भारत ने दूर से मार करने वाले हथियारों के बूते हाई टेक्नोलॉजी वाला जो पहला युद्ध ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के नाम से लड़ा उसमें भाग लेने वाले सैनिकों को 14 अगस्त को समुचित रूप से सम्मानित किया गया. सरकार ने 127 सैनिकों को वीरता पुरस्कार, 40 सैनिकों को विशिष्ट सेवा पुरस्कार, और 290 सैनिकों को ‘मेनशन इन डिस्पैच’ सम्मान से सम्मानित करने की घोषणा की. 1971 के बाद, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ सैनिकों के लिए सबसे शानदार अवसर साबित हुआ, और वे इन पुरस्कारों के सच्चे हकदार थे.
हैरानी की बात यह है कि इन पुरस्कारों के साथ जो प्रशस्ति (साइटेशन) पत्र होता है, जिसमें उन परिस्थितियों का उल्लेख होता है जिनके लिए सैनिक को वीरता पुरस्कार या विशिष्ट सेवा सम्मान आदि से सम्मानित किया जाता है उन पत्रों को सार्वजनिक नहीं किया गया है. इन पुरस्कारों की स्थापना के बाद ऐसा शायद पहली बार किया गया है. इसके अलावा, इस कार्रवाई में मारे गए या घायल हुए सैनिकों की सूची भी औपचारिक रूप से जारी नहीं की गई है. देशवासियों को अपने नायकों की वीरता के ब्योरों से, और शहीदों के परिवारों के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करने के अवसर से वंचित किया गया है.
युद्ध में विजय के बाद इस तरह के कदमों से अटकलें ही तेज होती हैं और दुश्मन को अपना प्रचार और अपने दावे करने का मौका मिलता है. इससे यह संकेत मिलता है कि विफलताओं के साथ घालमेल किया जा रहा है और सफलताओं को सम्मानित करके उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है. सेना के साथ मिलकर कुछ सरकारें ऐसी अनुचित कार्रवाई कर चुकी हैं. इसका नतीजा यह होता है कि पुरस्कारों का अवमूल्यन होता है और सैनिकों का मनोबल भी गिरता है.
‘ऑपरेशन सिंदूर’ में किसी सीमारेखा का उल्लंघन नहीं किया गया, दुश्मनों से कोई सीधी टक्कर नहीं हुई, सैनिकों से ज्यादा दूसरे नागरिक मारे गए, और सारे हमले दूर से किए गए, सिवा कुछ ऐसे हमलों के जो एलओसी के पास से किए गए. इसलिए ऐसा लगता है कि पुरस्कार ‘वेपन प्लेटफॉर्मों’ के तकनीकी कौशल के लिए या मिशन पूरा करने के लिए दिए गए.
इससे यह विवादास्पद सवाल उभरता है कि क्या ऐसी कार्रवाईयां वीरता पुरस्कार की शर्तों को पूरा करती हैं, जिनके लिए दो शर्तें जरूरी हैं: ‘दुश्मन की मौजूदगी या उससे सामना’ और ‘आत्म बलिदान, शौर्य, साहस, और वीरता का प्रदर्शन’?
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के लिए जिन्हें सम्मानित किया गया है उनमें से अधिकतर इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते, क्योंकि विशाल युद्धक्षेत्र में मौजूद सभी सैनिक दुश्मन के दूर से मार करने वाले हथियारों की जद में आते हैं. ऐसे में, उच्च टेक्नोलॉजी वाले युद्धक्षेत्र में वीरता के और मिशन पूरा करने वाली कार्रवाई के असाधारण कारनामों की पहचान कैसे की जाए? दुनियाभर में सेनाएं इस समस्या से जूझ रही हैं और सुधारों को लागू कर रही हैं.
