scorecardresearch
Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतजाति की समस्या हल किए बिना धार्मिक कट्टरता खत्म नहीं होगी, हैदराबाद में दलित की मौत इसका उदाहरण

जाति की समस्या हल किए बिना धार्मिक कट्टरता खत्म नहीं होगी, हैदराबाद में दलित की मौत इसका उदाहरण

यदि इस देश को धार्मिक कट्टरता से छुटकारा पाना है और भारतीय जनमानस के सामाजिक समरसता एवं सामंजस्य को बचाना है तो सभी धर्मों में व्याप्त जातिवाद को समाप्त करते हुए सामाजिक न्याय को पूरी तरह स्थापित करना ही एक मात्र विकल्प दिखाई दे रहा है.

Text Size:

अभी पिछले दिनों हैदराबाद जैसे भारत के बड़े शहर में सय्यद जाति की लड़की से शादी करने के कारण एक हिन्दू दलित युवक की खुलेआम हत्या कर दी गई, ऐसा बताया जा रहा है कि युवक धर्म परिवर्तन करने को भी तैयार था किंतु कन्या पक्ष को उसके मुसलमान हो जाने के बाद भी उसकी दलित जाति से होना कुबूल नही था. इस प्रकरण ने जहां एक जोर भारतीय समाज की सबसे बड़ी समस्या जातिवाद जो बिना किसी धार्मिक भेदभाव के लगभग सभी धर्मो में व्याप्त है को पुनः बहस के केंद्र में ला दिया, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग धर्म के एंगल को अधिक महत्व देकर हिन्दू-मुस्लिम कर सांप्रदायिकता को हवा देने का काम कर रहें हैं.

मजहबी सांप्रदायिकता कोई नई बात नहीं है. समय-समय पर कुछ शासक वर्गीय लोगों द्वार अपने सत्ता एवं वर्चस्व के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए धर्म को एक साधन के रूप में प्रयोग किया जाता रहा. ये लोग मजहब के नाम पर आम-जन की भावनाओ को भड़का कर उनके बीच वैमनष्य पैदा कर यहां तक कि दंगे-फसाद प्रायोजित कर आमजन के जान एवं संपति के नुकसान पर अपने सत्ता की कुर्सी रखने के आदी रहे हैं. इनके इस धार्मिक कट्टरता की राजनीति का परिणाम देश के बटवारे की विभीषिका के रूप में हम पहले भी देख चुके हैं. इन सब के बावजूद भी धर्म भारतीय समाज की सुंदरता रहा है, समस्या नहीं. पूरी दुनिया के किसी भी देश में इतने धर्म, सम्प्रदाय, मत, आस्थाएं एक साथ समान रूप से मान्य और स्वीकार रूप में नही पाए जाते हैं.

आज भी आये दिन नित नए मत सम्प्रदाय और आस्थाएं जन्म लेती रहती हैं. धर्म को लेकर भारतीय समाज सदैव सहिष्णु रहा है. सामान्य-जन ने सदैव अपने धर्म, मत, सम्प्रदाय,आस्था के विपरीत वाले धर्म, मत आस्था एवं सम्प्रदाय का सम्मान किया है और करते हैं, यह मनोभाव भारतीय समाज की एक बिल्कुल सामान्य सी बात है. सामान्य रूप से एक धर्म के मतावलंबी का दूसरे धर्म के मतावलंबी के धार्मिक प्रतिष्ठानों पर आना जाना, तीज त्यौहारों में शामिल होना, शादी विवाह की रस्मो में हिस्सा लेना एक सामान्य प्रक्रिया रही है.

भारतीय जनमानस आज भी किसी भी प्रकार की राजनीति से प्रभावित हुए बिना एक दूसरे से अपना तारतम्य बनाए हुए है.
रही बात भारतीय समाज की मूल समस्या, जातिवाद की, जो कालांतर से लेकर आज के तथाकथित सभ्य समाज तक लगभग ज्यों की त्यों बानी हुई है. आस-पास के दैनिक अनुभवों एवं नित्य नए जातीय भेदभाव के खबरों से यह बात साबित होती है कि आज भी भारतीय समाज इससे उबर नहीं पाया है. इंसान धर्म बदल लेता है लेकिन जाति उसका वहां भी पीछा नहीं छोड़ती है. एक मेहतर/स्वच्छकार हिन्दू से मुसलमान हो जाता है, जहां उसको एक अच्छा नाम हलालखोर (हलाल की कमाई खाने वाला) मिल जाता है लेकिन न तो उसे उसकी जातिगत काम (साफ सफाई, मल मूत्र साफ करना, सर पर मैला ढोना आदि) से छुटकारा मिलता है (हालांकि इस इस स्थिति में कुछ सुधार भी हुआ है लेकिन मंज़िल अभी भी बहुत दूर है) ना ही जातीय उत्पीड़न से छुटकारा मिलता है यहां भी उसे नीच ही समझकर व्यवहार किया जाता है उनको अपने अल्लाह को याद करने के लिए अलग मस्जिद तक बनानी पड़ जाती है और प्रमुख मस्जिदों में अगर जगह भी मिलती है तो पिछली कतार में ही.

