लोकसभा चुनाव में अब एक साल से भी कम का समय बचा है. वर्तमान लोकसभा का कार्यकाल जून, 2024 में खत्म हो रहा है. यही वह समय है जब राजनीतिक गठबंधन बनने-बिगड़ने लगते हैं और नई राजनीति के शक्ल लेने की संभावना बनती है. एनडीए और यूपीए भी अपने गठबंधन को अंतिम रूप देने में लगे हैं.
ऐसे वक्त में एक राजनीतिक संकेत तेलंगाना राज्य से आया है, जिसका असर उत्तर भारत की राजनीति पर भी हो सकता है. दक्षिण के प्रमुख अखबार द न्यू इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक, वहां कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी (बसपा या बीएसपी) तालमेल करके चुनाव लड़ सकती हैं. कांग्रेस के सचिव एसए संपत कुमार और बसपा के राज्य प्रमुख आरएस प्रवीण कुमार के बीच मुलाकात के बाद ये चर्चा तेज हो गई है. हालांकि ये सब पर्दे के पीछे है और फिलहाल इसका अंतिम रूप क्या होगा या नहीं होगा, ये भविष्य के गर्भ में है. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि फिलहाल ये बातचीत तेलंगाना चुनाव तक सीमित है. वहां इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं.
अगर दोनों दल तेलंगाना में साथ आने की संभावना तलाशते हैं तो उत्तर भारत की राजनीति में भी हलचल मच सकती है. इसका सीधा असर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब की राजनीति पर पड़ सकता है क्योंकि इन इलाकों में दोनों पार्टियों का असर रहा है. बीएसपी ने हालांकि अपना असर खोया है. फिर भी उसका काफी वोट उसके साथ टिका हुआ है. मध्य प्रदेश में तो इसी साल विधानसभा चुनाव होंगे और खासकर राज्य के उत्तरी इलाकों में ऐसे किसी तालमेल का चुनावी राजनीति पर प्रभाव पड़ सकता है. बीएसपी यहां इतनी मजबूत नहीं है कि बहुत सारी सीटें जीत ले, लेकिन उसके वोट से जुड़कर बहुत सारी संभावनाएं बन सकती हैं. उसके साथ आने से संतुलन बन और बिगड़ सकता है. पंजाब में बीएसपी अभी अकाली दल के साथ नजर आ रही है. बीएसपी वहां भी समीकरण कुछ हद तक बदल सकती है.
लेकिन जिस एक राज्य में ऐसे किसी संभावित तालमेल का सबसे ज्यादा असर पड़ सकता है, वह राज्य निस्संदेह उत्तर प्रदेश है. इस राज्य से लोकसभा की 80 सीटें आती हैं और राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की इस राज्य की क्षमता निर्विवाद है.
उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 403 सदस्यीय विधानसभा में 255 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिला. हालांकि इससे पहले यानी 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी यहां अपना सर्वकालिक श्रेष्ठ रिकॉर्ड बना चुकी है, जब उसे 312 सीटें मिली थीं. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही, जिसमें बीजेपी ने यूपी में 80 में से 71 सीटें (इसके अलावा दो सीटें सहयोगी अपना दल ने भी जीतीं) सीटें जीती थीं, यूपी में बीजेपी का एकछत्र राज कायम है. सपा दूसरी बड़ी पार्टी बनी हुई है. लेकिन इस क्रम में कांग्रेस और बीएसपी विधानसभा में पूरी तरह निचुड़ गई है.
जिस राज्य से आने वाले लोकसभा सांसदों की ताकत से कई दशकों तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनती रही, उस राज्य में पार्टी के सिर्फ दो एमएलए 2022 में चुनकर आए. वह भी तब जबकि इस चुनाव में पार्टी ने महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को प्रचार की कमान सौंप दी थी. पार्टी 2017 से भी नीचे गई है, जब उसे सात सीटें मिली थीं. लगभग 35 साल से कांग्रेस यूपी में सत्ता से बाहर है और लोकसभा और विधानसभा चुनाव लगातार हार रही है. कांग्रेस के लिए हालात इतने खराब हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी यूपी में अमेठी की अपनी सीट नहीं बचा पाए.
कुछ ऐसा ही हाल बीएसपी का भी है, हालांकि वह कांग्रेस की तरह बिल्कुल किनारे नहीं है क्योंकि उसका वोट प्रतिशत बेहतर है. बीएसपी को 2022 में सिर्फ एक सीट पर जीत मिली. 2017 में उसे 19 सीटों पर जीत मिली थी. बीएसपी ने आखिरी बड़ा चुनाव 2007 में जीता था, जब यूपी में उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी. यानी बीएसपी को भी चुनाव जीते डेढ़ दशक से ज्यादा समय हो गया है.
