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Tuesday, 4 November, 2025
होममत-विमतपाकिस्तान ने अफगानों को महाशक्तियों को हराने में मदद की — और खुद ही उनकी कौमी भावना से हार गया

पाकिस्तान ने अफगानों को महाशक्तियों को हराने में मदद की — और खुद ही उनकी कौमी भावना से हार गया

पाकिस्तान अफगानों की उग्र स्वतंत्र मानसिकता और पख्तून राष्ट्रवाद की दृढ़ता को समझने में नाकाम रहा. यह राष्ट्रवाद 1747 में अफगानिस्तान की स्थापना के साथ ही उसकी सियासत पर हावी रहा है.

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अफगानिस्तान की तालिबान सरकार के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी के भारत दौरे के बाद भारत ने जबकि काबुल में अपना दूतावास फिर से खोल दिया है, पाकिस्तान उससे जंग में उलझा है. इस विरोधाभास की अनदेखी नहीं की जा सकती है. 1979 से 2021 के बीच बीते 42 वर्षों में अफगानों ने पाकिस्तान की मदद के बूते अमेरिका और सोवियत संघ सरीखी महाशक्तियों को परास्त किया. पाकिस्तान ने कल्पना की थी कि अफगानिस्तान को अपने मातहत रखकर वह अपनी रणनीति को ‘गहराई’ दे देगा और अपने पुराने दुश्मन भारत के खिलाफ अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए उसे एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करेगा.

लेकिन पाकिस्तान अफगानों की उग्र स्वतंत्र मानसिकता और पख्तून राष्ट्रवाद की दृढ़ता को समझने में नाकाम रहा. यह राष्ट्रवाद 1747 में अफगानिस्तान की स्थापना के साथ ही उसकी सियासत पर हावी रहा है. ब्रिटेन ने ‘पख्तून राष्ट्र’ को 1893 में रक्तरंजित डूरंड रेखा के साथ बनावटी ढंग से बांट दिया था लेकिन अफगानिस्तान ने इस सीमा रेखा को कभी कबूल नहीं किया.

उथलपुथल भरा भारत-अफगानिस्तान संबंध

भारत पर हमला करने वाले सभी हमलावर या तो अफगानिस्तान में जनमे या उसके रास्ते आए. अहमद शाह अब्दाली के नाम से मशहूर अहमद शाह दुर्रानी ने एक राष्ट्र-राज्य के रूप में अफगानिस्तान की स्थापना करने के एक साल बाद ही, 1748 में भारत पर हमला कर दिया. दुर्रानी 1739 में भारत पर हमला करने वाले नादिर शाह का अमला था और वह इस उपमहादेश की समृद्धि और कमजोर पड़ते मुगल सल्तनत की कमजोरियों से वाकिफ था.

इसके बाद के 50 साल पंजाब के सबसे उथलपुथल भरे, रक्तरंजित साल रहे. अफगान, सीख, मराठा और मुगल सल्तनत के बचे-खुचे तत्व सत्ता के लिए आपस में लड़ते रहे. उनका एकमात्र मकसद बिना कोई प्रशासनिक ज़िम्मेदारी उठाए लूटपाट करना और धन-दौलत कमाना था. अफगान और मराठा तो अपनी  आधारभूमि से दूर जाकर लड़ रहे थे और सबसे ताकतवर होने के बावजूद स्थायी साम्राज्य स्थापित नहीं कर सके. वे स्थानीय क्षत्रपों के जरिए उगाही करके संतुष्ट थे. केवल सीख छापामार लड़ाई और घमासान युद्ध करके डटे रहे.

दुर्रानी ने 19 साल के अंदर भारत पर आठ बार हमले किए, उसके वारिसों ने 1799 में सिख साम्राज्य के उभार तक हमले जारी रखे.इस सिख साम्राज्य की सीमा आज के अफगानिस्तान तक फैली हुई थी और वह जलालाबाद में खैबर दर्रे के पार भी अपना दबदबा रखता था. उस दौर का माहौल इस कहावत से जाहिर है—‘खाधा पीटा लाहे दा, बाकी अहमद शाहे दा’.

