‘अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है’. 90 के दशक का भाजपा-वीएचपी का ये नारा 5 अगस्त के राम मंदिर भूमि पूजन दिवस के बाद एक बार फिर गूंज गया. लेकिन मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि के लिए चालू किए जाने वाले अभियान में सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश और बिहार के सेक्युलर नायकों- ‘हाउस ऑफ यादव’ के लिए होगी. आखिरकार यादव खुद को कृष्ण के वंशज मानते हैं.
लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव, मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव जैसे नेताओं के लिए ‘मथुरा अभियान’ का विरोध करना अधिक मुश्किल होगा. हालांकि, इस बार उनकी ‘धर्मनिरपेक्ष’ राजनीति का टेस्ट पहले की तरह नहीं किया जाएगा.
इस टेस्ट के साथ ही देश के धर्मनिरपेक्षता के संकल्प की भी परीक्षा ली जाएगी.
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अयोध्या के राम से लेकर मथुरा के कृष्ण तक
अयोध्या में राम मंदिर का विरोध यादव नेताओं के लिए अलग रहा. लालू यादव ने समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को रोक दिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया. आडवाणी को चुनौती देते हुए लालू ने तंज कसा था- ‘अगर आप दंगा यात्रा निकालियेगा तो हम छोड़ेंगे नहीं, आइए बिहार में, बताता हूं.’
दूसरी ओर, मुलायम सिंह यादव ने 1990 में हिंदुत्व कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया था. इसी घटना के बाद उनको ‘मुल्ला मुलायम’ का टैग मिला था. इन घटनाओं ने दोनों नेताओं को यूपी-बिहार में यादव-मुस्लिम समीकरण बनाने और भारतीय संविधान के मूल्यों की रक्षा के नाम पर चुनाव जितवाने में मदद की.
लेकिन अयोध्या में भूमि पूजन के बाद यादव नेता भी भाजपा के जश्न में शामिल होते दिखे और इस तरह उन्होंने लगभग तीन दशक की अपनी मंदिर-विरोधी और भाजपा विरोधी चुनावी राजनीति से कदम पीछे खींच लिए.
अब, उत्तर प्रदेश में अगले मंदिर की गूंज सुनाई दे रही है. सोशल मीडिया पर हिंदू हंसी वाले इमोजी और विक्ट्री साइन के साथ सेलिब्रेशन मोड में तो हैं ही साथ ही कृष्ण और अमित शाह की एकसाथ तस्वीरें भी शेयर कर रहे हैं. हालांकि कुछ लोगों को राम मंदिर बनने से इस बात की तसल्ली मिली है कि दशकों की मंदिर-मस्जिद राजनीति से छुटकारा मिला.
लेकिन ‘आई सपोर्ट नरेंद्र मोदी’ जैसे फेसबुक ग्रुप्स में हिंदू संकेत दे रहे हैं कि अयोध्या भूमि पूजन समस्त भारत के ‘हज़ारों मंदिरों’ को दोबारा हासिल करने वाले आंदोलन की एक शुरुआत भर है.
भाजपा नेता विनय कटियार ने भी स्पष्ट किया है कि अब काशी और मथुरा में मंदिरों का निर्माण भाजपा पार्टी के एजेंडे में है. गौरतलब है कि इस साल जून में लखनऊ के एक हिंदू संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जिसमें प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 में बदलाव की मांग की गई. ये एक्ट आज़ादी के बाद से देश के धार्मिक स्थलों की संरचना में बदलाव पर रोक लगाता है. लेकिन 1991 के अधिनियम में कोई भी संशोधन हिंदुओं को मथुरा और काशी में शाही ईदगाह और ज्ञानवापी मस्जिद के अधिग्रहण की सुविधा प्रदान कर सकता है. इसके बाद मुस्लिम संगठन जमियत-उलेमा-ए-हिंद ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है कि कोर्ट को हिंदू संगठन की याचिका को एंटरनटेन नहीं करना चाहिए.
इस बीच, हिंदुओं ने मथुरा आंदोलन की शुरुआत भी कर दी है. मथुरा में एक कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना भी कर दी गई है. इस ट्रस्ट के हेड आचार्य देव मुरारी ने कहा, ‘हम एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू करने जा रहे हैं.’
