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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमततमिलनाडु में BJP के लिए बुरी खबर है पलानीस्वामी के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक, पर इससे अवसर भी खुलते हैं

तमिलनाडु में BJP के लिए बुरी खबर है पलानीस्वामी के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक, पर इससे अवसर भी खुलते हैं

हालांकि ओपीएस भाजपा की ओर बड़े उत्साह से हाथ बढ़ाते रहे हैं लेकिन एआइडीएमके के आंतरिक झगड़े में भाजपा अभी किसी का पक्ष लेने के मूड में नहीं दिखती है.

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तमिलनाडु का मुख्य विपक्षी दल एआईडीएमके अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में टूटने का कगार पर दिख रहा है. लगता है कि पूर्व मुख्यमंत्री ई.के. पलानीस्वामी (ईपीएस) अपने पूर्व उप-मुख्यमंत्री ओ. पन्नीरसेल्वम (ओपीएस) को किनारे करके दल की कमान संभालने वाले हैं. ओपीएस इसे कानूनी दखल देकर कुछ समय के लिए टाल तो सकते हैं लेकिन यह उलटफेर तय लग रहा है. अब ओपीएस ईपीएस को दल का नेता मानें या अपना अलग रास्ता लें.

जो भी हो, एआईडीएमके का संकट जल्द खत्म नहीं होने वाला है. एम.जी. रामचंद्रन (एमजीआर) ने जब डीएमके से अलग होकर 17 अक्टूबर 1972 को अण्णा द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम (एआईडीएमके) की स्थापना की थी तब वे एक लोकप्रिय फिल्म अभिनेता थे. उस समय मुख्यमंत्री और डीएमके अध्यक्ष एम. करुणानिधि ने जब एमजीआर को पार्टी से निलंबित किया था तब उदूमलपेट में एक युवक ने आत्मदाह कर लिया था.

इसके 50 साल बाद आज ईपीएस जब ओपीएस को अलग करने की कोशिश में है तब उनके लिए दो बूंद आंसू तक बहाने वाला कोई नहीं है. ओपीएस के सामने आज दो विकल्प हैं— नयी पार्टी बनाएं, जैसा कि एमजीआर ने किया था या संघर्ष करके पार्टी पर कब्जा करे, जैसा कि जे. जयललिता ने एमजीआर की विधवा जानकी रामचंद्रन के खिलाफ किया था. गौरतलब है कि 1989 के विधानसभा चुनाव में, जिसके नतीजे ने एआईडीएमके की विरासत की जंग का फैसला कर दिया था, जयललिता गुट ने जानकी पर आरोप लगाया था कि वे करुणानिधि के प्रति नरम हैं. आज ईपीएस गुट ओपीएस पर ऐसे ही आरोप लगा रहा है.

एमजीआर और जयललिता अपनी कोशिशों में इसलिए सफल हो गई थीं क्योंकि दोनों बेहद लोकप्रिय फिल्म कलाकार थे और उनके फैन्स की संख्या विशाल थी. लेकिन ईपीएस या ओपीएस के समर्थकों की संख्या नगण्य है. ज्यादा-से-ज्यादा उन्हें गौंडारों और थेवर्स का नेता माना जाता है. ये दो समुदाय एआईडीएमके के स्तंभ हैं. इसलिए ईपीएस-ओपीएस के बीच वर्चस्व की लड़ाई एआईडीएमके को गंभीर संकट में डाल सकती है. यह पार्टी एक करिश्माई नेता की कमी के कारण परेशान है.


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संतुलन साधती भाजपा

द्रविड़ दल में जारी इस नाटक के बीच इसकी सहयोगी भाजपा फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. ओपीएस तो भाजपा को अपने पक्ष में करने की कोशिशें कर रही है लेकिन भाजपा ईपीएस को नाराज नहीं करना चाहती क्योंकि ऐसा लग रहा है कि वे एआईडीएमके पर कब्जा कर सकते हैं. दिसंबर 2016 में जयललिता के निधन के बाद भाजपा ने ही एआईडीएमके को एकजुट रहने में अहम भूमिका निभाई थी. ओपीएस ने कहा था कि वे केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहने पर ही अगस्त 2016 में अपने गुट का ईपीएस के गुट में विलय करने को राजी हुए थे और सरकार में उप-मुख्यमंत्री बनकर शामिल हुए थे.

