पिछले हफ्ते मुझे एक्स पर थोड़ी-बहुत (मेरे लिए जानी-पहचानी) बातें सुनने को मिली.
मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से मिली अपनी बैचलर ऑफ आर्ट्स की डिग्री सर्टिफिकेट पोस्ट करने का फैसला किया. यह डिग्री मुझे 1987 में हिस्ट्री (ऑनर्स) में दी गई थी. इसके बाद ऑनलाइन चर्चा जोर पकड़ गई. मेरी पोस्ट शेयर हुई, निंदा हुई, आलोचना भी हुई और सराहना भी. मुझे पारदर्शिता के लिए तारीफ मिली और “एलीटिस्ट” और “क्लासिस्ट” शैक्षणिक योग्यता दिखाने के लिए ताने भी. कुछ लोगों को मेरी पोस्ट बेवजह व्यक्तिगत लगी, तो कुछ ने मेरी खुलेपन की तारीफ की.
तो फिर एक पत्रकार से सांसद बनी और जिसे दिल्ली यूनिवर्सिटी और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाई करने का सौभाग्य मिला, उस व्यक्ति ने अपनी डिग्री सार्वजनिक क्यों की?
मेरी बीए की डिग्री दिखाने का मकसद अपनी पढ़ाई का प्रदर्शन या डींगें हांकना नहीं था. मेरा प्रयास सिर्फ उस शपथ को दोहराना था जो सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोग लेते हैं कि वे चुनावी हलफनामों में सच बताएंगे.
मेरी पोस्ट का सीधा कारण वही दिन था जब दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपनी कॉलेज की डिग्री सार्वजनिक करने को कहा गया था, लेकिन आखिरकार ऐसा आदेश सीआईसी को देने की ज़रूरत ही क्यों पड़ी?
आखिरकार, मोदी के चुनावी हलफनामे में लिखा है कि उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए और अहमदाबाद की गुजरात यूनिवर्सिटी से एमए किया है. अगर यह विवरण सच है, तो जब जनता सवाल पूछे तो इसकी आधिकारिक पुष्टि सार्वजनिक रूप से क्यों न की जाए?
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टैक्स देने वालों को सच जानने का हक है
चुनाव हलफनामा वह दस्तावेज़ है जो संसद या विधानसभा का चुनाव लड़ने वाला हर उम्मीदवार अपने नामांकन पत्रों के साथ रिटर्निंग ऑफिसर को देता है. इन हलफनामों में न सिर्फ उम्मीदवार की शैक्षणिक योग्यता का ज़िक्र होता है, बल्कि उसकी संपत्ति, आय और प्रॉपर्टी यहां तक कि परिवार के सदस्यों की जानकारी भी शामिल होती है.
मुझे 2024 में ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस से राज्यसभा सांसद चुना गया. मेरा हलफनामा जिसे दाखिल करने के साथ ही सार्वजनिक कर दिया गया, थोड़ी चर्चा का विषय बन गया क्योंकि उसमें मेरे पति की सैलरी का ज़िक्र था.
क्या मैंने इस चर्चा को अपनी प्राइवेसी में दखल माना? नहीं, मैंने ऐसा नहीं सोचा. जो लोग जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं और टैक्सपेयर्स के पैसों से तनख्वाह पाते हैं, उनका फर्ज़ है कि वे अपने जीवन-यापन के तरीक़ों में पारदर्शिता रखें. जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 125A के तहत झूठा हलफनामा देना गलत घोषणा माना जाता है और इसके लिए छह महीने की जेल हो सकती है. कुछ मामलों में तो उम्मीदवार की अयोग्यता तक हो सकती है. इसलिए ज़रूरी है कि हलफनामे में दी गई हर जानकारी सही और प्रमाणित हो.
सच मायने रखता है. सच महत्वपूर्ण है.
नरेंद्र मोदी देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर हैं; उन्हें जनता ने चुना है और उनकी आय टैक्सपेयर्स से आती है. ऐसे उच्च पद पर बैठे व्यक्ति का पहला फर्ज़ है कि वे अपने चुनावी हलफनामे की हर जानकारी चाहे वह संपत्ति की हो, आय की या इस मामले में विश्वविद्यालय की डिग्री की ईमानदारी और पारदर्शिता से जनता को बताएं.
लोकजीवन चुनाव जीतने पर खत्म नहीं हो जाता. लोकजीवन का मतलब है लगातार पारदर्शिता बनाए रखकर व्यक्तिगत और सरकारी मामलों में जनता का भरोसा जीतना.
जनता को अपने प्रतिनिधि होने का दावा करने वालों के बारे में सच्ची, भरोसेमंद और सटीक जानकारी मिलनी चाहिए. चुने हुए प्रतिनिधियों के मामले में जनता के सूचना के अधिकार और व्यक्ति की प्राइवेसी के अधिकार के बीच टकराव हो तो पलड़ा जनता के पक्ष में झुकता है.
