अगर मीडिया की सुर्खियों को किसी राजनीतिक दल की ताकत का पैमाना माना जाए, तो तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी प्रमुख विपक्षी दल नजर आएगी. मई 2021 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) सरकार के सत्ता में आने के शुरुआती दिनों से ही यही स्थिति बनी हुई है.
पूर्व आईपीएस अधिकारी के. अन्नामलाई, जिन्होंने डीएमके सरकार के आने के दो महीने बाद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का पद संभाला, एक प्रभावशाली विपक्षी नेता के रूप में उभरे. वहां, विपक्ष की एक जोरदार आवाज बनकर आए, हालांकि उनकी पार्टी का भाजपा शासित राज्यों में ज्यादा प्रभाव नहीं है. इस बीच, मुख्य विपक्षी दल, एआईएडीएमके से बढ़त हासिल कर ली, जो उस समय ई.के. पलानीस्वामी और ओ. पन्नीरसेल्वम के बीच सत्ता संघर्ष में उलझी हुई थी. लेकिन मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के लिए जो सबसे बड़ा तोहफा साबित हुआ, वह था आरएन रवि की सितंबर 2021 में राज्यपाल के रूप में नियुक्ति.
जैसा कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल जगदीप धनखड़ की उप-राष्ट्रपति पद पर नियुक्ति से प्रेरणा ली हो, रवि ने भी कई अन्य महत्वाकांक्षी राज्यपालों की तरह चुनी हुई सरकार पर लगातार हमले करना अपना मिशन बना लिया. यह स्टालिन को एक बेहतर मौका मिला. तमिलों द्वारा चुनी गई सरकार को दिल्ली के शासकों द्वारा कमजोर करने की कोशिश का नैरेटिव द्रविड़ राजनीति में हमेशा लोकप्रिय रहा है. स्टालिन ने इसे बखूबी भुनाया.
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स्टालिन की हिंदी राजनीति
अब, विधानसभा चुनाव से करीब एक साल पहले, स्टालिन चुनावी बहस की दिशा तय कर चुके हैं—’हिंदी थोपने’ और ‘सीमांकन’ के मुद्दे को तमिलनाडु और अन्य दक्षिणी राज्यों के राजनीतिक हाशिए पर डालने के रूप में पेश करके. कम से कम अगले 13 महीनों तक इस बहस को स्टालिन जारी रखेंगे.
तमिल भूमि पर लौह युग की शुरुआत की ऐतिहासिक उपलब्धि से तमिलों का गर्व बढ़ रहा है, ऐसे समय में ये मुद्दे तीखी प्रतिक्रियाएं पैदा करेंगे—या कम से कम स्टालिन ऐसा ही मानते हैं.
संक्षेप में, सत्तारूढ़ डीएमके शुरुआती बढ़त बनाती दिख रही है. हिंदी थोपने और सीमांकन पर जितना अधिक विवाद होगा, एआईएडीएमके और बीजेपी के बीच मेल-मिलाप की संभावना उतनी ही कम होती जाएगी. एआईएडीएमके के महासचिव ईके पलानीस्वामी इस गठबंधन को लेकर वैसे भी उत्सुक नहीं दिखते हैं, लेकिन बीजेपी को अब भी उम्मीद है. देखिए, कैसे अन्नामलाई विपक्षी द्रविड़ पार्टी को नाराज करने से बचने की कोशिश कर रहे हैं. अगर हिंदी और सीमांकन अगले चुनाव के मुख्य मुद्दे बनते हैं, तो तमिल पार्टियां बीजेपी से दूरी बनाए रखेंगी.
अब सवाल यह उठता है कि केंद्र सरकार भी इन मुद्दों को क्यों उछाल रही है? नरेंद्र मोदी सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) लागू न करने पर तमिलनाडु को समग्र शिक्षा योजना के तहत फंड देने से इनकार क्यों किया? आखिर यह तीन-भाषा फॉर्मूला मोदी सरकार की कल्पना नहीं थी.
