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Thursday, 25 April, 2024
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अश्विनी वैष्णव के इस्तीफे को एक तरफ रख दें, अभी मोदी को टीम के पुनर्गठन और गवरनेंस को रिबूट करने की जरूरत

क्या पीएम मोदी चाहते हैं कि उनकी सरकार को तदर्थवाद द्वारा परिभाषित किया जाए क्योंकि वह 2024 में एक चुनौतीपूर्ण लड़ाई की तरह दिखने की तैयारी कर रहे हैं?

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बालासोर के भीषण ट्रेन हदसे के बाद, विपक्षी पार्टियां रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव का इस्तीफा मांग रही है. उनका कहना है कि पहले लाल बहादुर शास्त्री, माधवराव सिंधिया और नीतीश कुमार ऐसे हादसों के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे चुके हैं. और इस आधार पर वैष्णव को भी इस्तीफा दे देना चाहिए.

इस सिलसिले में आपको 1997 का एक वाक्या याद दिलाता हूं. जुलाई 1997 में फरीदाबाद में कर्नाटक एक्सप्रेस और हिमसागर एक्सप्रेस की टक्कर में 13 लोगों की मौत हो गई थी. रामविलास पासवान तब रेल मंत्री थे.

हादसे के तीन दिन बाद पासवान नई दिल्ली रेलवे स्टेशन गए और सफाई अभियान चलाया. उन्हें झाड़ू लगाते और प्लेटफार्म की सफाई करते देखा गया. जब किसी ने उनसे पूछा कि क्या वह दुर्घटना की जवाबदेही लेंगे और इस्तीफा दे देंगे, तो पासवान ने कहा, “अगर कोई ड्राइवर अपनी ट्रेन को दूसरी ट्रेन से टकराता है, तो यह शायद ही रेल मंत्री की गलती है. क्या कार दुर्घटना के बाद मुख्यमंत्री इस्तीफा दे देते हैं?”

छब्बीस साल बाद आज अश्विनी वैष्णव भी यही सोच रहे होंगे. और शायद पीएम मोदी भी. प्रधानमंत्री के पास अभी क्या विकल्प है? निश्चित रूप से, सामान्य रूप से जांची-परखी रणनीति है – इसे बेशर्मी से करें. जैसा कि आप जानते हैं, जिस क्षण विपक्ष कुछ मांग करता है, मामला बंद हो जाता है. कोई कार्रवाई नहीं होगी.

वैष्णव के इस्तीफे के मुद्दे को एक तरफ रखते हुए, पीएम मोदी को अपनी टीम में सुधार करने और अगले चुनाव से बमुश्किल एक साल पहले शासन को फिर से शुरू करने की आवश्यकता है. लेकिन इससे पहले कि मैं उस पर जाऊं, आइए विपक्ष के तर्क की खूबियों को देखें कि कैसे शास्त्री और नीतीश कुमार ने नैतिक आधार पर इस्तीफा दिया और इसलिए अश्विनी वैष्णव को भी ऐसा ही करना चाहिए.

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लाल बहादुर शास्त्री ने नवंबर 1956 में तमिलनाडु के अरियालुर में हुए रेल हादसे के बाद इस्तीफा दे दिया था, जिसमें 144 लोगों की मौत हो गई थी. जैसा कि संदीप शास्त्री ने अपनी पुस्तक, लाल बहादुर शास्त्री: पॉलिटिक्स एंड बियॉन्ड में लिखा है, तत्कालीन रेल मंत्री ने अगस्त 1956 में भी इस्तीफे की पेशकश की थी, जब आंध्र प्रदेश के महबूबनगर में एक ट्रेन दुर्घटना में 112 लोग मारे गए थे.

संदीप शास्त्री ने नेहरू को अपनी दुविधा के बारे में लोकसभा में कहते हुए उद्धृत किया कि उनके मन में शास्त्री के लिए सर्वोच्च सम्मान था लेकिन “संवैधानिक औचित्य के व्यापक दृष्टिकोण से कि हमें इसमें एक उदाहरण स्थापित करना चाहिए और किसी भी व्यक्ति को यह नहीं सोचना चाहिए कि चाहे कुछ भी हो जाए, हम इससे प्रभावित हुए बिना आगे बढ़ते रहेंगे. यह कहते हुए नेहरू ने बाद में शास्त्री का इस्तीफा स्वीकार कर लिया.”