सैनिक मान्यता के हकदार हैं
युद्ध देश और उसके हितों की सुरक्षा के लिए लड़े जाते हैं, और सेनाएं ही इनमें मुख्य कार्रवाई करती हैं. सैनिक अपनी जान की बाजी लगाकर यह सुरक्षा प्रदान करते हैं. अनंत काल से, तमाम देश युद्ध में अपने सैनिकों के शौर्य के विभिन्न रूपों के प्रति आभार और समान प्रदर्शित करते रहे हैं. समय के साथ इनमें विकास होता रहा और पुरस्कारों की वर्तमान व्यवस्था स्थापित हुई. ये पुरस्कार सैनिकों को प्रेरणा देते रहे हैं और उन्हें वे अपने सीने पर शान से प्रदर्शित करते रहे हैं.
नेपोलियन ने कहा था: “इन तमगों और रिबनों को आप सस्ते गहने कहते हैं; लेकिन इन चीजों के बल पर ही लोगों का नेतृत्व किया जाता है.”
सभी सूचीबद्ध सैनिकों को एक अभियान मेडल, और युद्ध में जाने वाले सैनिकों को स्टार के आकार का एक अतिरिक्त मेडल दिया जाता है. सेना की यूनिटों और फॉर्मेशंस को थिएटर सम्मान दिया जाता है जो उनके ध्वजों या कलर्स में अलंकृत होता है. साहसी-से-भी-साहसी सैनिक को विभिन्न श्रेणियों के वीरता पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है. जो युद्ध में सीधे भाग नहीं लेते बल्कि प्लानिंग, कमांड व कंट्रोल, और सैन्य व्यवस्था से जुड़े होते हैं उन्हें विशिष्ट सेवा सम्मान दिया जाता है. किसी कार्रवाई में घायल या मारे गए सैनिकों को भी मेडल से या दूसरी तरह से सम्मानित किया जाता है.
ये पुरस्कार सैनिकों को पदोन्नति देने के साथ-साथ जीवन भर के लिए काफी आमदनी दिलाने में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं. इस सबसे ऊपर, राज्य सरकारें भी वीरता और विशिष्ट सेवा पुरस्कार पाने वाले सैनिकों को जीवन भर के लिए मासिक नकदी के साथ-साथ एकमुश्त बड़ा भुगतान भी देती हैं.
पुरस्कार प्रक्रिया की खामियां
पुरस्कारों के लिए चयन की विस्तृत प्रक्रिया की जानकारी मेरे इस पिछले लेख में मिलेगी. कम-से-कम ऊपर से तो यही लगता है कि पुरस्कारों के बारे में प्रक्रिया बिलकुल निर्दोष है. कमांड की पूरी शृंखला से गुजरने के बाद चयन को अंतिम मंजूरी राष्ट्रपति देते हैं. लेकिन जैसा कि सभी व्यवस्थाओं में होता है, असली समस्या प्रक्रिया पर अमल में पैदा होती है जिसमें मानवीय गलती का पूरा हाथ होता है.
विभिन्न पुरस्कारों के लिए शर्तें बिलकुल इतनी सामान्य हैं कि उनकी तरह-तरह से व्याख्या की जा सकती है. वीरता की कार्रवाई की औपचारिक सबूत के बूते जांच करने की कोई प्रक्रिया निर्धारित नहीं है. इसलिए सिफारिशें व्यक्तिगत हो सकती हैं. हमारी व्यवस्था जितनी अनुशासित है उसमें तीनों सेनाओं के अंदर यूनिटें या उनके समकक्ष संगठन ज्यादा से ज्यादा वीरता पुरस्कार हासिल करना चाहते हैं. इससे बढ़-चढ़कर और झूठे दावे करने को प्रोत्साहन मिलता है. इस सीरीज में कमांडर संतुलन बनाने की कोशिशें करते हैं लेकिन अपने फॉर्मेशन या रेजीमेंट के प्रति वफादारी, निजी गौरव आदि के आगे वे हार जाते हैं. उनके कमांड के सैनिकों को अधिक पुरस्कार मिलेगा तो उन्हें भी पुरस्कार मिलने की संभावना बढ़ती है.
