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Thursday, 28 March, 2024
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फडणवीस और शिंदे के दुश्मन तो एक हैं मगर उनकी प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं

कोई घोर आशावादी ही यह उम्मीद कर सकता है कि एमवीए सरकार इस तूफान में से बचकर निकल पाएगी, लेकिन बागी शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे के लिए भी राह आसान नहीं है.

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महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अगर इस्तीफा दे भी दिया तो कितने लोग दुखी होंगे? उनमें बेशक मुंबई की उदारवादी बुद्धिजीवियों की जमात का बड़ा हिस्सा ही शामिल होगा. यह जमात बाल ठाकरे के सैनिकों को जबरन वसूली करने वाला, क्रिकेट मैदान की पिच खोदने वाला, वैलेंटाइन डे पर लाठी चौकीदारी करने वाला, आदि-आदि मानती रही. लेकिन वही उद्धव इस जमात के चहेते बन गए, उन्हें नरमपंथी, शालीन, वन्यजीव प्रेमी मानती है, जो भाजपा और रनौतों और गोस्वामियों को ठोस जवाब दे सकते हैं.

वही जमात अब चाहती है कि शिवसेना के बागी नेता जब मुंबई लौटें तो शिवसैनिक फिर अपने पुराने रंग में आ जाएं. इस जमात के बाद पवार खेमे को शामिल माना जा सकता है. तीन दलों के विरोधाभास भरे गठबंधन महा विकास आघाडी (एमवीए) में यह खेमा सबसे अच्छी स्थिति में है. कांग्रेस में वे ही दुखी होंगे जिनका मंत्री पद चला जाएगा. और भाजपा में भी, दिल्ली में बैठे एक-दो नेता दुखी होंगे जिन्हें देवेंद्र फडणवीस की बढ़ती हैसियत परेशान कर रही होगी.

यह कोई एमवीए सरकार के लिए श्रद्धांजलि-लेख नहीं है. न ही यह लेख पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की सत्ता में वापसी की उम्मीद में लिखा गया है. वैसे, कोई घोर आशावादी ही यह उम्मीद कर सकता है कि एमवीए सरकार इस तूफान में से साबुत बचकर निकल पाएगी.

पिक्चर अभी बाकी है

महाराष्ट्र सरकार के मंत्री और बागी शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे ने सोचा था कि बाल ठाकरे की वैचारिक तथा राजनीतिक विरासत पर दावा करने के लिए शिवसेना कुल 55 में से 36 के आसपास विधायकों को तोड़ लेना काफी होगा. उन्होंने शायद सोचा था कि बगावत करने वाले दो तिहाई विधायकों को अलग गुट के रूप में मान्यता मिल जाएगी और वह भाजपा को सरकार बनाने में मदद कर सकेगा. शिंदे को संविधान की 10वीं अनुसूची को ध्यान से पढ़ना चाहिए था. दल से अलग हुए दो तिहाई विधायकों को अलग गुट की मान्यता नहीं मिल जाती. ये विधायक अगर दूसरे दल में शामिल नहीं होते तो उन्हें अयोग्य ठहराया जा सकता है.

लेकिन बाल ठाकरे की वैचारिक तथा राजनीतिक विरासत के स्वयंभू झंडाबरदार भाजपा को इस विरासत पर कैसे कब्जा करने दे सकते हैं? आखिर, वे अपनी बगावत को हिंदुत्व की विचारधारा पर दावा करने का सच्चा आंदोलन बताते हैं, जिसे उद्धव ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ हाथ मिलाकर कथित रूप से कमजोर कर दिया है. इसलिए, ये बागी अगर भाजपा में शामिल होते हैं तो वे अपना नैतिक दावा, शिवसेना वाली पहचान, उर शिवसैनिकों का समर्थन गंवा देंगे. सेना से अलग होते ही और भाजपा में शामिल होते ही मोलभाव करने की उनकी ताकत कमजोर हो जाएगी. इसलिए विलय वाले विकल्प को फिलहाल तो टालना ही होगा.

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महाराष्ट्र के राजनीतिक हलक़ों में एक इस विकल्प की भी चर्चा हो रही है कि शिंदे समूह निर्दलीय विधायक ओमप्रकाश बाबाराव काडू की प्रहार जनशक्ति पक्ष (पीजेपी) में शामिल हो जाए. काडू एक मंत्री हैं, जो शिंदे के साथ गुवाहाटी में मौजूद हैं. इस विकल्प के साथ दिक्कत यह है कि काडू एक मनमौजी नेता हैं, जो हेमा मालिनी को ‘बंपर पियक्कड़’ कह चुके हैं और केंद्रीय मंत्री रावसाहब दानवे को उनके घर में घुसकर ‘पिटाई करने’ की धमकी दे चुके हैं. जाहिर है, शिंदे और भाजपा काडू के साथ सहयोग करने पर दो बार सोचेंगे, क्योंकि काडू ही पीजेपी चीफ के रूप में केंद्र में रहेंगे.

