इससे बड़ी दूसरी विडंबना शायद ही कोई हो सकती है. वक़्फ़ (संशोधन) बिल 2025 पर संसद में बहस के दौरान सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने अचानक बड़े शोर के साथ दावा किया कि उसका भगवा दिल बेचारे गरीब मुसलमानों के लिए खून के आंसू रो रहा है.
क्या सचमुच?
लोकसभा में इस पार्टी का एक भी सांसद नहीं है, और इसने कभी मुस्लिम महिलाओं को मुख्यधारा की राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया. चुनाव में यह पार्टी मुसलमानों को टिकट नहीं देती है, न ही यह दावा कर सकती है कि उसमें कोई बड़ा मुसलमान नेता है. ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ माने जाने वाले राज्य गुजरात में, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य है, इसने पिछले दो दशकों से किसी मुसलमान को विधानसभा चुनाव में अपना उम्मीदवार नहीं बनाया. गुजरात में बीजेपी ने अंतिम बार 1998 में किसी मुस्लिम को विधानसभा चुनाव के लिए टिकट दिया था.
फिर भी यह पार्टी यह दावा करने की हिम्मत करती है कि संसद में वक़्फ़ (संशोधन) बिल को जबरन पास करवाकर वह मुसलमानों का ‘कल्याण’ करने की कोशिश कर रही है.
अनुच्छेद 370 को रद्द करना, तीन तलाक को अपराध घोषित करना, या नागरिकता (संशोधन) अधिनियम-2019 (सीएए) को पास करवाना मुसलमानों से जुड़े ऐसे मसले हैं, जो बीजेपी को जितना उत्साहित करते हैं उतना कोई और मसला नहीं करता. वास्तव में, बीजेपी की मुस्लिम केंद्रित जुनूनी और लगभग उन्मादी राजनीति के कारण ही यह सत्ताधारी पार्टी शासन के उन बुनियादी मसलों पर तत्काल उतना ध्यान नहीं दे रही है जितना देना चाहिए.
मुसलमानों पर दबाव
वक़्फ़ बिल पर संसद में 12 घंटे से ज्यादा बहस की गई जबकि मणिपुर पर चर्चा के लिए रात 2 बजे का समय तय किया गया. इससे जाहिर है कि सत्ताधारी पार्टी की सुई मुसलमानों पर ही किस तरह अटक गई है और वह शासन के लिए चुनौती बने असली मुद्दों की किस तरह उपेक्षा कर रही है. संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में 22 महीने से गृहयुद्ध जैसा चल रहा है. मगर उस पर सांसदों को उस समय चर्चा करने को मजबूर किया गया जब पूरा देश सो रहा था.
बीजेपी का यह दावा बिलकुल झूठा और चापलूसी भरा पाखंड है कि वक़्फ़ बिल मुसलमानों के कल्याण के लिए तैयार किया गया है. बल्कि इसका असली मकसद हिंदुत्ववादी वोट बैंक को उत्साहित करना और यह संदेश देना है कि मुसलमानों को एक और सबक सिखा दिया गया है; कि एक ‘सख्त’ सरकार ने अल्पसंख्यकों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है, जबकि पिछली सरकारें उनके ‘तुष्टीकरण’ में लगी रहती थीं.
मुसलमानों पर सरकारी ताकत का इस्तेमाल हिंदुत्ववादी तत्वों में जोश भर देने की गारंटी है. मुसलमानों को अपना वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने वाली पिछली ‘कमजोर’ सरकारों के प्रति भगवा नफरत भगवा सैनिकों में इतना जोश भर देती है कि अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने के लोकतांत्रिक फर्ज की कोई परवाह नहीं की जाती.
खुद को ही धोखे में रखने वाली बीजेपी यह मान बैठी है कि मुसलमानों को निशाना बनाना और उस समुदाय के कुछ तबकों को असुरक्षा तथा दहशत में डालना उसके अपने हित में ही है. लेकिन हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि प्रयागराज में मुसलमानों के घरों को जिस तरह बुलडोजर से गिराया गया उससे इस अदालत की अंतरात्मा तक स्तब्ध हो गई.
