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Sunday, 22 December, 2024
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यूपी-2022 के लिए सियासी पारा चढ़ते ही छुटभैया नेता सक्रिय, लोकतंत्र की मजबूती में निभाते हैं अहम भूमिका

छुटभैया नेताओं की जिंदगी एकदम बॉलीवुड फिल्मों की तरह ही होती है. कुछ विधायक बनने का सपना पाले रहते हैं और कुछ देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करने में जुटे रहते हैं.

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उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार जोर पकड़ने लगा है. आजकल विभिन्न राजनीतिक दल जगह-जगह रैलियां कर रहे हैं. इनकी पूरी व्यवस्था संभालने, खासकर भीड़ जुटाने में स्थानीय, जमीनी स्तर के नेताओं और छुटभैया या स्थानीय युवा नेता बेहद अहम भूमिका निभाते हैं. क्या आप इन नेताओं को जानते हैं? राज्य की राजनीति में छुटभैया नेता एक बार फिर सक्रिय हो चुके हैं. आप उन्हें नेताओं को माला पहनाते, उनके समर्थन में ढोल बजाते और सियासी पारा चढ़ाए रखने के लिए जोरशोर से लिए नारेबाजी करते देख सकते हैं. रैलियों में उम्मीदवार तो चुनावी लक्ष्मणरेखा के पीछे बने रहते हैं, और यही छुटभैया जमीनी स्तर पर सारा कामकाज संभालते हैं. यही नेताओं और आम लोगों के बीच एक अंतर सुनिश्चित करने वाले होते हैं लेकिन एक तरह से दोनों को करीब लाने वाले भी यही होते हैं. अगली बार जब आप किसी छोटे शहर में किसी पेड़ पर चिपका पोस्टर देखें, जिसमें ऐसे नेताओं के चेहरे हों जिन्हें आप नहीं पहचानते तो समझ जाइये कि यही लोकतंत्र के छुटभैया हैं.

आखिर कौन होते हैं ये छुटभैया नेता?

ये आपको कई जगहों पर नजर आ सकते हैं—बड़े नेताओं के परिसरों के गलियारों में, ‘लाल बत्ती गाडि़यों’ के पीछे चल रही एसयूवी में, महत्वपूर्ण नेताओं के समर्थकों के साथ, या फिर राजनीतिक रैलियों, कचहरी और पुलिस थानों में.

छुटभैया नेता खुद को इस ‘नाम’ से संबोधित नहीं करते, इसका इस्तेमाल तो उनके आसपास मौजूद रहने वाले लोग करते हैं. वे न तो साधारण कार्यकर्ता होते हैं और न ही बड़े नेता. उनकी जगह इनके बीच कहीं होती है और ये चुनावी राजनीति के जरिये सांसद, विधायक या मंत्री बनने का सपना पूरा करने के लिए लगातार संघर्ष करते रहते हैं. उनमें से कुछ तो सफलता हासिल करके अपनी मंजिल तक पहुंच जाते हैं पर ज्यादातर ‘नेतानुमा’ ठेकेदार या नेता ही बने रह जाते हैं जो स्थानीय नेता के तौर पर अपना जीवन गुजारते हैं और थानों, कचहरियों और विभिन्न सरकारी कार्यालयों में लोगों की मदद करके अपनी आजीविका चलाते हैं. भारतीय जनता पार्टी के रमापति शास्त्री, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अतुल अंजन और समाजवादी पार्टी के राम गोविंद चौधरी जैसे नेताओं ने अपनी कड़ी मेहनत के बलबूते जमीनी स्तर से उठकर राजनीति में अपना एक मुकाम बनाया है.

वहीं, इनमें से कुछ छुटभैया जिन नेताओं के साथ काम करते हैं, उनके प्रभाव का इस्तेमाल कर ठेकेदारों के तौर पर सड़क निर्माण के ठेके लेकर, स्थानीय स्तर पर बसों के संचालन या टूर एंड ट्रैवल जैसी सेवाएं चलाकर या फिर रीयल इस्टेट के क्षेत्र में काम करके अकूत संपत्ति भी कमाते हैं. ऐसे ज्यादातर छुटभैया नेता बड़े नेताओं के संरक्षण में ही काम करते हैं.

विनम्रता के साथ शुरुआत, महत्वाकांक्षाओं की उड़ान

छुटभैया नेता अमूमन अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत युवावस्था में करते हैं. उनमें से कुछ छात्र राजनीति के जरिये नेता बन जाते हैं और कुछ प्रमुख छात्र नेताओं के साथ उनके पिछलग्गू बनकर काम करते रहते हैं. मेरी मुलाकात केसीटी (बदला हुआ नाम) से हुई, जो एक राजनीतिक दल की स्थानीय इकाई के अध्यक्ष के तौर पर काम करते हैं. वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के विधायक हर्षवर्धन वाजपेयी के करीबी माने जाते हैं.

