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बुधवार, 7 मई, 2025
होममत-विमतऑपरेशन सिंदूर का फोकस हथियार थामने वाले हाथों पर है, न कि उन दिमागों पर जो इन हाथों को कंट्रोल करते हैं

ऑपरेशन सिंदूर का फोकस हथियार थामने वाले हाथों पर है, न कि उन दिमागों पर जो इन हाथों को कंट्रोल करते हैं

इन हमलों का मकसद सिर्फ डर पैदा करना (डिटरेंस) नहीं लगता. अगर ऐसा होता, तो निशाना पाकिस्तान की सेना, खास तौर पर पाकिस्तानी आर्मी पर होता.

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यह तो स्पष्ट नहीं है कि भारत का ‘ऑपरेशन सिंदूर’ क्या हासिल करने के लिए किया गया, लेकिन इसका लक्ष्य पाकिस्तान में ऐसा खौफ पैदा करना तो कतई नहीं दिखता कि वह कोई कार्रवाई करने से बाज आए. भारत के संसद भवन पर हमले के साथ पाकिस्तान ने जोरदार आतंकवादी हमलों का जो सिलसिला शुरू किया था उसके बाद बीते 25 वर्षों में भी भारत आतंकवादी रणनीति का जवाब देना नहीं सीख पाया है. इसलिए इस बात की कम ही संभावना है कि भारत को बालाकोट जैसे पिछले सर्जिकल स्ट्राइक से जो हासिल हुआ था उसके मुक़ाबले ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से कोई बेहतर नतीजा हासिल होगा. इसका अर्थ यह हुआ कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ आगे भी भारत में पाकिस्तानी फौज द्वारा प्रायोजित आतंकवादी हमलों को रोक नहीं पाएगा.

बालाकोट के मुक़ाबले ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में ज्यादा आतंकी अड्डों को निशाना बनाया गया, लेकिन यह कोई बड़ी सांत्वना की बात नहीं है. महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कितने ठिकानों पर हमला किया गया, बल्कि यह है कि हमलों से क्या हासिल करने का इरादा है, और चेताने वाली कार्रवाई का लक्ष्य कौन है.

आतंकवादी इन्फ्रास्ट्रक्चर काफी सीमित होता है और उसे बड़े नुकसान के बाद भी आसानी से दोबारा खड़ा किया जा सकता है. इस तामझाम को कितना नुकसान पहुंचाया गया वह भी बहस का मुद्दा बन सकता है जबकि इससे ज्यादा महत्वपूर्ण इस सवाल की उपेक्षा की जा सकती है कि क्या दुश्मन को इतना खौफ़ज़दा किया गया कि वह बाज आ जाए?

खौफ पैदा करना लक्ष्य नहीं

ऐसा लगता है कि दुश्मन के अंदर खौफ पैदा करना इन हमलों का लक्ष्य नहीं था. अगर यह लक्ष्य होता तो निशाने पर पाकिस्तान की सैन्य शक्ति, खासकर पाकिस्तानी सेना होती. अगर वास्तव में यह लक्ष्य होता तो यह दावा करने का कोई मतलब नहीं था कि लक्ष्य पाकिस्तानी सैन्य शक्ति पर नहीं बल्कि आतंकवादी ठिकानों पर हमला करना था. बालाकोट मामले में, भारत ने दावा किया था कि उसने आसन्न आतंकवादी हमले को नाकाम करने के लिए हमला किया था. आज, भारत साफ तौर पर कह रहा है कि वह पाकिस्तानी सैन्य शक्ति को निशाना नहीं बना रहा है. इन स्पष्टीकरणों के अलावा ये ताजा हमले यही दर्शाते हैं कि भारत संघर्ष को बढ़ाना नहीं चाहता.

समस्या यही है. दुश्मन में खौफ दरअसल संघर्ष में निश्चित बढ़ोतरी के खतरे पर आधारित होता है. अगर भारत संघर्ष बढ़ाना नहीं चाहता, तो यह इस बात का साफ संकेत है कि पाकिस्तानी सेना में खौफ पैदा करना उसका लक्ष्य नहीं है. अगर ऐसा है तो यह सिर्फ जवाबी कार्रवाई है. और पाकिस्तान इन चिढ़ाऊ जवाबी हमलों की परवाह न करते हुए आगे भी हमले करता रह सकता है.

इसके अलावा, इस स्पष्टीकरण से ऐसा लगता है कि आतंकवादी तो पाकिस्तानी सेना और पाकिस्तानी सरकार के एजेंट नहीं बल्कि स्वतंत्र तत्व हैं. यह निश्चित ही भारत का तर्क नहीं हो सकता. इन हमलों के निशाने पर वे हाथ हैं जो बंदूक उठाए हुए हैं, वे दिमाग निशाने पर नहीं हैं जो उन हाथों को नियंत्रित करते हैं.

भारत इन हमलों को खौफ पैदा करने के उद्देश्य से प्रेरित नहीं मानता, इसका एक संकेत यह भी है कि ये आतंकवादी हमले दशकों से जारी हैं फिर भी भारत के नीति निर्माताओं ने सेना को इस तरह से तैयार नहीं किया है कि वह इन हमलों का इतना तीखा जवाब दे सके जो खौफ पैदा कर दे. अगर एक दर्जन से भी कम मिसाइलों से जवाब देने में दो सप्ताह का समय लग जाता है तो यह आतंकवादी हमलों का जवाब देने की भारत की तैयारी के बारे में बुरी धारणा बनाता है.

