नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा पर्याप्त विचार किए बिना पारित कृषि विधेयकों के विरोध में 18 विपक्षी दलों और 31 किसान संगठनों ने अपनी एकजुटता प्रदर्शित की है. विधेयकों में साफ ज़ाहिर कमियों के कारण वे चाहते थे कि राज्यसभा में पारित किए जाने से पहले उन्हें समीक्षा के लिए सदन की स्थाई समिति में भेजा जाए. लेकिन विपक्ष की मांग को सिरे से खारिज कर दिया गया. कई विशेषज्ञों का मानना है कि ये बिल अंततः एकाधिकार, सीमित प्रतिस्पर्धा और कार्टेल जैसी समस्याओं को जन्म देंगे.
लेकिन विपक्ष इन कृषि विधेयकों के बुरे प्रभावों के बारे में भारत की जनता को कैसे यकीन दिलाएगा? विपक्षी पार्टियां ने भले ही एकजुटता प्रदर्शित की हो- जोकि वर्तमान में एक दुर्लभ घटना है- लेकिन क्या वे एकजुट रह पाएंगे, कारगर साबित हो पाएंगे और एक जनांदोलन खड़ा कर पाएंगे? ट्विटर पर निडरता से अपनी बात रखना, सेंट्रल हॉल से अपने रिकॉर्ड किए वीडियो को प्रसारित करना और टीवी चैनलों के लिए बाइट देना ही काफी नहीं होगा, खासकर जब बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनाव दांव पर लगे हों.
मोदी और उनकी राजनीति ने नए प्रतिमान स्थापित किए हैं और उनके विरोध के लिए विपक्ष को भी नए तरह की राजनीति को अपनाना होगा. इस उम्मीद के साथ सदन में नारेबाजी करना और कागजात फेंकना कि लाइव टेलीकास्ट उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र में जनता के हक़ की बात उठाने वाला नायक बना देगा, दरअसल पिछले दशक में प्रचलित रही रणनीति है. अब ऐसा करने से उलटे मोदी और उनकी राजनीति को ही मदद मिलती है कि ‘देखो तो इन्हें, जब सत्ता में थे तब तो कुछ किया नहीं और अब नहीं चाहते कि मैं भी आपके लिए कुछ करूं’.
विपक्ष की एकजुटता
विपक्ष ने इन मुद्दों को संयुक्त रूप से उठाने का फैसला किया है. कांग्रेस ने पहले ही अपना देशव्यापी विरोध शुरू कर दिया है, जबकि मोदी सरकार में शिरोमणि अकाली दल की अकेली मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने इन विधेयकों पर अपनी नाराजगी जताते हुए मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. जैसा कि अपेक्षित था वामपंथी, राकांपा, द्रमुक, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और राजद भी इसमें शामिल हो गए हैं. लेकिन यह समूह कितना प्रभावी साबित होगा?
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2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ये दल मोदी-अमित शाह के विजय रथ को रोकने के उद्देश्य से एक मोर्च के रूप में गोलबंद हुए थे. लेकिन चुनाव परिणामों ने उनके नाकाफी प्रयासों की कलई खोल कर रख दी. दरअसल कांग्रेस ने खुद को मुख्य राष्ट्रीय विपक्ष के तौर पर पेश करने, जोकि वह थी भी, की चाहत में ऐसे फैसले किए जोकि संयुक्त विपक्ष के हित में नहीं थे. खुद को केंद्र में स्थापित करने की हसरत रखने वाले चंद्रबाबू नायडू और अरविंद केजरीवाल जैसे क्षेत्रीय नेता खुद को मोदी की टक्कर का दिखाने की मौकों की तलाश में रहे. इन सबके चलते संयुक्त विपक्ष की स्थिति भस्मासुर वाली हो गई जो भले ही भीमकाय दिख रहा हो, लेकिन उसके पास सही काम वाला दिमाग नहीं था.
अंततः किसान विरोधी इन प्रदर्शनों का भी वही हाल होगा. कांग्रेस पहले ही अपना देशव्यापी विरोध शुरू कर चुकी है, जबकि चौटालों और बादलों के अलावा बाकी क्षेत्रीय नेता वास्तव में ज़्यादा कुछ नहीं कर रहे. विधेयकों के खिलाफ आंदोलन में उनकी भागीदारी केवल संसदीय नियमों और शिष्टाचार की धज्जी उड़ाने वाली सरकार को शर्मिंदा करने के लिए है. वास्तव में, एमएसपी और किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं के बीच कृषि संकट के समाधान में भाजपा सरकार की नाकामी को लेकर पहले भी बहुत कुछ कहा जा चुका है.
