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Saturday, 2 November, 2024
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बैठे-ठाले का खयाल है विपक्ष की एकता और ज्यादातर राज्यों के लिए प्रासंगिक नहीं

मोदी के युग में भारत के स्वधर्म को बचाने के लिए राजनीतिक एकता, चुनावी गठबंधन से कहीं ज्यादा जरूरी है.

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विपक्ष की एकता की बात एक फालतू का चस्का है और हर चस्के की तरह ये चस्का भी फंटूश किस्म का है. भारतीय राजनीति अभी जिस मोड़ पर जा पहुंची है उसे देखते हुए विपक्षी दलों की एकता का विचार यों बड़ा अहम है लेकिन फिर व्यर्थ भी उतना ही है. आप मानकर चलिए कि यह बीते माह का विचार था और माह के बीतने के साथ विपक्षी एकता का विचार गई-बीती के खाते में दर्ज हो गया. पश्चिम बंगाल के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार हुई थी और इस हार से विपक्षी दलों की राह खुलती सी दिख रही थी, ऐसे में एकता कायम करने को लेकर कवायदों को बढ़ावा मिला, कुछ वैसे ही जैसे कि मतिभ्रम की हालत में आदमी अपनी बिखरी हुई यादों को एक सूत्र में पिरोने के लिए ना जाने कहां-कहां से कहानियां उठाकर उनकी तुरपई करने लगता है. अब इस बात को समझने के लिए दिमाग पर बहुत ज्यादा जोर डालने की जरूरत नहीं कि कुल 63 प्रतिशत मतदाताओं ने 2019 के चुनाव में बीजेपी या फिर उसके साथी दलों को अपना वोट नहीं दिया और बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देने की किसी भी पहलकदमी की शुरुआत इस बात को आधार बनाकर हो सकती है. यही वजह रही जो विपक्षी दलों के बीच एकता कायम करने के विचार को पंख लगे, मान लिया गया कि जैसे बीते जमाने में विपक्षी दलों के बीच एकता कायम हुई थी वैसे ही अब भी हो सकती है. लेकिन, राजनीति के जो चेहरे खूब जाने-पहचाने, आजमाये और एक हद तक अब ठुकराये जाने की हालत को पहुंच चुके हैं वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए एकजुट होने की कोशिश में लगें तो समझिए कि यह हमारे वक्त का निहायत निठल्ला कदम है और बड़े हद तक आत्मघाती भी.

विपक्षी की एकता के बारे में विचार करने का तब तक कोई मायने-मतलब नहीं जब तक कि हमारे आगे ये तीन चीजें स्पष्ट ना हो जायें: एक तो यही कि आज की तारीख में हम विपक्ष किसको कहें, ऐसा कौन है जिसकी गिनती हम विपक्ष के रूप में करें? दूसरी बात कि हम जब एकता की बात कर रहे हैं तो हमारा आशय किस किस्म की एकता से है, एकता का क्या अर्थ निकाला जाये? और, तीसरी बात ये कि क्या नरेन्द्र मोदी की बीजेपी से मुकाबले के लिए बस इतना ही भर जरूरी है कि विपक्षियों में एकता कायम हो जाये?


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कौन सा विपक्ष?

ये सोचना कि जो कोई भी मोदी या फिर बीजेपी या इसकी मौजूदा विचारधारा के विरोध में है, उनमें से हरेक को एकजुट करना है, दरअसल एक तो असंभव सी बात है दूसरे ऐसा करने में लेने के देने पड़ सकते हैं. विपक्ष के नाम से हमारे मन में जिस बड़े फलक की तस्वीर बनती है उस तस्वीर में अलग-अलग नेता हैं, उनका अहं, महत्वाकांक्षाएं और उनकी चतुर-चालाकियां हैं. तो, इन सबके बीच पूरी तरह से एका कायम कर पाना तो कत्तई मुमकिन नहीं. पल भर को हम मान लें कि ऐसा चमत्कार हो ही गया तो भी इस किस्म के गठबंधन को बनाने के लिए जितने पापड़ बेलने पड़ेंगे वह गठबंधन बनाने से होने वाले फायदों से ज्यादा भारी पड़ेंगे. मतलब, ऐसा गठबंधन जब बीजेपी को हराने के लिए चलेगा तो उसके भीतर जोर अपने अधिकतम का ना होगा. गांठ-गिरह का होना लगाये गये जोर को कमजोर करता है. इसके अतिरिक्त, ये भी हो सकता है कि गठबंधन के बनने से मोदी अपनी लड़ाई में अकेला योद्धा जान पड़े, एक ऐसा महायोद्धा जिसे गिरोह बनाकर घेरने की कोशिश हो रही है. इससे बीजेपी के बूथ वर्कर्स को भी मदद मिलेगी, वह एकजुट विपक्ष की काट करने के लिए बड़ी कामयाबी से हिन्दुओं के बीच ध्रुवीकरण कर लेगा.