शिंदे के सामने तीसरा विकल्प यह है कि वे शिवसेना के चुनावचिन्ह पर दावा करने के लिए चुनाव आयोग के दरवाजे पर दस्तक दें. लेकिन चुनाव अगर हमदर्द भी हो तो भी शिंदे को सेना के विधायकों, सांसदों, पार्षदों और पार्टी पदाधिकारियों के बहुमत का समर्थन साबित करना होगा. लेकिन यह बड़ा सवाल है. शिंदे और उनके समर्थक फिलहाल महाराष्ट्र लौटने को तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें शिवसैनिकों के कोप का सामना करना पड़ सकता है और खुद उनके खेमे के विधायक दलबदल करके उद्धव के साथ जा सकते हैं. यह दुविधा ही भाजपा नेताओं की चुप्पी का कारण लगती है.


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शिंदे और फडणवीस के सरोकार अलग-अलग

लेकिन ऐसा नहीं है कि शिंदे की दुविधा उद्धव सरकार की संभावनाओं को मजबूत करती हो. एमवीए नेतृत्व ने 16 बागी विधायकों की सदस्यता रद्द करने की अर्जी विधानसभा उपाध्यक्ष को दे दी है और उसे उम्मीद है कि इसके बाद शिंदे खेमे के करीब 20 विधायक उससे अलग होकर गुवाहाटी के तंबू से बाहर निकल आएंगे. कर्नाटक और मध्य प्रदेश के कांग्रेसी दलबदलुओं के, जो अपना इनाम लेने के लिए फिर चुनाव जीत कर आ गए, शिवसेना के बागियों के लिए संभावनाएं धूमिल हैं. अगर एमवीए के तीनों दल एकजुट रहने का फैसला करते हैं, और शिवसेना बागियों के साथ कोई मुरौवत नहीं करती तो वे सदस्यता गंवाना और उपचुनाव का सामना नहीं करना चाहेंगे.

यही एकमात्र उम्मीद है जो उद्धव से असंतुष्ट समूह उनकी ओर वापस लौटा सकती है. लेकिन उन्हें फडणवीस को कम नहीं आंकना चाहिए. अगर बागी विधायक मुंबई में एमएलसी चुनाव में पार्टी उम्मीदवारों को वोट देने के बाद आसानी से उड़कर सूरत पहुंच सकते हैं, तो जाहिर है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने कानूनी तथा संवैधानिक पेचीदगियों को हल करने का रास्ता जरूर खोज लिया होगा.

वैसे, भाजपा और शिवसेना के बागी खेमे की प्राथमिकताओं में अंतर हो सकता है. फडणवीस सरकार बनाने को चाहे कितने भी उतावले क्यों न हों, उनकी प्राथमिकता उद्धव सरकार को गिरना और राष्ट्रपति शासन लागू करवाना होगी. तब विधानसभा उपाध्यक्ष, चुनाव आयोग, और अदालतें इस खेल में शामिल होंगे अगली सरकार का स्वरूप तय करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा. एमवीए सरकार के गिरने के बाद कांग्रेस -एनसीपी-शिवसेना गठबंधन टूट सकता है.

वह नाकाम साबित हो सकता है. यह तो सर्वविदित ही है कि राहुल गांधी को यह गठबंधन कितना नापसंद था, हालांकि उनकी पार्टी के विधायकों की चुनावी जीत में उनका शायद ही कोई योगदान है. कई विधायक, खासकर कांग्रेस के, तब अपनी निष्ठा बदल सकते हैं, भले ही इससे उनकी सदस्यता जा सकती है और उन्हें उपचुनाव का सामना करना पड़ सकता है.

एक स्थिर सरकार देने के लिए सदन में मजबूत बहुमत जुटाना भाजपा के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं होगी. सबसे बुरा यह हो सकता है कि आकस्मिक चुनाव करवा लिये जाएं. भाजपा को इससे भी कोई उज्र नहीं होगी. टुकड़े हो चुकी शिवसेना, बंटा हुआ विपक्ष, और अपमानित मुख्यमंत्री— भाजपा को भला और क्या चाहिए?

संयोग से, उद्धव भी यही चाहेंगे बशर्ते वे शिंदे के साथ या उन्हें छोड़ बाकी सभी बागियों को वापस अपने खेमे में लौटा लाने का चमत्कार कर डालें. ठाकरे खेमा भी जानता है कि इस तरह के चमत्कार नहीं हुआ करते. सेना प्रमुख भी जानते होंगे कि आधे से ज्यादा बागी विधायक पार्टी में लौट आएं तब भी एमवीए सरकार के दिन गिनती के ही बचेंगे. एमएलसी के पिछले चुनाव में ही साफ हो गया था कि एमवीए में शिवसेना से इतर दूसरे विधायक भी तुनुकमिजाज हैं. कोई सात कांग्रेसी विधायकों ने पार्टी के निर्देशों की अवहेलना की थी.