पहले भी कामयाबी से दूर
किसानों के 2018 के विरोध प्रदर्शनों, जब आंध्र प्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के किसानों ने पैदल मार्च करते हुए दिल्ली पहुंच कर कर्ज से राहत और बेहतर एमएसपी की मांग की थी, को मोदी सरकार के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में देखा गया था. लेकिन खतरे की सारी बातें 23 मई को निर्मूल साबित हो गईं जब भाजपा अपने दम पर 303 सीटें जीतने में सफल रही. संयुक्त विपक्ष द्वारा जोरशोर से उठाए गए राफेल मामले और उसके बाद चलाए गए ‘चौकीदार चोर है’ अभियान की भी विपक्ष के शर्मनाक प्रदर्शन में भूमिका रही.
विपक्ष मोदी सरकार की विफलताओं को उजागर करने के लिए जो तरीके अपना रहा है, वो पहले भी नाकाम साबित हो चुके हैं. नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में जनता की अगुआई में चले आंदोलन में संयुक्त विपक्ष के किसी भी विरोध प्रदर्शन की तुलना में कहीं अधिक जोश दिखा था. ऐसा इसलिए था क्योंकि वो जमीनी स्तर से खड़ा किया गया आंदोलन था, न कि किसी विपक्षी पार्टी के हाईकमान द्वारा ऊपर से थोपा गया. विपक्ष को इस सरकार की नाकामियों की पोल जमीनी स्तर पर खोलने पर ध्यान देना चाहिए, और अपने कार्यकर्ताओं के सहारे घर-घर तक अपनी बात पहुंचानी चाहिए, क्योंकि ये ज़ाहिर हो चुका है कि उनके प्रचारोन्मुख विरोध कार्यक्रम अंततः ठंडा पड़ते जा रहे हैं.
विपक्ष की रणनीति में बदलाव क्यों महत्वपूर्ण है यह समझने के लिए बस ये देखें कि मोदी ने पिछले दिनों क्या किया- विरोध प्रदर्शनों के ज़ोर पकड़ने का पहला संकेत दिखते ही उन्होंने छह रबी फसलों के लिए एमएसपी में वृद्धि की घोषणा कर दी, और इसके बाद भाजपा कार्यकर्ताओं से कृषि विधेयकों को लेकर जागरूकता अभियान छेड़ने का आह्वान किया.
विपक्ष को इस बात का एहसास होना चाहिए कि अतीत के उसके अधिकतर आंदोलन मोदी सरकार की भारी नाकामियों को उजागर करने में विफल रहे हैं, जिनमें नोटबंदी और दोषपूर्ण जीएसटी कार्यान्वयन जैसी प्रमुख नीतिगत असफलताएं तथा कश्मीर और चीन के मुद्दे शामिल रहे हैं, और अब कृषि विधेयकों की बारी है. दरअसल विपक्ष आम मतदाताओं को यकीन दिलाने में नाकाम रहा कि मोदी सरकार की नीतियां वास्तव में कितनी खराब हैं. और, ऐसा इसलिए है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा का प्रोपेगंडा तंत्र, और उनके जमीनी कार्यकर्ता मोदी और उनकी नीतियों का प्रचार करने में कहीं अधिक प्रभावी सिद्ध होते हैं.
सरकार की विफलताओं को उजागर करने के अपने असफल प्रयासों पर सवाल पूछे जाने पर विपक्ष आमतौर पर चिढ़ जाता है. वह उन लोगों से ही सवाल करने लगता है जो कि उनसे जवाब चाहते हैं और उसकी दलील केवल सरकार को ही जिम्मेदार ठहराने की होती है. हां, सरकार की जवाबदेही बनती है, लेकिन जो सरकार पर अंकुश रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं, यदि वही एक-एक कर विभिन्न मुद्दों पर अपना संतुलन खोने लगें तो क्या फिर क्या होगा. विपक्ष की नाकामी के कारण सरकार आगे भी भारत के लिए अहितकर नीतियां बनाना जारी रखेगी.
आज चाहे कितने भी सवाल पूछे जाएं, यहां तक कि डेरेक ओ ब्रायन की तरह राज्यसभा में सदन के बीचोंबीच जाकर भी, लेकिन सरकार कोई जवाब नहीं देती है. केवल मतदाता ही मोदी एंड कंपनी से यह कहने में सक्षम हैं- ‘नहीं, आप ये सरासर गलत कर रहे हैं.’ लेकिन ऐसा तभी होगा जब विपक्ष जनता तक पहुंचना और उन्हें यह समझाना सीख जाए कि कैसे सरकार 2014 से ही निरंतर अर्थव्यवस्था से लेकर रोज़गार और किसानों तक का अहित कर रही है.
(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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