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यादव नेताओं के सेक्युलरिज्म का टेस्ट
ये सब बताता है कि यादव नेताओं के लिए कृष्ण जन्मभूमि आंदोलन एक अग्नि-परीक्षा होगी. शायद इसलिए समाजवादी पार्टी ध्यान रख रही है कि 2014 के बाद से भारतीय जनता पार्टी ने किस तरह की राजनीति शेप की है. सपा नेता अखिलेश यादव ने न केवल भूमि पूजन के दिन ‘जय सिया राम’ ट्वीट किया बल्कि वे अब भगवान परशुराम की 108 फुट ऊंची प्रतिमा भी स्थापित करना चाहते हैं.
चूंकि भाजपा ओबीसी वोट बैंक को तोड़ने के लिए काफी समय से लगी हुई है, ऐसे में ‘कृष्ण जन्मभूमि’ का मुद्दा यादव वोट बैंक की दुविधा को और गहरा कर सकता है. दूसरी ओर, आज सारे राजनीतिक दल ‘कमंडल’ में भी हिस्सेदारी लेने के भागादौड़ी कर रहे हैं. इस बाबत समाजवादी पार्टी के एक सदस्य ने मुझसे कहा, ‘अगर भाजपा कृष्ण मंदिर का वादा करती है तो उससे बड़ा मंदिर हम बनाएंगे.’
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कृष्ण- ‘यादव आइकन’
नब्बे के दशक के यूपी के ‘सेक्युलर नेताओं’ ने कृष्ण को दूसरों के हकों के लिए लड़ने वाले राजनीतिक यदुवंश नायक के तौर पर पेश किया था. क्योंकि माना जाता है कि कृष्ण यदुवंश से आते हैं. और मथुरा उनका शहर है. मथुरा व बृज, दोनों ही जगह यादव समुदाय की संख्या ठीक ठाक है.
लेकिन आमतौर पर कृष्ण को पिछड़ी जातियों के बारे में सोचने वाले एक ‘यादव आइकन’ के संदर्भ में स्थापित करने की कोशिश की जाती है. ब्रिटिश मानव विज्ञानी लुसिया मिशेलुट्टी 2002 में लिखी अपनी पीएचडी थीसिस ‘सन्स ऑफ कृष्ण: द पॉलिटिक्स ऑफ यादव कम्यूनिटी फोरमेशन इन द नॉर्थ इंडियन टाउन ‘ में कहती हैं, ‘भगवत गीता को यादवों की किताब के तौर पर चित्रित किया जाता है.’
वो एक सपा कार्यकर्ता प्रलाद यादव की बात का हवाला देते हुए लिखती हैं, ‘भगवदगीता सभी धर्मग्रंथों का सार है. यह भारतीय परंपरा, सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है. गीता का ज्ञान कृष्ण के मुख से निकला है, मतलब कि एक यादव के मुख से.’
लुसिया की थीसिस के अनुसार, साल 1999 में लालू प्रसाद यादव ने कृष्ण की व्याख्या करते हुए बताया था, ‘कृष्ण- एक ऐसा व्यक्ति जो अन्याय से लड़ने के लिए दृढ़ था. भगवान कृष्ण ने पिछड़े वर्गों, किसानों और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए लड़ाई लड़ी. भगवान कृष्ण वह व्यक्ति थे जो जेल में पैदा हुए थे और जिन्होंने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी.’
लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव अक्सर खुद को बांसुरी बजाने वाले रोमांटिक कृष्ण के रूप में स्थापित करने की कोशिश करते हैं. वो गायों के साथ अपनी तस्वीरें इंस्टाग्राम पर शेयर करते रहते हैं.
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले खबर आई थी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अयोध्या में राम की 100 मीटर ऊंची प्रतिमा की घोषणा करने के बाद अखिलेश यादव ने सीक्रेटली गृहक्षेत्र सैफई में 50 फुट ऊंची कृष्ण की प्रतिमा के लिए काम करना शुरू कर दिया था.
आख़िरकार, देखने वाली बात रहेगी मथुरा कृष्ण जन्मभूमि अभियान के दौरान यादव राजनीति कैसे बदलती है. यादव राजनीति का रुख यूपी की राजनीति में बड़ा बदलाव लेकर तो आएगा ही साथ ही नए युग में पुराने धर्मनिरपेक्ष भारत की प्रासंगिकता के बारे में स्थिति साफ करेगा. अगर पारंपरिक राजनीतिक दल शाही ईदगाह और ज्ञानवापी मस्जिदों की सुरक्षा और मुस्लिम हितों की अनदेखी करेंगे तो एक राजनीतिक स्पेस खाली होगा. इस राजनीतिक स्पेस को कौन भरेगा, ये बात कोई नहीं जानता.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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