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी अपने पूर्व छात्रों की डिग्रियां सार्वजनिक नहीं करती, लेकिन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री या चुने हुए पदों पर बैठे नेताओं को अपनी शिक्षा और पारिवारिक विवरण छिपाने की छूट नहीं होती.
क्या प्रधानमंत्री की यूनिवर्सिटी की डिग्री प्राइवेसी के अधिकार के दायरे में आती है? नहीं, बिल्कुल नहीं, खासकर जब यह जानकारी पहले से ही उनके चुनावी हलफनामे में दर्ज है और सार्वजनिक डोमेन में मौजूद है. सवाल यह है: मोदी के हलफनामे में दी गई शैक्षणिक जानकारी सही है? या झूठी?
कोई शर्म नहीं, जब तक झूठ न हो
मोदी की यूनिवर्सिटी की डिग्री पिछले एक दशक से सार्वजनिक विवाद का विषय बनी हुई है. जब आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने आरोप लगाया कि मोदी की डिग्री फर्जी है, तो 2016 में बीजेपी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की. उसमें अमित शाह और अरुण जेटली ने मोदी का डिग्री सर्टिफिकेट दिखाया, जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए की डिग्री दर्ज थी. सवाल उठे कि 1978 में ली गई डिग्री के लिए कंप्यूटर-जनित मार्कशीट कैसे उपलब्ध हुई.
आरटीआई कार्यकर्ताओं ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के रजिस्टर की प्रमाणित कॉपी मांगी. इसके बाद 2016 में हुए केस में दिल्ली हाईकोर्ट ने सीआईसी का वह आदेश खारिज कर दिया, जिसमें आरटीआई कार्यकर्ता को मोदी की 1978 की डिग्री देखने की अनुमति दी गई थी. दिलचस्प यह है कि उस केस में दिल्ली यूनिवर्सिटी की ओर से तत्कालीन एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए और तर्क दिया कि यह जानकारी आरटीआई एक्ट के तहत “प्राइवेसी का उल्लंघन” है. असल में सरकार का यही रवैया, मोदी की डिग्री की जानकारी रोकने का, सबसे ज्यादा हैरान करने वाला है. आखिर चुनावी हलफनामे की जानकारी में ऐसा क्या “निजी” है?
आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे. मोदी की गुजरात यूनिवर्सिटी से एमए डिग्री, जिसमें विषय “Entire Political Science” लिखा था, वह भी विवादों में आ गई. इसके अलावा, सर्टिफिकेट में ‘University’ को ‘Unibersity’ लिखा गया था. कोई पुख्ता सबूत सामने नहीं आया कि किसी भी यूनिवर्सिटी में “Entire Political Science” नाम का कोर्स मौजूद है. आज तक मोदी के कोई भी सहपाठी सामने नहीं आए. मोदी खुद कई भाषणों में कह चुके हैं कि उन्होंने गांव के स्कूल से आगे औपचारिक शिक्षा नहीं ली. एक पुराने वीडियो में मोदी कहते हैं: “मेरी शिक्षा नहीं हुई.”
अगर प्रधानमंत्री के हलफनामे में यह दर्ज है कि उनके पास बीए और एमए दोनों डिग्रियां हैं, तो देश के सर्वोच्च पद के लिए यह प्रमाणित सबूत देना इतना मुश्किल क्यों है? बीजेपी ने 2016 की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद से मोदी की डिग्री पर पर्दादारी क्यों अपनाई हुई है, जैसे कुछ छुपाने की कोशिश हो? प्रधानमंत्री की शिक्षा को अदालतों से क्यों बचाया जा रहा है? मोदी खुद चुप्पी क्यों नहीं तोड़ते और सच्चाई साफ-साफ क्यों नहीं बताते?
इसमें कोई शर्म या हिचक नहीं होनी चाहिए कि मोदी यूनिवर्सिटी नहीं गए और उनके पास डिग्री नहीं है. असली शर्म, गहरी हिचक और बड़ा घोटाला यह होगा, अगर भारत के प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी हलफनामे में झूठ बोला हो.
सत्यमेव जयते को क्या हुआ?
यही बढ़ती हुई अपारदर्शिता, यह गोपनीयता की संस्कृति, यह लगातार कोशिश कि सच जनता से साझा करने की बजाय किसी तरह मीडिया की सुर्खियां मैनेज कर ली जाएं—यही मोदी की डिग्री विवाद के केंद्र में है.
मोदी शासन का यह गुप्त दोमुंहापन—सच को छिपाना, लगातार ढंक-छिपाना, ठोस तथ्यों पर चमकदार काल्पनिकता का पर्दा डालना, आंकड़ों में हेरफेर करना, साफ-साफ जवाब देने से इनकार करना, ये सब एक ऐसी सरकार की पहचान है जो सच से घबराई हुई लगती है.
सच न बताना और सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के ऊंचे मानकों का पालन न करना ही वजह है कि पिछले 11 सालों में मोदी ने कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की.