नेता के निकट सहयोगी के तौर पर वह वाजपेयी के समर्थन से एक पड़ोसी विधानसभा क्षेत्र के विधायक बनने की आकांक्षा रखते हैं. मजे की बात यह है कि अपने नेता के प्रबल समर्थक होने के बावजूद वह उनकी जगह लेने की इच्छा भी रखते हैं, यदि पार्टी उन्हें टिकट नहीं देती है या फिर वाजपेयी सांसद बन जाते हैं. केसीटी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत एक स्थानीय इंटरमीडिएट कॉलेज के छात्र नेता के तौर पर की थी. फिर यूनिवर्सिटी आने पर एक अन्य प्रभावशाली छात्र नेता के उत्साही समर्थक बन गए. उन्होंने अपने समर्थकों को कोटा, परमिट और ठेके दिलाने में मदद की है, और उन्होंने आर्थिक और राजनीतिक रूप से उनकी मदद की. उनका कहना है. ‘राजनीति में हर कोई किसी न किसी को बनाने में लगा रहता है, और हम इसी तरह आगे बढ़ते हैं.’

मैं एक और छुटभैया नेता से मिला, जिसका नाम वी.आर. (बदला हुआ) है, और वह एक वंचित तबके से आते हैं. उन्होंने हाल ही में जिला पंचायत (डीपीसी) चुनाव में जीत हासिल की है. मैंने उनसे जब पूछा कि वह नेता कैसे बने तो उन्होंने पूरा किस्सा बताया, ‘एक बार मेरे क्षेत्र के एक दबंग व्यक्ति ने मुझे झूठे मामले में फंसा दिया. उस केस के सिलसिले में मुझे थाने-कचहरी के तमाम चक्कर लगाने पड़े. इस दौरान ही मैंने जाना कि सिस्टम कैसे काम करता है और काम कैसे करवाया जाता है. फिर मैंने लोगों के काम करवाने में उनकी मदद करना शुरू कर दिया और अपनी मदद लेने वालों का एक नेटवर्क तैयार किया. फिर मेरा यही नेटवर्क लोगों को पुलिस, थाना, कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने से बचाने और उन्हें विभिन्न सरकार प्रायोजित कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने और छोटी नौकरियां पाने में मदद करने लगा. इन्हीं लोगों ने मुझे नेता बनने के लिए प्रोत्साहित किया. धीरे-धीरे मैं एक नेता के रूप में उभरा और डीपीसी चुनाव में खड़ा हुआ. मैं किसी संरक्षक के बिना ही राजनीति में आया हूं और बहुजन समाज पार्टी के लिए काम करता हूं.’


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...जब सियासत में नहीं मिल पाती है सफलता

अपने फील्डवर्क के दौरान मैं एक ऐसे छुटभैया नेता से मिल चुका हूं जिन्होंने काफी हाथ-पैर मारने के बावजूद सफलता न मिलने पर 50 साल की उम्र में राजनीति छोड़ दी. वह अपनी आजीविका के लिए किराने की एक दुकान चलाते हैं, जिसे उन्होंने तब खोला जब यह एहसास हो गया कि राजनीति में उनका कोई भविष्य नहीं है. जब भी वह नशे में धुत होते हैं तो खुद को मुख्यमंत्री बताने लगते हैं और उसी अंदाज में लोगों को आदेश भी देने लगते हैं. लेकिन जब शांत होते हैं तो राजनीति में अपनी विफलताओं पर बात करते हैं और दोस्तों, पत्नी और बच्चों के सामने रोना तक शुरू कर देते हैं. सच्चाई यही है कि इनमें से तमाम नेताओं का जीवन इसी तरह बर्बाद हो जाता है, क्योंकि वे अपना सारा समय और ऊर्जा तथाकथित बड़े नेताओं को बनाने में लगा देते हैं जो सुर्खियों में छाए रहते हैं. कभी-कभी ये आम जनता का चुनावी मूड भी अपने सियासी संरक्षक के पक्ष में बदलने में कामयाब रहते हैं.

ऐसे असफल छुटभैया नेताओं का जीवन दुख, आशा-निराशा और तमाम भावनात्मक चोटों से भरा होता है. इनमें से कुछ की कहानी दुखांत होती है और कुछ का जीवन बॉलीवुड फिल्मों के चरित्रों की तरह सुखांत भी हो सकता है.

लोकतंत्र के लिए खास अहमियत भी रखते हैं छुटभैया नेता

सियासी मैदान में छुटभैया नेता असफल भले ही साबित हो जाएं लेकिन उनमें से तमाम भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहरी करने में अहम योगदान देते हैं. सरकार-प्रायोजित योजनाओं पर ठीक से अमल और उनके लाभ गरीबों तक पहुंचना सुनिश्चित करने के लिए सरकार और एकदम बुनियादी स्तर पर लोगों के बीच वे एक एजेंसी के तौर पर काम करते दिखाई देते हैं. वे लोकतांत्रिक फायदे जनता के बीच पहुंचाने वाली एक महत्वपूर्ण राजनीतिक कड़ी के तौर पर भी उभरकर सामने आते हैं क्योंकि वे सत्ता की भाषा जानते हैं और इसे आम लोगों को उनकी अपनी भाषा में समझा भी पाते हैं.

यह सच है कि इनमें से कुछ छुटभैया नेता लोगों को अपने पाले में लाकर थोड़ा-बहुत दबदबा बना लेते हैं. लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो इस ढीली-ढाली व्यवस्था में काम करा देने के बदले में लोगों से पैसे ऐंठते हैं.

लेखक जी.बी. पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में प्रोफेसर और निदेशक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @poetbadri है. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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