बात सिर्फ चुनाव के समय मिलने वाली जीत और हार की नहीं है. जब कोई पार्टी लंबे समय तक चुनाव नहीं जीतती और उसके टिकट पर जीत की संभावना कम हो जाती है, तो पार्टी का संगठन भी कमजोर पड़ने लगता है और नेता पार्टी छोड़कर, जीत की संभावना वाली जगहों पर जाने लगते हैं.
समझा जा सकता है कि कांग्रेस और बीएसपी के लिए यूपी में समय कितना कठिन है. लेकिन ये भी सच है कि सबसे बुरे दौर में सबसे साहसिक और चौंकाने वाले फैसले लिए जाते हैं.
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यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें यूपी की राजनीतिक संभावनाओं को देखा जाना चाहिए. ये सही है कि दोनों दलों के बीच काफी कड़वाहट है, एक दूसरे के खिलाफ खूब बयानबाजियां हुई हैं, कांग्रेस ने जब बीएसपी के साथ तालमेल के लिए बातचीत करने की कोशिश की तो बीएसपी ने हाथ झटक दिया था. लेकिन वह सब अतीत है और राजनीति में पुरानी बातों को भुला देने में समय ही कितना लगता है! वैसे भी 1996 में बीएसपी और कांग्रेस यूपी का विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ ही चुकी हैं.
यूपी की राजनीति का एक पहलू मुसलमान मतदाता भी है. आखिरी जनगणना के मुताबिक यूपी में मुस्लिम आबादी 19.26 प्रतिशत है. 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने से पहले ही मुसलमान कांग्रेस से छिटक चुके थे. 1992 के बाद से तो मुसलमान लगातार मुलायम सिंह (अब दिवंगत) और समाजवादी पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं. ये जुड़ाव आज भी कायम है, जो बात तमाम चुनावी सर्वेक्षणों से भी साबित होती है.
मुसलमान वोट सपा को मिल रहा है लेकिन 2014 के बाद से इसका जीत-हार पर कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं है. बीजेपी मुसलमान वोट के बिना जीत रही है और मुसलमान वोट लेकर सपा बीजेपी को चुनौती नहीं दे पा रही है. मुसलमान वोट यूपी में बेशक किसी को अपने दम पर चुनाव नहीं जिता सकता, लेकिन ये वोट जिसे मिल जाएगा, वह पार्टी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी तो बन ही सकती है. सपा के साथ यही हो रहा है.
बीएसपी के सेक्युलर व्यवहार को लेकर मुसलमान सशंकित हैं. क्योंकि सपा कभी घोषित तौर पर बीजेपी के साथ नहीं रही, वहीं बीएसपी ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकारें चलाई हैं. बहन मायावती ने गुजरात में बीजेपी के समर्थन में चुनाव प्रचार भी किया है. नीतीश कुमार आसानी से ऐसे अतीत को धो पाए. पर बीएसपी के लिए ये आसान नहीं हो पा रहा है. ऐसे में मजबूत सेक्युलर पृष्ठभूमि के साथ कांग्रेस अगर उससे हाथ मिलाती है, तो उसे मुसलमानों का भरोसा और वोट मिल भी सकता है. वहीं कांग्रेस भी बिना किसी गठबंधन के मुसलमान वोट नहीं ले पाएगी. बेशक वह खुद को कितनी भी बड़ी सेक्युलर पार्टी क्यों न बताए. अकेली कांग्रेस में यूपी में बीजेपी से सामने खड़े होने की फिलहाल क्षमता ही नहीं है. और ऐसी पार्टी को वोट कौन दे?
यानी दोनों दलों को एक दूसरे की जरूरत है. गठबंधन होगा या नहीं, ये बहुत दूर की बात है इससे बीच बीजेपी भी तो कुछ राजनीति करेगी है, जो उसे करनी भी चाहिए. लेकिन ऐसे संभावित तालमेल से सपा का भारी नुकसान हो सकता है, क्योंकि उसका वजूद काफी हद तक मुसलमान वोट पर ही निर्भर है. उसके इस समय विधानसभा में 111 में से 32 विधायक मुसलमान हैं.
अभी तो कांग्रेस और बीएसपी पर नजर रखने का समय है.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः ऋषभ राज)
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