भारतीय जनता पार्टी की सफलता एक केस स्टडी है कि कैसे कई दलों से निर्मित और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से निर्देशित एक राजनीतिक पार्टी 1984 में 2 सीटों से बढ़कर 2019 में लोकसभा की 303 सीटों पर पहुंच गई. पार्टी ने लंबा सफर तय किया है, पर कहां गए वे लोग, जिन्होंने 1980 और 1990 के दशकों में हिंदुत्व का ध्वज उठाया था?
राम-जन्मभूमि आंदोलन भाजपा के विकास का आधार था. इसने उसे ऐसा मंच मुहैया कराया जिसका भारत की प्राचीन पार्टी कांग्रेस को कोई अंदाजा तक नहीं था और इसका श्रेय पूरी तरह से मूल हिंदुत्ववादियों को जाता है, जो किसी वजह से भाजपा के मौजूदा ताकतवर शीर्ष नेतृत्व से गायब हैं. वो भी ऐसे समय में जबकि उन्हें नरेंद्र मोदी सरकार के सर्वाधिक प्रभावशाली पदों पर होना चाहिए था.
देश जब अयोध्या विवाद पर इसी महीने आ रहे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार कर रहा है, बहुतों ने उस क्षण के लिए तैयारी शुरू भी कर दी है जब एक भव्य राम मंदिर का निर्माण आरंभ होगा. अयोध्या में अपने दीपोत्सव के साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पहले ही माहौल तैयार करना शुरू कर चुके हैं. लेकिन जब लोग सांस रोके फैसले का इंतजार कर रहे हैं तो ऐसे वक्त राम जन्मभूमि आंदोलन के अग्रदूत कहां हैं? आज जब मोदी-अमित शाह हिंदुत्व का डंका पीट रहे हैं, तो ऐसे में आदि-हिंदुत्ववादी कहां हैं?
उमा भारती का ‘बहरापन’
मसलन, उमा भारती का उदाहरण लें. बाबरी मस्जिद के 1992 में विध्वंस के संदर्भ में मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी के समान ही प्रमुख हस्ती मानी जाने वाली उमा भारती विध्वंसक भीड़ का हिस्सा होने की बात खुलेआम मान चुकी हैं: ‘मुझे इस पर खेद क्यों होगा? मैं अयोध्या प्रकरण में शामिल थी. मुझे अब भी कोई पछतावा नहीं है.’
अब जबकि राम-जन्मभूमि भूमि विवाद में फैसला आने वाला है, आपको वो या 1992 के उनके सहयोगी शायद ही अपने शुरू किए गए काम की वाहवाही बटोरते दिखें. ये काम तो भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में शामिल मौजूदा नेता कर रहे हैं. उमा भारती का कभी अपना प्रभाव हुआ करता था. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में उन्होंने मानव संसाधन विकास, पर्यटन, युवा मामले एवं खेल, तथा कोयला जैसे महत्वपूर्ण विभागों को संभाला था, पर नरेंद्र मोदी सरकार ने जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा कायाकल्प मंत्रालय में उनका प्रदर्शन सही नहीं रहने के आधार पर 2017 में उन्हें पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय में टिका दिया था.
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शपथ ग्रहण समारोह में नहीं पहुंचने पर तब उनसे उनके नए मंत्रालय के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा था, ‘मुझे सुनाई नहीं देता. पार्टी प्रमुख अमित शाह से पूछिए. केवल वही इसका जवाब दे सकते हैं.’ अब वह दर्जन भर अन्य नेताओं के साथ भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाई गई हैं.
मार्गदर्शक आडवाणी और जोशी
मुरली मनोहर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी के साथ तो और भी बुरा हुआ. उपेक्षापूर्वक उन्हें ‘मार्गदर्शक मंडल’ या पुराने जनसंघियों की समिति में डाल दिया गया. अमित शाह द्वारा सैन्य दक्षता और कॉरपोरेट शैली में चलाई जा रही आज की उत्साही और अतिसक्रिय भाजपा में मानो उनका कोई काम नहीं रह गया है. आडवाणी और जोशी को पार्टी का ‘मार्गदर्शन’ करने के लिए कहा गया है. जो कि शायद एक मजाक ही हो क्योंकि मोदी और शाह के फैसले करने के तरीके के बारे में शायद किसी को ज्यादा जानकारी होगी.
मोदी सरकार के पहले पांच वर्षों में आडवाणी संसद में मात्र 365 शब्द बोल पाए, हालांकि उनकी उपस्थिति 92 प्रतिशत रही थी. इसी साल मार्च में, मुरली मनोहर जोशी को लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने के लिए कह दिया गया. तब जोशी ने मतदाताओं को लिखा था, ‘भारतीय जनता पार्टी ने मुझे आज अवगत कराया कि मुझे कानपुर या अन्य किसी जगह आगामी संसदीय चुनाव नहीं लड़ना चाहिए.’