चलिए, ‘सब आयें- एकजुट हो जायें’ के विपक्षी एकता के विचार को छोड़ दिया लेकिन क्या अभी की स्थिति को देखते हुए जो विपक्ष की एकता के विचार के हामी हैं, उनका गठबंधन बनाने का विचार भी छोड़ दिया जाये? यहां विपक्ष का मतलब होगा, जो सचमुच विपक्ष खेमे में होने लायक हैं, उन्हें एकजुट करके गठबंधन बनाना. जो भी ऐसे गठबंधन में शामिल होता है, उसे ये बताना होगा कि उसके हाथ में ऐसा क्या है जो उसके गठबंधन में शामिल होने को सार्थक बनाता है. जाहिर है, जो वोट जुटा सकते हैं वे इस गठबंधन के सबसे पहले भागीदार गिने जायेंगे. कांग्रेस को अलग रखकर विपक्षी एकता कायम करने की कोई भी कवायद निरर्थक साबित होगी. यही बात उन महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दलों के बारे में भी कही जा सकती है जिन्होंने बीजेपी को जमकर चुनौती दी है और उसे कई दफे हराया भी है. यहां बस ध्यान रखने की बात ये होगी विपक्षी एकता की सामूहिक परियोजना पर किसी एक राजनेता या पार्टी का कद भारी ना पड़ने लगे.

विपक्षी खेमे से मतलब ये ना निकाला जाये कि यह सिर्फ राजनीतिक दलों या कह लें कि चुनावी जंग में कामयाब रहे राजनीतिक दलों तक सीमित है. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी के दबदबे को वास्तविक चुनौती गैर-दलीय जन-आंदोलनों से मिली है. जन-लामबंदी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि चुनावी कामयाबी.

कैसी एकता?

एकता के विचार को विस्तार देने की जरूरत है. एकता का मतलब सिर्फ इतना भर नहीं होना चाहिए कि एक बार के लिए चुनावी गठबंधन किया जा रहा है बल्कि जोर एक ऐसा सियासी एकट्ठ बनाने पर हो जो आगे के वक्तों में कायम रहे. अभी की हालत में गठबंधन की सर्व-प्रचलित समझ ये है कि गैर-भाजपाई दल सीट के बंटवारे और वोट को एकजुट रखने के लिए चुनाव से पहले का गठबंधन बना रहे हैं. लेकिन हम भूल जाते हैं कि भारत के ज्यादातर राज्यों के लिए ऐसी एकता प्रासंगिक नहीं रही. कई राज्यों, जैसे केरल, पंजाब, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में बीजेपी की स्थिति ऐसी नहीं कि हम उसे वहां एक चुनावी ताकत मानकर चलें और गैर-भाजपाई दलों में एकता कायम करने का आह्वान करें. फिर, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा जैसे भी राज्य हैं जहां गैर-बीजेपी पार्टी का दबदबा कुछ ऐसा है कि उसे गठबंधन बनाने की जरूरत ही नहीं. इसके अतिरिक्त कुछ राज्य ऐसे हैं जहां सीधा मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस के बीच होता है, जैसे मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और एक हद तक राजस्थान. इन राज्यों में समस्या ये नहीं है कि विपक्ष का कोई गठबंधन नहीं बना है बल्कि समस्या ये है कि कोई विपक्ष है ही नहीं. इन राज्यों में कांग्रेस अपने दम पर बीजेपी का मुकाबला करने की हालत में नहीं और मुश्किल ये है कि इन राज्यों में ऐसा कोई है भी नहीं जिसे वह साथ लेकर चले.

जाहिर है, फिर चुनाव-पूर्व गठबंधन बनाने का फार्मूला महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के लिए ठीक जान पड़ता है. कुल मिलाकर देखें तो इन राज्यों में लोकसभा की 200 से ज्यादा सीटें हैं लेकिन ये राज्य ऐसा कोई खाका पेश नहीं करते कि हम उसके आधार पर शेष भारत में विपक्ष की एकता के विचार को साकार करें. शेष भारत के लिए गठबंधन बनाने की नहीं बल्कि समन्वय कायम करने की जरूरत है.

अभी की स्थिति में चुनावी गठबंधन से ज्यादा जरूरी है राजनीतिक एकता कायम करना. राष्ट्रव्यापी चुनावी गठबंधन बनाने में एक तो आपसी खींच-तान होनी ही है, दूसरे इस खिचड़ी के गलने में अभी देरी है. इन दो बातों से बचते हुए सियासी एकता कायम करने की राह पर चला जा सकता है. अभी की हालत में विपक्ष के लिए आपस का सियासी तालमेल कायम करना जरूरी है. जिन मतदाताओं का हाल के समय में बीजेपी से मोहभंग हुआ है वे जानते हैं कि मोदी-विरोधी राजनेता बीजेपी को सत्ता से हटाने के लिए एकजुट होंगे. लेकिन, ऐसे मतदाताओं के मन में शंका भी है कि मोदी-विरोधी राजनेता ऐसा सार्थक रूप से कर भी पायेंगे या नहीं. इन मतदाताओं को शंका है कि विपक्षी दल कोई बेहतर और स्थायी सरकार बना और चला पायेंगे कि नहीं. इन मतदाताओं को शक है कि विपक्षी खेमे के राजनेता आपस में मिलकर चंद कदम भी चल पायेंगे या नहीं. जाहिर है, फिर विपक्ष के लिए ये दिखाना जरूरी है कि वह अपने मकसद में एक है और उसकी बुनियाद एक साझे अजेंडे (हड़बड़ी में बनाया गया न्यूनतम कार्यक्रम) को लेकर बनी है. अजेंडा ऐसा हो कि मतदाताओं में भरोसा जगाये, उसमें शासन को लेकर एक वैकल्पिक दृष्टि हो और सबसे बड़ी बात, अजेंडे से ये जाहिर होना चाहिए कि आपसी भेदों को भुलाकर गठबंधन में साथ मिलकर काम करने की क्षमता है.