अंग्रेजों को खालसा राज विरासत में मिला और एक सदी तक वे अफगानों और डूरंड रेखा के पूरब में पख्तूनों से लड़ते रहे. इस खूनखराबे के बावजूद भारत की आजादी के बाद अफगानों और भारतीयों के बीच एक अनूठा सांस्कृतिक और यथार्थपरक राजनीतिक रिश्ता बन गया. 1995 से 2001 तक तालिबानी शासन के पहले कार्यकाल को छोड़ भारत-अफगानिस्तान संबंध आज तक मजबूत ही होते गए हैं.

मेरे संपर्क

मैं भव्य श्री फतेहगढ़ साहिब गुरुद्वारे से एक किमी दूर पूरब में अपने पुश्तैनी घर में रहता हूं. यह गुरुद्वारा ठीक उस स्थान पर है, जहां 1360 में फिरोज़ शाह तुगलक ने कभी अभेद्य सरहिंद किला बनवाया था.

फार्महाउस के दक्षिण-पूरब में करीब चार किमी दूर है मानुपुर गांव, जहां दुर्रानी को 1748 में भारत में एकमात्र बड़ी हार का सामना करना पड़ा था, वह भी मुगलों के हाथों. सरहिंद वह स्थान है जहां सिखों ने 1758, 1762 और 1764 में न केवल अफगानों बल्कि इस शहर के खिलाफ तीन लड़ाई लड़ी थी. सरहिंद को ज़मींदोज़ कर दिया गया था, उसकी ईंट-ईंट ढहा दी गई थी क्योंकि उस पर लांछन लगा था कि 1705 में मुगल सूबेदार वज़ीर खान ने गुरु गोविंद सिंह के सात साल और नौ साल के दो पुत्रों को मार डाला था.

गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब से 500 मीटर की दूरी पर अहमद अल-फारूकी अल-सरहिंदी (1564-1624) का 400 साल पुराना मकबरा है. उसे मुजद्दीद अल्फ़ सानी के नाम से भी जाना जाता था और उसे ‘दूसरी सदी का जंदाह करने वाला’ कहा जाता था. सिखों से नफरत करने के बावजूद मुजद्दीद के मकबरे को नहीं तोड़ा गया क्योंकि इसके परिसर में अफगान बादशाह और रानी की कब्रें हैं.

अहमद शाह दुर्रानी की एकमात्र हार

सरहिंद का इतिहास ईसा पूर्व दौर से शुरू होता है लेकिन इसका स्वर्णयुग 100 सीई से 1764 सीई तक रहा. 1764 में सिखों ने इस शहर को पूरी तरह नष्ट कर दिया. मुगल काल में सरहिंद सरकार के अंदर 28 से ज्यादा परगने थे. उसका राज यमुना-सतलुज दोआबे पर था. यह शहर बढ़ते व्यापार, शिक्षा और वाणिज्य का केंद्र था. यह तीन कोस (करीब 10 किमी) के व्यास वाले गोलाकार क्षेत्र में बसा था. लाहौर के बाद यह पंजाब का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण शहर था. यह दिल्ली का दरवाजा माना जाता था. दिल्ली पर कब्जा करने वाला हर हमलावर सरहिंद पर पहले कब्जा करता था. इसी तरह, दिल्ली में बैठे शासक इसे हमलावरों को पीछे धकेलने के लिए ढाल के रूप में इस्तेमाल करते थे.

सरहिंद में ही हुमायूं ने 1555 में शेरशाह सूरी को हराकर मुगल सल्तनत को फिर से बहाल किया था, जिसे मुगलों ने 1540 में शेरशाह सूरी के हाथों गंवा दिया था. भारत पर हुकूमत हासिल करने के लिए सरहिंद में एक और युद्ध इसके करीब 200 साल बाद, 1748 में भी लड़ा गया था. 1739 में नादिर शाह के हाथों अपने आवाम को हारने और उसे दिल्ली का खजाना सौंपने वाले मुगल बादशाह मुहम्मद शाह ‘रंगीला (1719-1748) ने दुर्रानी को परास्त करने में उल्लेखनीय साहस और संगठन कौशल का प्रदर्शन किया.

दुर्रानी ने 1747 के दिसंबर के मध्य में 1,80,000 सैनिकों के साथ पेशावर से घुसपैठ शुरू की. 12 जनवरी 1748 को लाहौर पर कब्जा किया. अपनी पकड़ मजबूत करने के बाद वह सरहिंद की तरफ बढ़ा, जहां से मुगल सूबेदार भाग गया था. 2 मार्च 1748 को दुर्रानी ने किले पर कब्जा किया. उसने अपनी फौज को सरहिंद के आसपास ठहरा दिया और मुगलों के जवाबी हमले का सामना करने की तैयारी करने लगा.