नकारात्मक सिफ़ारिशों के कारण प्रतिबंध की छूट नहीं दी जाती है. इसलिए सेनाओं के मुख्यालयों में पुरस्कार के लिए सिफ़ारिशें बड़ी संख्या में पहुंचती हैं. यूनिटें और फॉर्मेशन वीरता के कामों के लिए बहुत बढ़ा-चढ़ा कर और काल्पनिक प्रशस्ति पत्र लिखने में एक-दूसरे से मुकाबला करती हैं. कमांड और सेना मुख्यालयों में संतुलन साधने की कोशिश की जाती है लेकिन बड़े दावों और बड़ी संख्या के कारण पूरी व्यवस्था एक लॉटरी का रूप ले लेती है.
आज हाई टेक्नोलॉजी तथा दूर से मार करने वाले हथियारों के बूते लड़े जाने वाले युद्ध में आमने-सामने की लड़ाई दुर्लभ हो गई हैं. इसलिए वीरता को परिभाषित करना मुश्किल हो गया है और इसे मिशन की कामयाबी या एक्शन के दौरान मारे जाने से परिभाषित किया जाने लगा है, चाहे ये किसी भी हालात में हुए हों. बालाकोट हमले को अंजाम देने वाले पांच पायलटों और तीन फ्लाइट कंट्रोलरों को युद्ध क्षेत्र में मिशन को सफल बनाने के लिए प्रतिष्ठित ‘युद्ध सेवा मेडल’ से सम्मानित किया गया. विंग कमांडर अभिनंदन वर्द्धमान को उनके शौर्य के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो उचित ही था.
इसके विपरीत यह देखिए कि इन्हीं परिस्थितियों में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ में ऑपरेट करने वाले नौ पायलटों को वीरता के लिए वीर चक्र से सम्मानित किया गया. वर्तमान व्यवस्था में, युद्ध में मिशन पूरी करने को विशेष मान्यता देने की व्यवस्था नहीं की गई है, जिसे वैसे वीरता पुरस्कार के लिए मान्य नहीं किया जाता. ‘मिशन पूर्ण’ को युद्ध में विशिष्ट सेवा के लिए दिए जाने वाले ‘सर्वोत्तम/उत्तम युद्ध सेवा मेडल’, ‘युद्ध सेवा मेडल और ‘सेना मेडल/वायुसेना मेडल’ जैसे पुरस्कारों की श्रेणी में रखा गया है.
समस्या तब जटिल हो जाती है जब सेना और जनता की भावना खासकर उच्चस्तरीय ऑपरेशनों में मारे जाने को वीरता मान लेती है. इसका बढ़िया उदाहरण दो पायलटों को वीरता के लिए वायुसेना मेडल से, 27 फरवरी 2019 को कश्मीर के बडगाम में ‘दोस्ताना गोलीबारी’ में गिरे अभागे Mi-17 V5 हेलिकॉप्टर के चार कर्मियों को ‘मेनशन इन डिस्पैच’ से सम्मानित किया गया. 2008 में मुंबई में हुए हमलों के दौरान अचानक हुए एनकाउंटर में बिना कोई जवाबी गोली चलाए मारे गए हेमंत करकरे को अशोक चक्र से सम्मानित किया जाना भी इसी श्रेणी में आता है.
कभी-कभी बड़ी असफलताओं को छुपाने के लिए सेना के कमांडर लड़ाई का काल्पनिक विवरण पेश करते हैं और इसे साबित करने के लिए कई वीरता और खास सेवा पुरस्कार दे देते हैं. ऐसा ही कुछ तब होता है जब किसी जोरदार लड़ाई या वीरता के प्रदर्शन के बिना ही बड़ी कामयाबी हासिल करने पर ज़ोर दिया जाता है. तब शौर्य गौण हो जाता है. यह बुराई तब और बड़ी हो जाती है जब सरकारें युद्ध में कामयाबी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने या नाकामी को छिपाने के लिए वीरता या विशिष्ट सेवा पुरस्कारों का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करती हैं. ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के मामले में यह प्रवृत्ति साफ नजर आती है.