महात्मा गांधी ने लिखा था, “यह कहना ज़्यादा सही है कि सत्य ही ईश्वर है, बजाय इसके कि ईश्वर सत्य है.” सत्य ही भगवान है. सच बोलना पूजा का काम है. गांधी के लिए भारत की आज़ादी का संघर्ष “सत्याग्रह” था. उनके लिए सार्वजनिक जीवन का मतलब था सत्य की खोज. इतिहासकार टिमोथी स्नाइडर ने कहा है, “अगर कुछ भी सच नहीं है, तो कोई सत्ता की आलोचना नहीं कर सकता क्योंकि उसके लिए आधार ही नहीं होगा.”
फिर भी, इस सरकार का लगभग हर फैसला सच से बचने और गोपनीयता से ढका हुआ है. गोपनीयता तानाशाह की निशानी है. ऐसी स्थिति में राज्य अंधकार और अपारदर्शिता में पीछे चला जाता है, जबकि नागरिकों से उच्च स्तर की पारदर्शिता की मांग की जाती है.
नागरिकों को आधार कार्ड बनवाने होते हैं, निजी जानकारी और रिकॉर्ड सार्वजनिक करने होते हैं, जबकि वीआईपी लोग दूर और अनजाने हो जाते हैं. वीआईपी किसी रहस्यमय देवता की तरह हो जाते हैं—अचानक प्रकट होकर शब्दों के बिजली के बाण छोड़ते हैं और फिर पहुंच से बाहर धुंध में गुम हो जाते हैं.
महामारी के दौरान अचानक पीएम केयर्स फंड बना दिया गया. आज तक यह पता नहीं चला कि इसके दानदाता कौन थे. जब आरटीआई के जरिए जानकारी मांगी गई, तो यह कहकर रोका गया कि यह फंड एक निजी निकाय है. कब से पीएम का फंड, जिसे सरकार ने ही बनाया हो, “निजी” हो गया?
पिछले साल चुनावी बॉन्ड स्कीम के दानदाताओं का खुलासा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के दखल की ज़रूरत पड़ी. महामारी के चार साल बाद पता चला कि कोविड से मरने वालों की संख्या लाखों में कम गिनी गई थी.
2020 में अचानक घोषित किए गए लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों के पलायन में कितने लोग मरे—इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है. सारी सार्वजनिक परिवहन सेवाएं बंद कर दी गईं और मज़दूर पैदल ही दूर-दराज़ घरों की ओर निकल पड़े, कई थकान और हादसों में मर गए. कितने मरे? हम नहीं जानते.
मानसून सत्र में संविधान (130वां संशोधन विधेयक) अचानक पेश कर दिया गया, बिना हाउस को पढ़ने का समय दिए. परंपरा है कि विधेयक पेश करने से 48 घंटे पहले संसद को नोटिस दिया जाता है.
जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 का हटाया जाना भी गुप्त तरीके से किया गया, खुले विमर्श से नहीं. जम्मू-कश्मीर सरकार को अंधेरे में रखा गया. कोई जानकारी नहीं दी गई कि एक पूरे राज्य को रातों-रात केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाएगा. पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा कि उन्हें यह फैसला सिर्फ 24 घंटे पहले बताया गया था.
इसी साल चुनाव आयोग ने मतदाता सूची के लिए विशेष गहन संशोधन (SIR) अभ्यास गुपचुप और एकतरफा ढंग से घोषित कर दिया. चुनाव प्रक्रिया के मुख्य हितधारकों—यानी राजनीतिक दलों से कोई बातचीत नहीं की गई.
ऑपरेशन सिंदूर में मई में दोनों ओर से हुए विमान नुकसान की जानकारी लीक और अंतरराष्ट्रीय मीडिया इंटरव्यू के ज़रिए आई. न तो नागरिकों को विश्वास में लिया गया, न संसद को जानकारी दी गई. सच की अनुपस्थिति में अफवाहें और अटकलें फैलती रहीं.
मोदी सरकार अपनी गोपनीयता को एक प्रदर्शन की तरह इस्तेमाल करती है—जेम्स बॉन्ड-स्टाइल दिखावे की तरह, या जैसे कोई रहस्यमयी ज़ीउस चमकते बिजली के बाण फेंकता हो.
मोदी शासन की यह गोपनीय संस्कृति दर्शाती है कि एक लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार उन्हीं लोगों के प्रति जवाबदेही निभाने से इनकार कर रही है जिन्होंने उसे सारी ताकत दी.
मोदी की यूनिवर्सिटी की डिग्री पर विवाद “एलीटिस्ट डिग्री” या प्रतिष्ठित संस्थानों के प्रति किसी वर्गीय जुनून का मुद्दा नहीं है. यह मांग है कि सरकारें, उनके उच्च पदाधिकारी और सभी जनप्रतिनिधि हमारे राष्ट्रीय आदर्श वाक्य का सम्मान करें—सत्यमेव जयते.
लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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