वज़ीर कमरुद्दीन और शहजादे अहमद शाह (जो आगे चलकर बादशाह अहमद शाह बहादुर बना) के नेतृत्व में सुस्त चाल से दिल्ली से निकली और सरहिंद पर कब्जे को रोक न सकी. उसने 4-10 मार्च के बीच सरहिंद की घेराबंदी की ताकि अफगानों को भूखों मार सके लेकिन इसमें कामयाब न हो सकी क्योंकि उनके पास पर्याप्त सप्लाइ मौजूद थी. 11 मार्च को सरहिंद की सीमा पर बसे मानुपुर गांव में दोनों फौजों की मोरचाबंदी हो गई.

12,000 सैनिकों वाली अफगान फौज 60,000 सैनिकों वाली मुगल फौज की आगे कमजोर पड़ गई. खूनी लड़ाई हुई. कमरुद्दीन तोप के गोले से मारा गया लेकिन मुगल सिपहसालार डटे रहे और अपनी बेहतर तोपों का कामयाब इस्तेमाल किया. दुर्रानी हमलावर हुआ और मुगल फौज के बीच में और किनारों पर हमला किया. मुगल सेना का बायां हिस्सा बिखर गया लेकिन वह डटी रही और उसे अंतिम जवाबी हमला करने पर मजबूर होना पड़ा. अंततः, संख्याबल भारी पड़ा और अफगान फौज युद्धक्षेत्र से भाग खड़ी हुई, पहले वह लाहौर तक पीछे हटी और फिर अफगानिस्तान लौट गई. भारत पर दुर्रानी का पहला हमला इस तरह खत्म हुआ.

सरहिंद का विध्वंस

सरहिंद को मिटा डालने का सिखों ने जो संकल्प लिया था उसका पहला प्रयास 1710 में बंदा सिंह बहादुर ने किया. 1708 में, गुरु गोविंद सिंह का फरमान लेकर 25 सिखों के साथ कूच करके वे नांदेड़ पहुंचे. वहां से वे दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम में आज के हरियाणा आए और वहां किसानों की सेना तैयार की. धीरे-धीरे उन्होंने अंबाला के दक्षिण और उत्तर में कई किलों पर कब्जा कर लिया. अंत में, उन्होंने 10 मई 1710 को छप्पर चिरी (आज के मोहाली) में सरहिंद के नवाब को हराया, इसके दो दिन बाद सरहिंद को जीता और उसे फतेहगढ़ नाम दे दिया. शहर को लूट लिया गया और मुगलों से जुड़े हर किसी को मौत के घाट उतार दिया गया. लेकिन दिल्ली से शाही फौज आ गई और इसे ढहाने का फैसला रद्द कर दिया गया.

बंदा बहादुर पहाड़ियों में जा छिपे लेकिन उन्हें आखिरकार 1716 में हरा दिया गया और गिरफ्तार करके यातनाएं देकर मार डाला गया. इसके बाद 30 साल तक सिखों ने विकट संघर्ष जारी रखा और मुगलों द्वारा क्रूर यातनाएं दिए जाने के बावजूद छापामार लड़ाई में महारत हासिल की. मुगलों या बाद में अफगानों ने विशाल फौज बनाई. सिख पहाड़ों में लुप्त हो गए, और हमलावर जब पीछे हटे तो अपने इलाकों पर दावे करने के लिए लौट आए. जब दुर्रानी ने फिर से हमला शुरू किया, तब तक सिख ‘मिस्लों’ में संगठित हो गए थे. ये संघ चेनाब और यमुना के बीच के क्षेत्र में फैले हुए थे.

1756-57 के बीच दुर्रानी ने चौथी बार हमला किया और दिल्ली पर कब्जा करके उसे लूटा लेकिन सरहिंद और लाहौर के अपने अफगान सूबेदारों के जरिए पंजाब पर परोक्ष रूप से शासन किया. उसके जाने के बाद मराठों ने पंजाब में पैर रखे और 1758 में दल खालसा (सिख मिस्लों की संयुक्त फौज) और बिस्ट (ब्यास-सतलुज) दोआब के अस्थिर मुगल सूबेदार आदिना बेग से हाथ मिलाए. अफगान सूबेदार अब्दुस्समद खान को हरा दिया गया, और 21 मार्च 1758 को सरहिंद पर कब्जा कर लिया गया. शहर को लूट लिया गया मगर वह विध्वंस से बच गया क्योंकि विजेता सेना लाहौर पर कब्जा करने दौड़े. मराठों ने इसी थोड़े समय के लिए पंजाब पर शासन किया, जिसकी चौकियां सिंधु क्षेत्र में थीं, जिन्हें कभी मजबूत नहीं किया गया था. का छोटा दौर था. ज़ोर सूबेदारों के जरिए राजस्व उगाही पर था.