इसमें कहने की जरूरत नहीं कि 1957 में लोकसभा चुनाव से ठीक तीन महीने पहले इस्तीफे ने नेहरू और शास्त्री दोनों को नैतिकता के ऊंचे मानदंड स्थापित किया. चुनावों के बाद, शास्त्री नेहरू के मंत्रिमंडल में परिवहन और संचार मंत्री के रूप में वापस आ गए. तो, हां, शास्त्री ने अपने उत्तराधिकारियों के लिए मानदंड जरूर स्थापित, लेकिन यह राजनीतिक रूप से बहुत सुविधाजनक भी हुआ.

माधवराव सिंधिया की अगर बात करें तो उन्होंने केरल के कोल्लम में एक पुल के पानी में गिरने के बाद जुलाई 1988 में 100 से अधिक लोगों की मौत के बाद इस्तीफे की पेशकश की थी. हालांकि, सिंधिया का तत्कालीन पीएम राजीव गांधी ने इस्तीफा स्वीकार नहीं किया था. अगस्त 1999 में गैसल ट्रेन दुर्घटना के बाद नीतीश कुमार ने अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन नौ सप्ताह के भीतर, वे भूतल परिवहन मंत्री के रूप में वापस आ गए थे.

दिसंबर 2000 में एक ट्रेन हादसे के बाद, तत्कालीन रेल मंत्री ममता बनर्जी ने भी अपने इस्तीफे की पेशकश की, लेकिन वाजपेयी द्वारा इसे अस्वीकार करने के बाद वह पद पर बनी रहीं. लेकिन आज वो खुद अश्विनी वैष्णव से इस्तीफे की मांग कर रही हैं.

इसकी सबसे बड़ी बात यह है कि अगर बीजेपी चाह जाए तो वो असंख्य तर्कों के साथ अश्विनी वैष्णव का बचाव के बारे में सोच सकती हैं. नेहरू ने जिसे “संवैधानिक औचित्य” और जवाबदेही के रूप में वर्णित किया, उसका पालन करने का पीएम मोदी का अपना तरीका हो सकता है. अगस्त 2017 में एक के बाद एक ट्रेन के पटरी से उतरने के बाद पूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु के इस्तीफे की पेशकश याद है? पीएम ने इसे लगभग 10 दिनों तक होल्ड पर रखा, केवल उन्हें वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में स्थानांतरित करने के लिए.


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पीएम मोदी को कार्रवाई करने की जरूरत क्यों है?

अब मैं मुख्य मुद्दे पर आता हूं, क्या पीएम मोदी चाहते हैं कि उनकी सरकार को तदर्थवाद द्वारा परिभाषित किया जाए क्योंकि वह 2024 में एक चुनौतीपूर्ण लड़ाई की तरह दिखने की तैयारी कर रहे हैं? वैष्णव निश्चित रूप से एक सक्षम प्रशासक हैं. लेकिन उनके पोर्टफोलियो-रेलवे, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी को देखें! इसलिए, यहां एक मल्टी-टास्कर है, जिससे इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग, मरम्मत और रेल पटरियों का निर्माण, वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेनों का निर्माण, भारत को सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने, सोशल मीडिया सामग्री को नियंत्रित करने की उम्मीद की जाती है.

चलिए एक और मल्टी टास्कर की बात करते हैं. स्थानीय निकायों से लेकर विधानसभा और लोकसभा तक हर चुनाव के लिए बीजेपी का मुख्य रणनीतिकार होना अपने आप में एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है. लेकिन अमित शाह को गृह मंत्रालय और फिर सहकारिता मंत्रालय भी संभालना होगा! परिणाम? नजर डालते हैं सिर्फ रविवार के घटनाक्रम पर. पिछले सप्ताह मणिपुर में चार दिन के प्रवास के बाद, वह ट्विटर पर लोगों से इम्फाल-दीमापुर राजमार्ग पर अवरोध हटाने और फिर एक अस्पताल के रजत जयंती समारोह कार्यक्रम में भाग लेने के लिए कोच्चि के लिए रवाना होने और ईसाई पादरियों से मिलने की अपील कर रहे थे. पिछली शाम भी, वह हमेशा की तरह उन पहलवानों से मिल रहे थे, जो अपनी पार्टी के सहयोगी, बृजभूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी के लिए आंदोलन कर रहे हैं, और जिन्हें दिल्ली पुलिस ने पूरी सार्वजनिक चकाचौंध में ‘धोखा’ दिया निर्विवाद राजनीतिक और प्रशासनिक कौशल वाले 24×7 नेता, शाह की दैनिक यात्रा आपकी सांसें रोक सकती है.