शिक्षा पाठ्यक्रम में बहुभाषावाद की नींव एस. राधाकृष्णन के नेतृत्व वाले विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) ने रखी थी, जिसने स्कूल के छात्रों में द्विभाषावाद और त्रिभाषावाद पर जोर दिया था. यह नीति 1968 और 1986 में इंदिरा और राजीव गांधी सरकारों के दौरान राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों में तीन-भाषा फॉर्मूला के रूप में विकसित हुई.
फिर विवाद किस बात का है, जब NEP 2020 में हिंदी को अनिवार्य रूप से शामिल करने की शर्त नहीं है? नीति केवल यह कहती है कि तीन में से दो भाषाएं भारत की होनी चाहिए. अगर स्टालिन सरकार तीसरी भाषा के रूप में हिंदी नहीं चाहती, तो वह कन्नड़, तेलुगु या किसी भी 25 क्षेत्रीय भाषाओं—जैसे भोजपुरी या मैथिली—को चुन सकती है, जिन्हें स्टालिन हिंदी के प्रभुत्व का शिकार बताते हैं.
स्पष्ट है कि स्टालिन राजनीति कर रहे हैं और तमिलनाडु में पुराने हिंदी विरोधी भावना को भड़काना चाहते हैं. लेकिन केंद्र सरकार उनके जाल में क्यों फंस रही है? उसने केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को इस विवाद को तूल क्यों देने दिया? कोई भी राजनीतिक नौसिखिया बता सकता है कि NEP या तीन-भाषा फॉर्मूले पर तमिलनाडु को फंड रोकना केंद्र के लिए उल्टा पड़ सकता है.
फिर भी, बीजेपी नेता तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के साथ हिंदी को लेकर तीखी बहस में उलझे हुए हैं. इसका फायदा उन्हें अगले साल की शुरुआत में चुनावी राज्यों—तमिलनाडु, केरल, असम, पुडुचेरी और पश्चिम बंगाल—में तो नहीं मिलेगा. क्या वे इसका असर अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार चुनाव पर पड़ने की उम्मीद कर रहे हैं? यह भी मुश्किल लगता है.
2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर तमिलनाडु में दोगुनी संख्या में पहुंचा—11.24% (2019 में 3.62% से बढ़कर). हालांकि, वोट प्रतिशत में तीन गुना बढ़ोतरी को इस संदर्भ में देखना होगा कि बीजेपी ने 2024 में 23 सीटों पर चुनाव लड़ा, जबकि 2019 में केवल 5 सीटों पर.
द्रविड़ भूमि में मिली असफलता केंद्र के लिए पुराने हिंदी विरोधी भावनाओं को हवा देने का उचित कारण नहीं हो सकता, जब तक कि पार्टी रणनीतिकारों को यह न लगे कि यह मुद्दा हिंदी पट्टी—खासतौर पर बिहार—में बीजेपी के पक्ष में जा सकता है. लेकिन इसमें भी संदेह है.
तमिल युवा तमिल नहीं जानते
खैर, स्टालिन आज जरूर खुश होंगे. हिंदी को लेकर छिड़ी यह बहस उनके लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद है. लेकिन तमिलनाडु की जनता के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता.
देखिए एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) 2024—यह स्टालिन सरकार की नाकामी को उजागर करती है, जो युवा तमिलों को उनकी खुद की भाषा तमिल ठीक से सिखाने में नाकाम रही है. उदाहरण के तौर पर:
- सिर्फ 12% तीसरी कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा के स्तर की किताबें पढ़ सकते हैं. सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में तमिलनाडु से भी पीछे सिर्फ तेलंगाना है, जहां यह आंकड़ा 6.2% है. इस मामले में बिहार और उत्तर प्रदेश के आंकड़े क्रमशः 26.1% और 23% हैं. क्या यही है डीएमके सरकार का “तमिल प्रेम”?
- तमिलनाडु में सिर्फ 35.6% पांचवीं कक्षा के बच्चे दूसरी कक्षा के स्तर की किताबें पढ़ सकते हैं. इस मामले में भी तमिलनाडु नीचे से दूसरे स्थान पर है, जबकि तेलंगाना सबसे आखिरी पायदान है.