युद्ध में मारे जाने वाले या घायल होने वाले सैनिकों का अनुपात छोटा होता है. किसी लड़ाई में घायल होने वाले सैनिकों को तो मान्यता दी जाती है लेकिन किसी ‘एक्शन’ में मारे गए सैनिक को कोई मेडल नहीं मिलता. लेकिन इस तरह मारे जाने वाले सैनिक बेहतर मान्यता के हकदार हैं.
युद्ध में या शांतिकाल में विशिष्ट सेवा के लिए दिए जाने वाले अधिकतर पुरस्कार वरिष्ठ अधिकारी ले जाते हैं. ‘सर्वोत्तम युद्ध सेवा मेडल’ की स्थापना 45 साल पहले हुई थी. तब से अब तक यह मेडल जितने सीनियर ऑफिसर को दिया गया है उनसे दोगुने, सात सीनियर ऑफिसर को अकेले ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के लिए दिया जाना इस बात को ही सिद्ध करता है. जूनियर अफसरों, या अफसर से निचले रैंक के सैनिकों को विशिष्ट सेवा के लिए कोई मान्यता नहीं दी जाती या बिलकुल मामूली मान्यता दी जाती है.
क्या-क्या करना बहुत जरूरी है
सरकार और सेनाओं को सभी श्रेणी के पुरस्कारों के लिए चयन की प्रक्रिया की गहन समीक्षा करनी चाहिए. वीरता पुरस्कार की प्रक्रिया को बेहतर बनाया जाए और उसके लिए स्वतंत्र जांच की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा उसे पवित्र माना जाए. किसी भी हालत में उसे कमतर न माना जाए या उसे मिशन की कामयाबी, लड़ाई या उससे जुड़े हादसे में सैनिक के मारे जाने या घायल होने या सेना की विफलता को छिपाने या कामयाबी को बढ़ा-चढ़कर पेश करने के लिए न दिया जाए. किसी भी उल्लंघन के खिलाफ सैन्य कानून का इस्तेमाल किया जाए.
ये नियम खास सेवा पुरस्कारों पर भी बराबर लागू होते हैं. राजनीतिक या सैन्य प्रचार के लिए वीरता या खास सेवा पुरस्कारों की अहमियत को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए.
जिसमें दूर से मार करने वाले हथियारों की प्रमुखता होती है और सीधी टक्कर नहीं होती, उस उच्च टेक्नोलॉजी वाले युद्ध में मिशन पूरा करने के लिए एक अलग श्रेणी का पुरस्कार स्थापित किया जाए. इस तरह के पुरस्कार को वीरता पुरस्कार से एक स्तर नीचे रखा जाए और इसके तहत पेशेवर मान्यता और नकद लाभ दिया जाना चाहिए.
युद्ध क्षेत्र में एक्शन के दौरान या उससे जुड़े हादसे में मारे जाने और घायल होने वाले सभी सभी सैनिकों के लिए एक मेडल निश्चित किया जाना चाहिए. इसके साथ विशिष्टता की उपयुक्त पकड़ होनी चाहिए. ये गुमनाम नायक कहीं ज्यादा मान्यता के हकदार हैं.
लड़ाई में सैनिक की नजर से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता. किसी भी सेना के मनोबल को सबसे बुरा झटका तब लगता है जब वह किसी कमांडर या किसी सहकर्मी को संदिग्ध परिस्थिति में वीरता मेडल से सम्मानित होता देखता है. यहां मैंने जो भी लिखा है वह खामी की महज एक झलक है. जब तक पुरस्कार प्रणाली की कमियों को दूर नहीं किया जाता, तब तक हम बैरक के कमरों में पनपती इस सोच को सच मानते रहेंगे कि लड़ाईयां गुमनाम नायक ही जीतते हैं.
लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.
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