वक़्फ़ की जायदाद का मसला काफी पेचीदा है और सुधार की किसी कोशिश में उन सभी को शामिल करने की जरूरत है जिनके हित उससे जुड़े हैं, इसलिए बातचीत तथा सर्व–सहमति पर आधारित कार्रवाई की जानी चाहिए. वक़्फ़ बोर्डों को सरकार के कारिंदों के अधीन डालना सरकार की सत्ता का भारी विस्तार ही माना जाएगा और इसे उस अनुच्छेद 26 का घोर उल्लंघन भी माना जाएगा, जो नागरिकों के इस अधिकार की रक्षा करता है कि वे अपने धार्मिक मामलों की अपने हिसाब से देखभाल कर सकते हैं. इसलिए वक़्फ़ संशोधन बिल पूरी तरह असंवैधानिक है.
जाने–माने वकीलों ने भी ध्यान दिलाया है कि वक़्फ़ बोर्डों का पहले से ही सख्ती से नियमन हो रहा है, और इस नए बिल ने उन पर सरकारी शिकंजा और कस दिया है. बीजेपी के तेवर यह संकेत देते हैं कि मुस्लिम समुदाय और उसके मौलाना सार्वजनिक संपत्तियों पर किसी तरह से कब्जा करने और उन्हें तुरंत वक़्फ़ में शामिल करने पर आमादा हैं. यह बात सच्चाई से काफी दूर है. अब यह संदेश दिया जा रहा है कि हिंदुत्व के हथौड़े ने मुस्लिम संस्थाओं पर कड़ी मार की है, और यह संघ परिवार के लिए जश्न मनाने की बात है.
इस्लाम से नफरत और सौगात-ए-मोदी
मोदी सरकार नागरिकों की संप्रभुता का कतई सम्मान नहीं करती. वह हमें हुक्म देना चाहती है कि हम किसकी पूजा करें, किसे पसंद करें, क्या खाएं, क्या पहनें, और क्या पढ़ें और क्या लिखें. हिंदुत्ववादी सरकार व्यक्ति की स्वाधीनताओं को खत्म करने पर आमादा है. वक़्फ़ बिल ने धर्म पालन के व्यक्तिगत अधिकार, और अनुच्छेद 25-28 के तहत अपना धर्म चुनने की व्यक्ति की आजादी को खत्म कर दिया है. सरकार को वक़्फ़ बोर्डों में हस्तक्षेप करने का उसी तरह अधिकार अब मिल गया है, जिस तरह वह खानपान, शादी–विवाह और पोशाक आदि की लोगों की पसंद में दखल दे रही है.
मोदी के नेतृत्व वाली सरकार मुसलमानों के मामले में जिस तरह दोमुंही बातें कर रही है वह शर्मनाक, शातिराना और क्रूर है. सरकार के आला लोग ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसे खोखले नारे लगाते रहते हैं, जबकि बीजेपी लगातार ऐसी नीतियां चलाती रही है जिनका मकसद मुसलमानों के साथ ‘पालतू’ समुदाय के रूप में व्यवहार करना और उन पर दादागीरी करना, उन्हें हिंदुत्व के बुलडोजर के खौफ में रखना होता है. भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू–कश्मीर का दर्जा बड़ी क्रूरता के साथ घटाना इस शातिराना हमले का ही एक उदाहरण है.
बीजेपी ईद के मौके ‘सौगात–ए–मोदी’ जैसे दिखावे के साथ मिठाई के डिब्बे बांटती है, जबकि उसकी सरकारें ईद के साथ मनाई जा रही नवरात्रि के दौरान ‘मीट’ की दुकानें बंद करवाती है. उत्तर प्रदेश में सरकारी अधिकारियों ने निजी मकानों की छतों और नुक्कड़ों पर उन्हें नमाज पढ़ने से रोकने की धमकी तक दी. क्या कोई सरकार ऐसी पाबंदियां गणेश चतुर्थी पर लागू करने की हिम्मत कर सकती है? इस सबका मकसद सिर्फ हिंदुत्ववाद का वर्चस्व जताने के लिए राज्य की शक्तियों का इस्तेमाल करना और मुसलमानों के रहन–सहन के हर मामले में दखल देना है. सांप्रदायिकता के शर्मनाक एजेंडा को लागू करने के लिए राज्य की ताकत को औज़ार बनाया जा रहा है.