पाकिस्तान को रोकने के लिए जमीनी हमले जैसे महंगे ऑपरेशनों की तैयारी करने और उन्हें अंजाम देने की जरूरत होगी. यह भारत के लिए बेशक महंगा साबित होगा लेकिन यह पाकिस्तानी सेना को तबाह कर देगा. लेकिन इसके लिए वर्षों की योजना और तैयारी की जरूरत पड़ेगी, किसी आतंकवादी हमले के बाद फोटो खिंचवाने भर के लिए चंद उच्चस्तरीय बैठकों से काम नहीं चलने वाला.

यह एक तथ्य है कि पाकिस्तान को कहीं ज्यादा कीमत अदा करने पर मजबूर करने के लिए भारत को भी कीमत अदा करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा, और यही दुश्मन में खौफ़ पैदा करने की रणनीति को विश्वसनीयता प्रदान करेगा. तकलीफ भुगतने की तैयारी ही गंभीरता और संकल्प का परिचय देती है. अपनी तैयारी की कमी और संघर्ष बढ़ जाने को लेकर अपने डर के कारण भारत यह संकेत दे रहा है कि दुश्मन में खौफ़ पैदा करना उसका लक्ष्य नहीं है. इसके विपरीत चीन को देखिए, वह ताइवान को जीतने के लिए कितने वर्षों से तैयारी कर रहा है, और उसकी तैयारी इतनी बड़ी है कि अब वह युद्ध लड़े बिना भी उस देश को अपने कब्जे में ले सकता है.

सिंधु जल संधि को स्थगित करने के कदम का कुछ असर पड़ सकता है, लेकिन इसका वास्तविक नुकसान शुरू होने में लंबा समय लग सकता है. इस मामले में भी गंभीरता की साफ कमी दिखती है क्योंकि इसके लिए पहले से कोई तैयारी नहीं की गई. भारत पानी रोकने की तैयारी कई साल पहले शुरू कर सकता था ताकि संधि को रद्द करने की धमकी को भी गंभीरता से लिया जाता.

इसके अलावा, भारत के लिए खतरा चीन की ओर से जवाबी कार्रवाई का भी है. यह कदम चीन को ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने का औचित्य प्रदान करता है.

जैसा कि होता रहा है, कूटनीति का सीमित प्रभाव ही पड़ेगा. यह उम्मीद रखना नादानी ही होगी कि दूसरे देश भारत की जवाबी कार्रवाइयों को मान्यता देंगे या वे पाकिस्तान पर लगाम कसेंगे. संयुक्त राष्ट्र के मंच पर तीखी लफ्फाजी घरेलू खपत के लिए भले ठीक हो, इससे पाकिस्तान को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.

वैसे, रणनीतिक दृष्टि से पाकिस्तान को इन आतंकवादी हमलों से बेशक बहुत फायदा नहीं होने वाला है. इससे कश्मीर मसला तो हल नहीं ही होने वाला है, न ही इससे सुई उस दिशा में घूम जाएगी जिसे पाकिस्तान अपने लिए सकारात्मक मान सके. न ही इससे भारत की आर्थिक वृद्धि की धीमी मगर निरंतर जारी रफ्तार में कोई कमी आएगी. न ही दोनों देशों के बीच शक्ति की जो बढ़ती असमानता है उसमें कोई फर्क पड़ने वाला है. कश्मीर विवाद और आतंकवाद के जुनून ने कई मायनों में भारत से ज्यादा पाकिस्तान को ही नुकसान पहुंचाया है. उसकी इस रणनीति ने उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा तो गिराई ही; उसे घरेलू स्तर पर सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक मोर्चे पर भी बड़ी कीमत चुकाने को मजबूर किया. पाकिस्तान का धीरेधीरे जो पतन हुआ है उसका इन फैसलों से भी काफी कुछ लेनादेना है. लेकिन पाकिस्तानी सेना का मानना है कि उसके संस्थागत हित राष्ट्रीय हित से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं . वह दोनों हितों में घालमेल करती रही है.

बहरहाल, पाकिस्तान ऐसे हमले करता रहेगा क्योंकि भारत के जवाबी हमलों के कारण अदा की जाने वाली सीधी कीमत काफी सीमित होती है. वह ऐसे किसी गणित के कारण खुद को सीमित नहीं करेगा जिसमें भारत के प्रतिकार का हिसाब रखा जाता हो. भारत जब तक संघर्ष के तेज होने के खतरे से डरता रहेगा, जिसके साफ संकेत वह दे भी चुका है, तब तक वह पाकिस्तान की शह पर होने वाले आतंकवादी हमलों को रोकने के बारे में सोचना छोड़ ही दे. वास्तव में, इस तरह के जवाबी हमले एक समस्या भी बन सकते हैं क्योंकि चीन की ओर से कार्रवाई भी एक पहलू बन सकता है.

राजेश राजगोपालन जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU), नई दिल्ली में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RRajagopalanJNU है. ये उनके निजी विचार हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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