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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतआखिरकार अब श्रीलंका पर PMO और भारतीय विदेश मंत्रालय फैसले ले रहा है, न कि तमिल पार्टियां

आखिरकार अब श्रीलंका पर PMO और भारतीय विदेश मंत्रालय फैसले ले रहा है, न कि तमिल पार्टियां

तमिलनाडु में आसन्न चुनावों के बावजूद भारत का यूएनएचसीआर में श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव पर मतदान नहीं करना दर्शाता है कि स्थितियां बदल चुकी हैं.

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नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले भारत का संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका के खिलाफ प्रस्ताव पर मतदान से परहेज करना और वो भी तमिलनाडु के चुनाव के ठीक पहले, ये जाहिर करता है कि केंद्र सरकार अब अंतरराष्ट्रीय मामलों पर घरेलू राजनीतिक दलों के दबाव में आने को तैयार नहीं है.

यूएनएचआरसी के 46वें सत्र ने श्रीलंका पर कोर ग्रुप समूह द्वारा एक प्रस्ताव को ‘पारित’ कर दिया. प्रस्ताव में श्रीलंका में ‘सभी पक्षों’ द्वारा मानवाधिकारों के हनन और देश में ‘बिगड़ते हालात’ का उल्लेख किया गया है. 47-सदस्यीय परिषद में 22 देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में और 11 ने उसके खिलाफ मतदान किया, जबकि 14 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया, और इस तरह प्रस्ताव पारित हो गया. यह कोर ग्रुप के लिए एक तरह की तकनीकी जीत है.

जैसा कि अपेक्षित था, भारत ने मतदान में भाग नहीं लिया, हालांकि नई दिल्ली समय-समय पर कोलंबो को 30 साल पुराने गृहयुद्ध से उत्पन्न मुद्दों को सौहार्द के साथ हल करने की सलाह देता रहा है. श्रीलंका में संघर्ष से उत्पन्न मसलों को सुलझाने के लिए भारत से बेहतर स्थिति में कोई और देश नहीं है.

उल्लेखनीय है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के श्रीलंका संबंधी प्रस्ताव और अन्य कदम तमिलनाडु में तीखी बहस और विवाद के मुद्दे बन जाते हैं. राज्य के क्षेत्रीय दलों ने बारंबार श्रीलंका के आंतरिक संघर्ष को स्थानीय मुद्दा बताते हुए राजनीतिक फायदे के लिए उसका इस्तेमाल किया है. एक वक्त था जब तमिलनाडु लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) और अन्य तमिल अलगाववादी संगठनों के स्लीपर सेलों का लोकप्रिय ठिकाना हुआ करता था.

लेकिन परिस्थितियां बदल रही हैं.


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फैसले लेने का काम केंद्र का है, न कि राज्यों का

जहां तक देश विशेष से संबंधित प्रस्तावों की बात है, तो भारत आमतौर पर तटस्थ रहने का विकल्प अपनाता रहा है. हालांकि श्रीलंका के मामले में नई दिल्ली, द्रविड़ पार्टियों के राजनीतिक दबाव में, दो बार कोलंबो के खिलाफ मतदान कर चुका है.

घरेलू राजनीति का भारत की विदेश नीति पर इतना अधिक प्रभाव रहा है कि जिसके कारण पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नवंबर 2013 में श्रीलंका की मेज़बानी में आयोजित 54-सदस्यीय राष्ट्रमंडल देशों के शासनाध्यक्षों की बैठक (चोगम) में शामिल नहीं हो सके थे.

तमिलनाडु की राजनीतिक पार्टियों के विरोध को देखते हुए विगत में एलटीटीई का गढ़ रहे देश के उत्तरी और पूर्वी इलाकों, जहां श्रीलंका ने सुलह की परियोजनाएं शुरू की थीं, की यात्रा के भारतीय प्रधानमंत्री के प्रस्तावित कार्यक्रम को रद्द कर दिया गया था. चोगम की प्रतिष्ठित बैठक में तब तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने भाग लिया था. संयोगवश, उसके 16 महीने बाद मार्च 2015 में, नरेंद्र मोदी श्रीलंका में गृहयुद्ध शुरू होने के 30 वर्ष बाद युद्ध से तबाह जाफना का दौरा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने.

यूपीए सरकार की श्रीलंका संबंधी विदेश नीति वास्तव में तमिलनाडु के दो दलों द्वारा निर्देशित होती थी.

द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) ने केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार को बाहर से समर्थन दे रखा था. जबकि केंद्र का सिरदर्द बढ़ाने के लिए, ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्नाद्रमुक) तमिलनाडु में सत्ताधारी पार्टी थी. दोनों ही दलों ने तमिल मुद्दे का राजनीतिक फायदा उठाने के लिए ‘कोलंबो विरोधी’ कार्ड खेला.

भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार को द्रविड़ दलों के समर्थन की आवश्यकता नहीं है और इसलिए वह घरेलू बाध्यताओं से प्रभावित हुए बिना अपनी विदेश नीति बनाने में सक्षम है.

केंद्र सरकार का तमिलनाडु के आगामी चुनाव में असर पड़ने की चिंता से बेपरवाह रहकर यूएनएचआरसी में मतदान से दूर रहने का निर्णय लेना, बदली हुई परिस्थितियों को दर्शाता है. दरअसल, पहले की परिस्थिति के बिल्कुल उलट, इस समय खुद तमिलनाडु की क्षेत्रीय पार्टियों को केंद्र के समर्थन की जरूरत है और इसलिए विदेश मंत्रालय और पीएमओ के दायरे में आने वाले मुद्दों को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए उनके पास ज्यादा कुछ नहीं है. श्रीलंका के तमिलों का मुद्दा अब तमिलनाडु के लिए राजनीतिक मुद्दा नहीं रह गया है.


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संतुलन साधने की भारत की कोशिश

खूंखार एलटीटीई को 2009 में पूरी तरह परास्त करने के बाद, श्रीलंका ने विस्थापितों की भावनाओं को शांत करने तथा लेसंस लर्न्ट एंड रिकॉन्सिलिएशन कमीशन (एलएलआसी) की ‘वाडकिन वसंथम’ या उत्तरी वसंत परियोजना को लागू करने के लिए भारत की विभिन्न सरकारों के साथ निरंतर काम किया है. इस तरह, कोलंबो स्थित सरकारों ने श्रीलंका को तीन दशकों से अधिक समय तक तबाह करने वाले गृहयुद्ध के पीड़ितों की मदद के सराहनीय प्रयास किए हैं और अब भी कर रहे हैं. जमीनी हकीकत से अनजान अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के खोखले शब्द और धमकियां कमज़ोर अर्थव्यवस्था समेत विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे श्रीलंका की परेशानी बढ़ाने में ही योगदान कर रहे हैं.

यूएनएचसीआर की प्रमुख मिशेल बाचेलेट को ‘अलगाववादी तमिल टाइगर्स की हार और आम नागरिकों की बड़ी संख्या में मौत के साथ 2009 में समाप्त श्रीलंका के लंबे गृहयुद्ध के दौरान हुए अपराधों के साक्ष्य एकत्रित करने के लिए’ प्राप्त प्राधिकार में आदर्श रूप से एलटीटीई द्वारा आम नागरिकों और सुलह की तरफदारी करने वाले अपने नेताओं पर किए गए अत्याचारों को भी शामिल किया जाना चाहिए.

यूएनएचसीआर का ताज़ा प्रस्ताव आम नागरिकों को ढाल बनाने वाले एलटीटीई की पराजय के बाद ‘श्रीलंका में सुलह, जवाबदेही और मानवाधिकारों को बढ़ावा देने’ के लिए मार्च 2014 में अपनाए गए आरंभिक प्रस्ताव ए/एचआरसी/आरईएस/25/1 की कड़ी में है. लेकिन यह इन मुद्दों पर पूरी तरह से मौन है. उल्लेखनीय है कि फिलीपींस के प्रतिनिधि इवान पी गार्सिया ने परिषद को आगाह किया कि प्रस्ताव का पाठ ‘जटिल ज़मीनी परिस्थितियों के सरल सामान्यीकरण से प्रेरित’ है. जबकि पाकिस्तान के प्रवक्ता ख़लील-उर-रहमान हाशमी ने दलील दी कि मसौदा प्रस्ताव ‘एलटीटीई के खिलाफ श्रीलंकाई लोगों और सरकार के लंबे संघर्ष को मान्यता देने में विफल’ रहा है और यह ‘एलटीटीई तथा उसके प्रायोजकों और फाइनेंसरों की जवाबदेही सुनिश्चित करने का प्रयास नहीं करता है’.

वैसे तो भारत का प्रस्ताव के खिलाफ वोट करना श्रीलंका के लिए बेहतर रहता लेकिन भारत ने उपलब्ध विकल्पों में सर्वश्रेष्ठ को चुना जोकि असंवेदनशील पश्चिमी देशों और रणनीतिक रूप से अहम एक पड़ोसी देश के बीच संतुलन प्रदान करता है. अगले दो वर्षों के लिए भारत मतदान करने वाले सदस्यों की श्रेणी में नहीं होगा. लेकिन भारत को क्षेत्र में अपनी भूमिका निभाने तथा श्रीलंका समेत निकट और विस्तारित पड़ोस के अपने ‘प्रभाव क्षेत्र’ वाले देशों की तरफदारी करने से पीछे नहीं हटना चाहिए.

(शेषाद्री चारी ‘ऑर्गेनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(नीरा मजूमदार द्वारा संपादित)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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