ईपीएस के समर्थकों ने 23 जून को जब एआईडीएमके की जनरल काउंसिल की बैठक में ओपीएस को अपमानित किया, उस दिन तमिलनाडु के भाजपा प्रभारी महासचिव सी.टी. रवि और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने ईपीएस और ओपीएस को फोन करके एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के लिए समर्थन मांगा. रवि और अन्नामलाई ने पहले ईपीएस से और उनके बाद ओपीएस से मुलाक़ात की, जिसे इस बात का संकेत माना जा रहा है कि भाजपा एआईडीएमके में ईपीएस के वर्चस्व को स्वीकार करती है. एआईडीएमके में ओपीएस ‘कोऑर्डिनेटर’ हैं और ईपीएस ‘को-कोऑर्डिनेटर’ हैं. पहले, भाजपा के विधायक नायनार नागेंद्रण ने ‘एकल नेतृत्व’ का या ईपीएस गुट के एकल नेतृत्व के विचार का यह कहकर समर्थन किया था कि एआईडीएमके को ऐसे नेता की जरूरत है जो कार्यकुशल हो और ‘दोनों में से ज्यादा योग्य हो’.

जब मुर्मू ने अपना पर्चा भरा, उस मौके पर ओपीएस दिल्ली आए. लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री मोदी या गृहमंत्री अमित शाह से मिलने का समय नहीं मिल पाया. इसे अनादर, और इस बात का संकेत माना गया कि भाजपा चाहती है कि ईपीएस एआईडीएमके के ‘एकल नेता’ के रूप में उभरे, और वह उनके साथ मेल करने की तैयारी कर रही है. हालांकि ओपीएस भाजपा की ओर बड़े उत्साह से हाथ बढ़ाते रहे हैं लेकिन एआईडीएमके के आंतरिक झगड़े में भाजपा अभी किसी का पक्ष लेने के मूड में नहीं दिखती है.

ईपीएस नेता बने तो भाजपा को मुश्किल होगी

ईपीएस जब मुख्यमंत्री थे तब पूरे समय उन्होंने भाजपा नेतृत्व से पूरा सहयोग किया था लेकिन उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता था. विधानसभा चुनाव से महीनों पहले, नवंबर 2020 में उनके नेतृत्व वाली सरकार ने भाजपा को राज्यभर में वेल यात्रा निकालने की इजाजत नहीं दी थी. पिछले साल विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा शशिकला और उनके भतीजे टीटीवी दिनकरन से तालमेल करने के पक्ष में थी. ईपीएस यह नहीं चाहते थे. वास्तव में, शशिकला के प्रति ओपीएस की नरमी भी ईपीएस के साथ संबंध बिगड़ने की एक वजह थी.

विधानसभा चुनाव के बाद, सी.वी. षण्मुगम उन पहले नेताओं में थे जिन्होंने पार्टी की हार के लिए भाजपा को जिम्मेदार बताया था. चुनाव के दो महीने बाद उन्होंने कहा था, ‘भाजपा के साथ गठबंधन ने अल्पसंख्यकों के मतदान को पूरी तरह प्रभावित किया.’ ईपीएस के नेतृत्व वाले एआईडीएमके ने षण्मुगम को मई में राज्यसभा के लिए नामजद किया.

एआईडीएमके के संगठन सचिव, ईपीएस समर्थक सी. पोन्नैयन ने 31 मई को भाजपा पर हमला किया कि वह द्रविड़ पार्टी की कीमत पर अपनी विस्तार करना चाहती है. उन्होंने कहा कि भाजपा का विस्तार एआईडीएमके या तमिलनाडु या द्रविड़ नीतियों के लिए अच्छा नहीं है.

ओपीएस ने पोन्नैयन के बयान से पार्टी को तो अलग कर लिया मगर भाजपा ने जब उनका खंडन करना चाहा तो ईपीएस संगठन सचिव का समर्थन करते दिखे.