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विपक्ष नहीं, प्रतिपक्ष

ध्यान रखना होगा कि एक ना एक तर्ज की विपक्षी एकता जरबरी है लेकिन इतना ही भर अपने आप में पर्याप्त नहीं. अभी की स्थिति में ऐसा नहीं लगता कि देश येन-केन-प्रकारेण बीजेपी को सत्ता से बेदखल करने को तैयार हो चुका है. इस सरकार और प्रधानमंत्री मोदी से लोगों का मोहभंग जरूर हुआ है लेकिन ये मोहभंग इस स्तर तक नहीं पहुंचा है कि लोग कहने लगे हों कि चाहे अब जो भी आये लेकिन बीजेपी को सत्ता से बाहर जाना ही होगा. लोग टकटकी लगाये देख रहे हैं कि कोई ऐसा विकल्प आये जो उतना ही आकर्षक जान पड़े जैसा कि 2014 में बीजेपी जान पड़ रही थी. अभी की हालत में विपक्ष ऐसी दशा में नहीं है कि लोग उसे 2014 की बीजेपी जैसा आकर्षक मानें. विपक्ष के सामने साख का संकट है. उसके पास उम्मीद जगा सकने लायक संदेश नहीं है, राष्ट्र को लेकर कोई सपना नहीं है. विपक्षी खेमे के पास ऐसा कोई संदेशवाहक नहीं है जो अपनी बातों पर लोगों में भरोसा जगाये, लोग यकीन करें कि इस राजनेता के हाथ में देश का भविष्य सुरक्षित है. अब ये ऐसी कमी है जिसकी भरपाई विपक्षी खेमे की एकजुटता कायम करके नहीं हो सकती है. अगर इस कमी को परे झटकते हुए विपक्षी खेमे में कोई एकता कायम होती भी है तो वह अपनी कमियों को और ज्यादा उजागर करेगी और नये मतदाताओं को अपनी तरफ नहीं खींच पायेगी.

दूसरे शब्दों में कहें तो देश को बीजेपी के विपक्ष की नहीं बल्कि प्रतिपक्ष की जरूरत है. विपक्ष तो विरोध जताने और नुक्ताचीनी करने में लगा रहता है जबकि प्रतिपक्ष वो होता है जो रचनात्मक आलोचना करे, साथ ही एक व्यावहारिक विकल्प भी प्रस्तुत करे. विपक्ष का लक्ष्य होता है सत्ता पर दखल जमाना लेकिन प्रतिपक्ष एक राष्ट्रीय प्रेरणा के वशीभूत होकर काम करता है. विपक्ष में कोई निरंतरता नहीं होती, वह आज की हालत में खड़ा हो सकता है मगर कल की स्थितियों के मद्देनजर टूट और बिखर भी सकता है लेकिन प्रतिपक्ष के साथ ‘आज है, कल नहीं है’ की स्थिति नहीं होती—वह हमेशा कायम रहता है. विपक्ष को एकजुट करना पड़ता है लेकिन प्रतिपक्ष शुरुआत से ही एक-भाव और एकमन होकर खड़ा होता है.

अगर विपक्ष है तो फिर यों समझिए कि उसे आपस में जोड़े रखने के लिए किसी ना किसी चीज के सहारे की जरूरत होगी और यह विपक्ष लोगों की नजरों में जंचे इसके लिए उस पर कुछ रंग-रोगन भी चढ़ाना होगा. मौजूदा विपक्षी दलों को आपस में सिल-बुनकर गठबंधन कायम कर देने भर से ये नहीं होने वाला. कोई ना कोई धुरी होनी चाहिए, ऐसी धुरी जो भारत नाम के गणतंत्र को बचाने के विचार से प्रेरित तमाम शक्तियों को अपने आकर्षण में बांधकर एकजुट-एकजा करे. आकर्षण-शक्ति से भरपूर ये धुरी कोई एक पार्टी या कोई एक नेता नहीं बन सकता. यह धुरी बनती है उन नागरिकों के एकजुट होने से जिन पर लोगों का भरोसा कायम है, उन आंदोलनों के एकजुट होने से जिन्होंने अपना जुझारूपन दिखाया, जिन्होंने हमारे आदर्शों में उम्मीद की लौ जगाये रखी. एक बार ऐसा हो जाये तो फिर मौजूदा विपक्षी दलों और राजनेताओं का एकजुट होना संभव हो जाएगा, उन्हें एकजुट करने के विचार के साथ काम किया जा सकेगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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