इसलिए, उद्धव अब अपनी सरकार की नियति को टालने की कोशिश करते हुए शिवसेना पर ही अपनी पकड़ मजबूत बनाने में जुटे हैं. अगर वे बागियों को अलगथलग करने और सेना के दो टुकड़े होने से बचाने में सफल रहते हैं तो आगे की लड़ाई के लिए खुद को तैयार कर सकते हैं तथा कुछ और सहयोगी भी साथ ले सकते हैं. वे हार के लिए तैयार दिख रहे हैं. सरकारी निवास ‘वर्षा’ से उनका अपने निजी निवास ‘मातोश्री’ में चले जाना सत्ता के त्याग का प्रदर्शन करने के अलावा शिवसैनिकों से भावनात्मक अपील करने का भी प्रयास था. लेकिन इस कोशिश में वे अनिच्छुक मुख्यमंत्री के रूप में उभरे, जो महाराष्ट्र को नहीं चाहिए.

बहरहाल मुख्यमंत्री पर चाहे जो आरोप लगे हों कि वे पहुंच से दूर रहते हैं, तथ्य यह है कि कोविड की दूसरी लहर के दौरान जब मरीज ऑक्सीजन न मिलने के कारण दिल्ली की सड़कों पर दम तोड़ रहे थे और उनके शव उत्तर प्रदेश की नदियों के किनारे रेत में दबे पड़े मिल रहे थे, तब उद्धव की सरकार ने इस महामारी के दौरान अच्छा काम किया था. लेकिन सुर्खियां यह बनी कि मुख्यमंत्री लापता हैं.


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वे अपने शासन के रेकॉर्ड का बचाव करने को भी बहुत फिक्रमंद नहीं दिखते. जब मुख्यमंत्री अपने पार्टी नेता शिंदे से यह सवाल करते हैं कि जब उनका बेटा सांसद है तब उन्हें उनके बेटे आदित्य के बारे में सवाल करने का क्या अधिकार है, तब यह साफ है कि वे अपने प्रशासनिक कौशल और रेकॉर्ड का बचाव करने को इच्छुक हैं. वे अपने पिता की विरासत के लिए लड़ रहे हैं. इन दिनों उद्धव और उनके करीबी जब सार्वजनिक बयान दे रहे हैं तो उनके निहितार्थों को समझने की कोशिश कीजिए. अपनी सरकार बचाने से ज्यादा वे पार्टी पर अपनी पकड़ बनाने पर ज़ोर दे रहे हैं और इस कोशिश में हैं कि वैकल्पिक सरकार में बागियों को जगह न मिले.

बागी नेता एकनाथ शिंदे का लक्ष्य भाजपा के लक्ष्य से थोड़ा अलग है. दोनों एमवीए सरकार को गिराना चाहते हैं लेकिन उनकी प्राथमिकताओं का क्रम अलग-अलग है. शिंदे के लिए, ठाकरे परिवार को सत्ता से हटाना उन्हें हाशिये पर डालने और शिवसेना पर कब्जा करने का एक उपाय है. सरकार गिर गई मगर पार्टी पर उद्धव का कब्जा बना रहा तो यह शिंदे की हार ही होगी. शिंदे तब भी हारे हुए माने जाएंगे जब वे भाजपा में शामिल होकर फडणवीस सरकार में उप-मुख्यमंत्री जैसी कुछ शानदार पदवी पाकर रह जाते हैं. और अगर उन्हें भाजपा के टिकट पर विधानसभा का उपचुनाव या मध्यावधि चुनाव लड़ना पड़ा तब तो वह उनकी पूरी ही हार मानी जाएगी.
बिखरती शिवसेना भाजपा के लिए मुफीद होगी लेकिन वह शिंदे जैसे निर्दलीय सहयोगी को नहीं कबूल करेगी, जो दूसरे बागी विधायकों के साथ मराठा अधिकारों के लिए लड़ने के दावे करेगा. इस क्षेत्रियतावादी विचारधारा के साथ बाल ठाकरे ने अपनी शुरुआत की थी, और इसे बागी विधायकों ने पिछले सप्ताह पारित अपने प्रस्ताव में दोहराया और कहा कि वे ‘स्थानीय मराठी लोगों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं.’
बागी भूल गए कि आज 2022 में महाराष्ट्र वही नहीं रह गया है जो 1960 के दशक में था जब बाल ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना की थी. भाजपा भी आज वो भाजपा नहीं है जिसने 1980 और 1990 के दशकों में शिवसैनिकों को बर्दाश्त किया था. आज वह अखिल भारतीय स्तर पर सबसे मजबूत पार्टी है, जो किसी राज्य में क्षेत्रियतावादी राजनीति की छूट देने की गलती नहीं कर सकती.
इसलिए, भाजपा तब शिंदे खेमे का साथ दे सकती है जब वह महाराष्ट्र विधानसभा के उपाध्यक्ष के द्वारा उन्हें अयोग्य घोषित करने के नोटिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर जाता है. भाजपा बागियों के साथ तब भी होगी जब वे राहत के लिए राज्यपाल के यहां दस्तक देने जाएंगे. उद्धव ठाकरे को सत्ता से हटाने के लिए शिंदे भाजपा के लिए एक थाती हैं. यह काम पूरा हुआ नहीं कि शिंदे जपा के लिए तब एक बोझ बन जाएंगे जब वे महाराष्ट्र को बाल ठाकरे वाले दौर में ले जाने की बातें करने लगेंगे.
(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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