मरने के बाद भी जाति उसका पीछा नही छोड़ती और दफ़न होने में भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है जाति आधारित कब्रिस्ताने इसका सबूत हैं. लगभग यही हाल सिख और ईसाई धर्मों में जाने के बाद भी होता है. उसका नाम ‘दिनेश’ से ‘दानिश’ या ‘डेविड’ या ‘दसमेश’ हो जाता है और कभी-कभी तो ये भी नसीब नहीं होता है और वो ‘घुरऊ’ से ‘झमेली’ या ‘फेकन’ ही रह जाता है. लेकिन उनका उत्पीड़न खत्म नहीं होता और समस्याएं ज्यों कि त्यों बनी रहती हैं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें: भारतीय मुस्लिम समान नागरिक संहिता को बुरा नहीं मानते, केवल अशराफ को दिक्कत है


तारिक़ गुज्जर ने ठीक ही लिखा है…

कितने गौतम आये
तो कितने भगत कबीर
कितने नानक देख लिए
तो कितने मियाँ मीर

कितने कलिमे पढ़ लिए
लिए कितने मज़हब बदल
कैसे-कैसे रक्त से
ली अपनी जाति रंगा

चारो मौसम हमारी घात में
हमारी ही टोह में हर रुत
हमने ईसा के घर ली पनाह
पर, फिर भी रहें कपूत

हम शूद्र दलित हरिजन
हम केवट वाल्मीकि भील
यह जग तमाशा झूठ सा
हम सच समझकर खेले खेल

हमारा अम्बर से भाई-पट्टीदारी का झगड़ा
हमारी ही सौतन यार ज़मीन
हम इसी के बीच हैं भटकते
हम कमीं यार कमीन

(मूल पंजाबी से हिंदी में मुहम्मद इरफान उर्फी द्वारा अनुवादित है)

मतलब बिल्कुल साफ है कि धर्म समस्या नहीं बल्कि जातिवाद है. इसीलिए जातिवाद समस्या की गंभीरता को देखते हुए जातिवाद से पीड़ित समुदाय को जैसे ही अवसर मिला उसने इस सामाजिक बुराई के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया. जिसमें बहुत से लोगों ने अपने जान माल और समय की महती क़ुरबानी देकर जातिवाद की कमर तोड़ने का प्रयास किया. जिसमें कबीर, नानक, ज्योतिबा फुले(1827-1890), भीमराव आम्बेडकर (1891-1956) और आसिम बिहारी (1890-1953) के नाम प्रमुख हैं.

वंचित जातियों का धर्म परिवर्तन जातिवाद के विरुद्ध लड़ी जा रही लड़ाई का हिस्सा था, उसने अत्याचारी शासक के धर्म को छोड़कर उसके विरुद्ध अपने विरोध और प्रतिरोध को मज़बूती प्रदान करते हुए जाति उन्मूलन की लड़ाई को आगे बढ़ाया. इस प्रक्रिया में कुछ ने तो पूरा का पूरा धर्म ही बदल लिया, कुछ ने धर्म बदलने के साथ-साथ अपनी सभ्यता संस्कृति को बचाये रखा और कुछ ने अपने पुराने धर्म में रहते हुए नय धर्म की सभ्यता संस्कृति को अपना लिया. लेकिन आज भी यह एक कड़वी सच्चाई है कि जाति व्यवस्था से पीड़ित लोगों ने जातीय उत्पीड़न से छुटकारा हासिल करने के लिए धर्म परिवर्तन कर सभी धर्मों को अपनाया लेकिन किसी भी धर्म ने इनको नहीं अपनाया.

ऐसा देखने में आता है कि अभी तक पूरी तरह इस भारतीय समाज की सबसे गंभीर और बुरी समस्या का पूर्ण निराकरण नहीं हो पाया है, जहां एक ओर हिन्दू समाज में इस ओर कुछ प्रगति ज़रूर हुई है लेकिन वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समाज में इस मामले में जड़ता ही दिखती है. इस प्रकार भारतीय समाज के जाति उन्मूलन का लक्ष्य पूर्ण रूपेण हासिल नहीं हो पाया है. लेकिन एक बड़ी अजीब विडम्बना है कि जाति उन्मूलन पर बात न करके धर्म को सबसे बड़ी समस्या बताकर आमजन को इसी में उलझाकर रखा जा रहा है.

यदि इस देश को धार्मिक कट्टरता से छुटकारा पाना है और भारतीय जनमानस के सामाजिक समरसता एवं सामंजस्य को बचाना है तो सभी धर्मों में व्याप्त जातिवाद को समाप्त करते हुए सामाजिक न्याय को पूरी तरह स्थापित करना ही एक मात्र विकल्प दिखाई दे रहा है. इसीलिए यह जरूरी हो जाता है कि सभी धर्मों के वंचित और पीड़ित समाज को जो देश की कुल आबादी का लगभग 85 प्रतिशत है अपने अपने धर्म और समाज में व्याप्त नस्लवाद एवं जातिवाद को पुर्णरूपेण समाप्त करने के लिए सामाजिक न्याय के संघर्ष को तेज गति प्रदान करते हुए सांप्रदायिक लोगों द्वारा ऐसे विमर्श बनाने के कुत्सित प्रयासों के विरोध में कमर कसके तैयार हो जाना चाहिए.

(लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक है)


यह भी पढ़ें: अल्पसंख्यक दिवस पर पसमांदा मुस्लिमों के अधिकारों का सवाल क्यों जरूरी


 

share & View comments