अक्तूबर 1759 में दुर्रानी बदला लेने के लिए वापस आया और 14 जनवरी 1761 को मराठों पर पानीपत में मुक्तिदायी प्रहार किया. दुर्रानी जब लाहौर लौट गया तब खालसा सेना ने 10 अप्रैल 1762 को अफगान सूबेदार ज़ैन खान से सरहिंद को वापस छीन लिया. लेकिन दुर्रानी से खतरों के कारण इसे 50,000 रुपये के एवज में फिर से खाली कर दिया गया.

आखिरकार, जनवरी 1764 में जस्सा सिंह अहलुवालिया के नेतृत्व में संयुक्त खालसा ने एक बार फिर सरहिंद पर कब्जा कर लिया क्योंकि अफगान धीरे-धीरे कमजोर पड़ते जा रहे थे. शहर को ध्वस्त करने के लिए उसे कई सिख मिस्लों में बांट दिया गया था. कभी 10 किमी के व्यास क्षेत्र में बसे सरहिंद को मलबे में तब्दील कर दिया गया. आज भी ग्रामीण इलाकों में अधिकतर मकबरों के करीब एक सौ खंडहर देखे जा सकते हैं.

शाही कब्रें

दुर्रानी के पोते ज़मान शाह दुर्रानी ने 1793 से 1801 तक आठ साल राज किया और भारत पर अंतिम अफगान हमले की कोशिश का नेतृत्व किया. उसके सौतेले भाई महमूद शाह ने उसे गद्दी से हटाकर अंधा बना दिया और कैद कर लिया. उसके दूसरे भाई शुजाह शाह दुर्रानी ने दो साल बाद रिहा करवाया. उसे शुजाह-उल-मुल्क के नाम से भी जाना जाता है, उसने 1809 तक राज किया, और महमूद शाह दुर्रानी ने उसका तख़्ता फिर पलट दिया.

तकदीर का खेल कि दोनों नेत्रहीन ज़मान शाह और शुजाह शाह दुर्रानी ने लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह से शरण मांगी. शुजाह को इसके लिए मशहूर कोहिनूर हीरे के रूप में कीमत अदा करनी पड़ी. इस हीरे को उसके दादा अहमद शाह दुर्रानी ने नादिर शाह की मौत के बाद अपने कब्जे में ले लिया था. अंततः, ज़मान शाह और शुजाह शाह लुधियाना में ब्रिटिश सरकार के पेंशनभोगी बने.

शुजाह की उद्यमशील बीवी वफा बेगम ने अंग्रेजों को इस बात के लिए राजी किया कि वे उसके खाविंद को अफगानिस्तान का ताज फिर से हासिल करने में मदद करें. एक ‘बड़े खेल’ में शामिल होने को उत्सुक अंग्रेजों ने उसे उपकृत किया और 1839 में पहला एंग्लो-अफगान युद्ध शुरू किया और शुजाह को फिर से गद्दीनशीन किया. तीन साल बाद 1842 में वे हार को रोकने में सफल हो पाए. हमले के पीछे का दिमाग वफा बेगम थोड़े समय के लिए मिले गौरव या त्रासदी को देखने के लिए जीवित नहीं रही. उसका निधन 1838 में, हमले से पहले ही हो गया.

वफा बेगम को मौत के बाद मुजद्दिद सरहिंदी के (जिसे अफगान शाही परिवार इज्जत देता था) मकबरे के अहाते में दफन किया गया. नेत्रहीन ज़मान शाह लुधियाना में बसा और 1844 में उसका निधन हो गया.उसे भी सरहिंद में अपनी भाभी वफा बेगम के बगल में दफन किया गया.

भारत-अफगानिस्तान के 277 साल पुराने संबंध के इतिहास के मद्देनजर आज जो यथार्थफरक राजनीति चल रही है वह कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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