इस तरह, मार्गदर्शक मंडल अलविदा कहने का एक शालीन तरीका भर है.
तोगड़िया, गोविंदाचार्य और कटियार की व्यग्रता
गोविंदाचार्य, विनय कटियार और प्रवीण तोगड़िया जैसे बाकी लोगों को भी भुला दिया गया है. इतना ही नहीं, भाजपा की सफलता में उनका योगदान होने के बावजूद उन्हें महत्वहीन मानकर पूरी तरह खारिज कर दिया गया है.
एक समय था जब गोविंदाचार्य और नरेंद्र मोदी दोनों आरएसएस के एक जैसे प्रचारक हुआ करते थे. लालकृष्ण आडवाणी की छत्रछाया में आगे बढ़े आरएसएस के प्रमुख विचारक गोविंदाचार्य की संघ में सोशल इंजीनियरिंग की अवधारणा को विकसित करने में केंद्रीय भूमिका थी. उसी के बाद संघ ने उमा भारती, बंगारू लक्ष्मण, कल्याण सिंह, विनय कटियार और सुशील मोदी जैसे अपने ओबीसी सदस्यों को आगे बढ़ाया था.
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आरएसएस द्वारा पदोन्नत पिछड़ी जाति के एक अन्य नेता थे – नरेंद्र मोदी. भाजपा जहां उनकी जाति को 1994 में ओबीसी श्रेणी में शामिल किए जाने का दावा करती है, जबकि कांग्रेस का कहना है कि मोदी के 2002 में मुख्यमंत्री बनने के बाद ऐसा हुआ था.
आडवाणी और गोविंदाचार्य ने ही 1990 के दशक में अपने संवाददाता सम्मेलनों, भाषणों और कार्यों के माध्यम से छद्म-धर्मनिरपेक्षता और राम मंदिर के मंत्र का बौद्धिक आधार तैयार किया था.
इसके बावजूद भाजपा गोविंदाचार्य की चर्चा शायद ही कभी करती है, जबकि मोदी की राज्यस्तरीय और फिर राष्ट्रीय राजनीति में पदोन्नति गोविंदाचार्य और आडवाणी की बनाई रणनीति के कारण ही संभव हो पाई.
इसी तरह, बजरंग दल के विनय कटियार और विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया की घृणा फैलाने वाले और भारत के मुसलमानों को भारतीय नहीं मानने वाले संघ परिवार के बड़बोले कार्यकर्ताओं के रूप में बदनामी झेलनी पड़ी थी. दोनों ने ही राम जन्मभूमि आंदोलन को जमीनी स्तर पर फैलाने में रणनीतिक भूमिका निभाई थी.
कटियार ने बजरंग दल को राम जन्मभूमि आंदोलन के समर्थन में एक युवा संगठन के रूप में शुरू किया था. आदर्श स्थिति में मुख्यमंत्री बनने की हैसियत रखने वाले कटियार को गत वर्ष राम मंदिर निर्माण के बारे में यह कहते देखा गया था, ‘सरकार के हाथ में कुछ भी नहीं है.’
लगभग दो दशकों तक अयोध्या को लेकर शोर मचाने वालों में सर्वोपरि रहे तोगड़िया को भाजपा के हाथों बहुत अपमान सहना पड़ा है. गुजरात पुलिस 2018 में जब तोगड़िया को गिरफ्तार करने के लिए ढूंढ रही थी, तो वह लापता हो गए थे और फिर एक नाटकीय घटनाक्रम में उन्हें अहमदाबाद में एक सड़क पर पाया गया था. आगे चलकर उन्हें विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया. राम मंदिर बनाने के अपने वादे को पूरा न करने के लिए 2018 में भाजपा सरकार की हल्की आलोचना करने वाले प्रवीण तोगड़िया अब ये तक कह चुके हैं कि भाजपा और आरएसएस का ‘राम मंदिर बनाने का कोई इरादा नहीं है’. तोगड़िया का भाजपा-आरएसएस से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है और भाजपा और आरएसएस के भीतर उनकी अहमियत भी पूरी तरह खत्म हो चुकी है.
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बेशक, भारत में धर्म पर ही सब कुछ केंद्रित है. फिर भी राम मंदिर का मुद्दा केवल हिंदुओं द्वारा राम को समर्पित मंदिर के निर्माण से ही संबंधित नहीं रह गया है. ये एक राजनीतिक तमाशा है और अयोध्या मुद्दे को उभारने वाले मूल हिंदुत्ववादियों को एक लंबे वनवास पर भेजा जा चुका है.
(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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