. परंपराओं को देखें तो विपक्ष के इस दावे में दम नहीं नजर आता कि नए संसद भवन का उद्घाटन करके नरेंद्र मोदी कोई गलती करने वाले हैं या परंपराओं के खिलाफ आचरण करने वाले हैं.
संवैधानिक और ऐतिहासिक नजरिए से इस बात का बचाव किया जा सकता है कि नरेंद्र मोदी कुछ अनूठा या नया या अलग नहीं कर रहे हैं. चूंकि लोकसभा भारत में नागरिकों की इच्छाओं की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है और कोई भी प्रधानमंत्री तभी तक प्रधानमंत्री है, जब उसे लोकसभा के बहुमत का विश्वास हासिल है, इसलिए प्रधानमंत्री वास्तविक अर्थों में गणराज्य की लोक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने में सर्वाधिक सक्षम और समर्थ व्यक्ति है. अगर वह चाहते हैं कि वे नई संसद भवन का उद्घाटन करेंगे, तो इसे विवाद का विषय नहीं बनाना चाहिए. बेशक आप उनसे ये उम्मीद कर सकते हैं कि वे इस आयोजन में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को भी शामिल होने का न्योता दें. खासकर उपराष्ट्रपति तो संसद के एक सदन राज्य सभा का पदेन सभापति भी होते हैं.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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