वक़्फ़ बिल पर जब संसद में बहस चल रही थी, उसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पारस्परिक टैरिफ़ों की एकतरफा घोषणा करते हुए भारत द्वारा किए जाने वाले निर्यातों पर 26 फीसदी की टैरिफ़ लगा दी. ऑल इंडिया तृणमूल काँग्रेस (टीएमसी) जैसे विपक्षी दल डुप्लीकेट ‘एपिक’ कार्ड पर बहस की मांग करते रहे क्योंकि इस तरह का दोहरापन मतदाता सूची की शुद्धता के लिए भीषण खतरा है और इसका मतलब यह होगा कि मतदाता सूचियों में फर्जी नाम भरे जाएंगे.
लेकिन सरकार ने संसद में न तो ट्रंप के टैरिफ़ों पर कोई बयान दिया और न मतदाता सूचियों के मुद्दे पर बहस की इजाजत दी. इसकी जगह बीजेपी ने क्या किया? वक़्फ़ बिल पर देर तक बहस कारवाई जिसमें बीजेपी के सांसद ही एक–के–बाद–एक बोलते रहे और मुसलमानों की निंदा करते रहे. वास्तव में, बीजेपी ने उन वक्ताओं को ही आगे बढ़ाया, जो अपनी जमात को संदेश देने की राजनीति करने में माहिर हैं. मुसलमानों के खिलाफ उन्माद से ग्रस्त एक वक्ता ने तो इस्लाम–विद्वेष के जुनून में मुस्लिम लीग, बंटवारा आदि को लेकर तमाम घिसी–पिटी बातें इस शोरशराबे के साथ रखीं कि उसकी पार्टी वाले भी जबरदस्त उत्तेजित दिखे.
चालू किस्म के सांसद
वक़्फ़ बिल पर बहस कर रहे भाजपाई वक्ताओं ने मुसलमानों के प्रति हिंदू राष्ट्रवादी मुहिम के रवैये के बारे में फ्रांसीसी राजनीतिशास्त्री क्रिस्टोफ जेफरलॉट के अर्थपूर्ण विवरण की याद दिला दी. इस रवैये में दूसरों को कलंकित करने की कोशिश भी शामिल है और होड़ लेने की कोशिश भी. मुसलमानों को एक सांस में कोसते जाने और उन पर हमला करने के उन्माद से ग्रस्त बीजेपी इस्लाम, उसके एकेश्वरवाद, जिहाद को लेकर उसके विचार, और उसके एकमात्र धर्मग्रंथ आदि में ही रहस्यमय तरीके से उलझी हुई नजर आती है.
बीजेपी संसद को चलताऊ ढंग से लेती है. 2014 से 2024 के बीच राज्यसभा से पारित केवल 13 प्रतिशत विधेयकों को संसदीय समितियों को भेजा गया, जबकि लोकसभा में ऐसे केवल 16 फीसदी विधेयकों को स्थायी कमिटी में भेजा गया. प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से अब तक संसद के प्रश्नकाल में कभी भाग नहीं लिया है.
जब मुस्लिम समुदाय से जुड़ा कोई मसला उभरता है तभी बीजेपी अपनी संसदीय ताकत का इस्तेमाल करते हुए शोरशराबे भरी बहस छेड़ देती है.
सरकार इस टैरिफ़ जंग, मणिपुर संकट, मतदाता सूचियों के मसले आदि का कैसे सामना करने जा रही है इस पर संसद को उसने भरोसे में नहीं लिया है. नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रिपोर्ट, जो भारत में अपराधों के बारे में अहम डेटा देती है, 2022 के बाद से जारी नहीं की गई है. हरेक दस साल पर होने वाली जनगणना 2021 के बाद से नहीं कारवाई गई है, और न इसके कोई आसार नजर आते हैं. केंद्र और राज्यों के बीच कई मतभेदों के कारण देश का संघीय ढांचा दबाव में है. इन सबकी ओर से मुंह फेर कर बीजेपी ने ‘मुस्लिम मुस्लिम’ का मंत्रजाप करते हुए अपनी सारी ताकत वक़्फ़ बिल पर लगा दी. मुसलमानों को लेकर बीजेपी का उन्माद शासन को कुप्रभावित कर रहा है.
लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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