एआईडीएमके की जनरल काउंसिल की 23 जून वाली बैठक के एजेंडा में और बातों के अलावा देशभर में कोविड के टीकाकरण कार्यक्रम को लेकर मोदी की निंदा का प्रस्ताव भी शामिल था. इसे ओपीएस के ज़ोर देने पर शामिल किया गया था. लेकिन काउंसिल में ईपीएस के समर्थक हावी थे इसलिए इसे रद्द कर दिया गया. काउंसिल की 11 जुलाई की बैठक के, जो मुख्य रूप से ईपीएस को अंतरिम महासचिव चुनने के लिए बुलाई गई थी, एजेंडा में मोदी का कोई जिक्र नहीं है. ‘द हिंदू’ अखबार ने खबर दी है कि एआईडीएमके का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी पर द्रविड़ पार्टी को कोई टिप्पणी करना की ‘कोई जरूरत नहीं है’.

ईपीएस भी बिदके तब भाजपा क्या करे

ईपीएस गुट हालांकि 2024 के लोकसभा चुनाव तक भाजपा से गठबंधन बनाए रखना चाहता है ताकि उसे मोदी की लोकप्रियता का दक्षिण में फायदा मिले लेकिन वह तमिलनाडु में इस राष्ट्रीय पार्टी की महत्वाकांक्षाएं उसे जरूर परेशानी में डाल सकती हैं.

लोकसभा चुनाव के बाद भी गठबंधन जारी रखने पर शायद ही कोई दांव लगाएगा. एआईडीएमके को डीएमके से कड़ी चुनौती तो मिल ही रही है. डीएमके क्षेत्रवाद और उप-राष्ट्रीयवाद का सहार लेता रहा है और अक्सर केंद्र बनाम तमिलनाडु की बातें उठाता रहा है. कृषि कानून हों या ‘नीट’, ‘जेईई’ या ‘सीयूईटी’, तमाम ऐसे मसलों पर राज्यों से सलाह-मशविरा करने से मोदी सरकार के अपमानजनक इनकार ने उसके क्षेत्रीय सहयोगियों को मुश्किल में डाल दिया है. ईपीएस गुट जिस तरह भाजपा से दूरी बना रहा है उसके कारण एआईडीएमके से भाजपा के रिश्ते निरंतर खराब हो सकते हैं.

जब भी ईपीएस गुट भाजपा से अलग होने का फैसला करता है, भाजपा ओपीएस गुट से रिश्ता जोड़ सकती है और शशिकला और दिनकरन को भी साथ ले सकती है. ईपीएस की तरह अन्नामलाई भी गौंडर हैं और वे पश्चिमी तमिलनाडु में ईपीएस के प्रभाव को कमजोर कर सकते हैं, साथ ही दक्षिणी हिस्से में (ओपीएस और शशिकला के साथ मिलकर) थेवरों को रिझाने की कोशिश कर सकते हैं. इसमें मोदी के प्रशंसकों (जो भले ही कम हों) के अलावा द्रविड़ राजनीति से निराश लोगों को भी जोड़ लें तो तमिलनाडु में भाजपा की संभावनाएं बुरी नहीं दिखेंगी. लेकिन यह तभी होगा जब सब चीजें काल्पनिक परिदृश्य के मुताबिक ही हों. इसके लिए भाजपा को तमिलनाडु में पहले हिंदी पट्टी की उस पार्टी वाली अपनी उस छवि से मुक्त होना पड़ेगा, जिसका मुख्य एजेंडा ‘एकरूपता’ बहाल करना है.

मोदी और शाह प्रतिकूल स्थितियों में भी अपने लिए अवसर बनाने के लिए मशहूर हैं. हम कह सकते हैं कि यह राष्ट्रीय पार्टी तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टी एआईडीएमके द्वारा विपक्ष की जगह खाली करने पर उसे भरने की गुंजाइश देख रही होगी. लेकिन इसके साथ कई अगर-मगर जुड़े हैं. क्या हुआ अगर एक नेता ईपीएस के नेतृत्व में एआईडीएमके फिर से ताकतवर बनकर उभर आता है? क्या हुआ अगर दूसरी द्रविड़ पार्टी—मसलन सीमन की एनटीके उस खाली जगह को भर देती है?
वैसे, फिलहाल तो भाजपा ईपीएस को खुश रखना ही चाहेगी, कम-से-कम 2024 के लोकसभा चुनाव तक तो जरूर.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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