वह जरूरत से ज्यादा व्यस्त हैं. पांच साल हो गए हैं जब जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने और चुनाव कराने के वादे के साथ केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया था. एक पखवाड़े पहले चुनिंदा मीडिया हस्तियों के साथ एक भोज में, जब जम्मू-कश्मीर में चुनाव के बारे में सवाल किया गया तो, शाह ने कहा कि यह जम्मू-कश्मीर के बाहर रहने वाले दो-तीन लाख लोगों द्वारा मतदान के मुद्दे को सुलझाए जाने के बाद किया जाएगा. उस बैठक में मौजूद लोगों ने मुझे बताया कि यह वही जवाब था जो उन्होंने पिछले साल अक्टूबर में यानी सात महीने पहले कश्मीर से लौटने के बाद दूसरी बातचीत में दिया था. इस बीच, द इंडियन एक्सप्रेस ने बताया कि इस साल राजौरी और पुंछ के सिर्फ दो जिलों में 10 सैनिक और सात नागरिक मारे गए थे. 2015 में प्रधान मंत्री के निवास पर हस्ताक्षर किए गए नगा फ्रेमवर्क समझौते को अभी तक शांति समझौते में तब्दील नहीं किया जा सका है. संसद ने दिसंबर 2019 में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को अपनी मंजूरी दे दी थी लेकिन नियमों को अधिसूचित किया जाना बाकी है. और ये उनकी पार्टी और सरकार में अधिकांश समस्याओं के एकल-खिड़की समाधान के रूप में उनकी क्षमता में किए जाने वाले कार्यों का एक अंश मात्र हैं.

‘स्किल इंडिया’ मोदी सरकार का एक बड़ा नारा हुआ करता था. देखिए कितनी बार यह विभाग हाथों-हाथ बदला है – सर्बानंद सोनोवाल, राजीव प्रताप रूडी, धर्मेंद्र प्रधान, महेंद्र नाथ पांडे और अब वापस प्रधान के पास. यह और बात है कि पीएम मोदी अब स्किल इंडिया की बात कम ही करते हैं. आखिरी बार देखा गया, एक रोज़गार मेले में जब लाखों लोग कतार में इंतजार कर रहे थे तब वह 71,000 नियुक्ति पत्र वितरित कर रहे थे – जिसमें केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की नौकरियां शामिल थीं .

पिछले नौ वर्षों में चार शिक्षा (पहले मानव संसाधन विकास) मंत्री रहे हैं- स्मृति ईरानी, प्रकाश जावड़ेकर, रमेश पोखरियाल और धर्मेंद्र प्रधान. ग्रामीण विकास मंत्रालय में नौ साल में पांच मंत्री रह चुके हैं. श्रम और रोजगार मंत्रालय चार बार परिवर्तित हो चुके हैं. फिर हमारे पास मंत्रालय चलाने वाले लोग हैं जो नई पहलों के मामले में लगभग निष्क्रिय पड़े हैं – महिला एवं बाल विकास की स्मृति ईरानी, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों के नारायण राणे, भारी उद्योग के महेंद्र नाथ पांडे, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के पशुपति कुमार पारस. क्या आपने अभी तक इन मंत्रियों के बारे में सुना पढ़ा है कि वो क्या कर रहे हैं सिर्फ इस बात को छोड़कर कि वो पीएमओ और मोदी के ट्वीट को री-ट्वीट करने के अलावा.

और मैंने यहां एक गलती कर दी… मैं लगभग एक प्रमुख नाम को याद करना बिलकुल भूल ही गया – नरेंद्र सिंह तोमर, कृषि और किसान कल्याण मंत्री, वह मंत्रालय जिसे 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के पीएम मोदी के वादे को पूरा करना था. आखिरी बार मैंने उन्हें 2021 में देखा और सुना था जब वह केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर विरोध कर रहे किसानों के एक प्रतिनिधिमंडल से मिल रहे थे.

मोदी कैबिनेट तेजी से पुरुषों और महिलाओं की एक सभा की तरह दिख रहा है, जो या तो जिम्मेदारियों और अपेक्षाओं के नीचे दबे हुए हैं या उनके पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं है. पूर्व वाले लीक से हटकर विचारों और समाधानों के साथ आने के लिए बहुत अधिक फंस गए हैं, जबकि बाद वाले वैसे भी किसी भी अपेक्षाओं के बोझ तले दबे नहीं हैं. शायद यही समय है जब प्रधानमंत्री ने अपनी टीम को नया रूप दिया और अपने शासन को फिर से शुरू किया.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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