बीजेपी और केंद्र सरकार जब 5 अगस्त को अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमि पूजन की तैयारियों में व्यस्त हैं और पूरा मीडिया इसे देश का सबसे बड़ा मुद्दा बना चुका है, तब एक शख्स रांची के राजेंद्र इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस अस्पताल के वार्ड में बैठा ये सब होता देख रहा है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद इस समय पशुपालन घोटाले में सजा काट रहे हैं. सेहत खराब होने के कारण उन्हें अस्पताल में रखा गया है. कोराना से बचाने के लिए उन्हें जेल से बाहर रखने की उनके डॉक्टर की अर्जी खारिज हो चुकी है.
लालू यादव शायद अब से ठीक 30 साल पहले के घटनाक्रम को याद कर रहे होंगे, जब उन्होंने बीजेपी के राम रथ के घोड़े को लगाम लगा दी थी और बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी को नजरबंद कर लिया था.
लालू यादव ऐसे समय में जेल में हैं, जब एक तरफ बीजेपी राम मंदिर को लेकर राजनीति का पारा चढ़ा रही है और दूसरी ओर बिहार में आने वाली सर्दियों में विधानसभा चुनाव की तैयारियां जोर पकड़ने लगी हैं. चुनाव आयोग समय पर चुनाव कराने के मूड में लगता है और राजनीतिक पार्टियां कोराना काल की पाबंदियों के बीच चुनावी तैयारियों में जुट गई हैं.
बिहार चुनाव में राममंदिर का मुद्दा
बीजेपी ने राममंदिर के भूमि पूजन के लिए जो समय चुना है, उसके बाद शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती कि तात्कालिक तौर पर उसके निशाने पर बिहार के चुनाव हैं. केंद्र सरकार द्वारा राम मंदिर ट्रस्ट में बिहार के बीजेपी के दलित नेता कामेश्वर चौपाल को रखना अनायास नहीं है. ट्रस्ट में वे एकमात्र दलित सदस्य हैं.
ये कहना मुश्किल है कि लालू यादव अगर इस समय जेल में नहीं होते, तो बीजेपी की मंदिर राजनीति की क्या काट निकालते. ये सवाल इसलिए नहीं पूछा जा सकता क्योंकि अगर लालू प्रसाद परोल या फरलो पर जेल से बाहर आने की अर्जी लगाते भी हैं तो एजेंसियां इसका विरोध करेंगी. सरकार कतई नहीं चाहेगी कि लालू यादव इस दौरान बाहर रहें. उनके जेल में रहने से बीजेपी के नेताओं को भी सुकून मिलता है.
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लालू यादव को लेकर बीजेपी का खौफ निरर्थक नहीं है. आखिर वे लालू यादव ही तो थे, जिन्होंने सिर्फ 42 साल की उम्र में, जबकि उन्हें पहली बार मुख्यमंत्री बने लगभग आधा साल ही हुए थे, बीजेपी के राम रथ को रोकने का दुस्साहस दिखाया था. बीजेपी ने 1986 में ये तय कर लिया था कि आने वाले समय में उसकी राजनीति के केंद्र में राम मंदिर होगा. इसी मकसद से बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या पथ पर रथयात्रा निकालने का फैसला किया. उनकी यात्रा के साथ ही देश में सांप्रदायिक माहौल बेहद गर्म हो गया और यात्रा मार्ग और आसपास दंगे भड़क उठे.
लेकिन ये दिलचस्प है कि उस समय किसी भी राज्य सरकार ने उनके रथ को रोकने का साहस नहीं किया. ये काम लालू यादव ने कर दिखाया. उनके आदेश पर आडवाणी को समस्तीपुर में 23 अक्टूबर, 1990 को गिरफ्तार करके नजरबंद कर लिया गया. इस तरह बीजेपी का अभियान असफल हो गया और लालकृष्ण आडवाणी की अपराजेय नेता की छवि भी ध्वस्त हो गई.
लालू यादव का राजनीतिक-सामाजिक समीकरण
गौर कीजिए कि बिहार में 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग हिंदू हैं. इसके बावजूद लालू यादव ने राममंदिर के अभियान को रोक दिया और हिंदुओं का ज्यादातर वोट वे हासिल करते रहे. इसके लिए उन्होंने सेकुलरिज्म के साथ सामाजिक न्याय का ऐसा ताना-बाना बुना, जिसकी काट बीजेपी बिहार में आज तक नहीं निकाल पाई है. लालू यादव का ऐसा रुतबा बना कि पिछले 30 साल में लगभग 22 साल वे केंद्र और राज्य में सत्ता में रहे. उनकी पार्टी ने 1990, 1995, 2000 और 2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव जीते. इसके अलावा वे 2004 से 2009 तक देश के रेल मंत्री रहे. लालू ने ये करिश्मा तब किया है, जब मीडिया से लेकर जांच एजेंसियां और समाज में ओपिनियन बनाने वाले ज्यादातर लोग उनके खिलाफ रहे हैं.
2005 और 2010 में लालू यादव की पार्टी विधानसभा चुनावों में हार गई, लेकिन जीत और हार से परे बिहार की राजनीतिक लालू यादव के इर्द-गिर्द घूमती रही है. बिहार का चुनाव या तो लालू को जिताने के लिए होता है या लालू को हराने के लिए. नीतीश कुमार की भी एकमात्र ताकत ये है कि वे लालू यादव को रोक पाने में सक्षम राजनेता माने जाते हैं, वरना विकास से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून-व्यवस्था के मामले में उन्होंने कोई चमत्कारिक काम नहीं किया है.
गौर करें कि बिहार उत्तर भारत की विशाल हिंदी पट्टी का एकमात्र राज्य है, जहां आज तक कभी बीजेपी का मुख्यमंत्री नहीं बना है.
बीजेपी को 1990 ही नहीं, 2015 की लालू के हाथों मिली हार की भी कसक है. ये चुनाव 2014 में केंद्र की सत्ता में नरेंद्र मोदी के आने के बाद हुए. माना जाता है कि उस समय देश में मोदी लहर थी. बीजेपी को ऐसा लगा कि वह बिहार में अपने दम पर सरकार बना लेगी और इसके लिए उसने अपनी पूरी ताकत झोंक दी. प्रधानमंत्री और बीजेपी के लगभग हर केंद्रीय मंत्री ने बिहार में प्रचार किया. माहिर रणनीतिकार लालू यादव ने इसकी काट के लिए अपनी रणनीति बनाई. पार्टी के तात्कालिक हितों को कुर्बान करके उन्होंने नीतीश कुमार के साथ तालमेल कर लिया और उन्हें मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया.
इस बीच आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत को जाने क्या सूझी कि उन्होंने आरक्षण को लेकर ये बयान दे दिया कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए. इस मुद्दे को लालू यादव ने लपक लिया और इसे बिहार चुनाव का प्रमुख मुद्दा बना दिया. नतीजा ये रहा कि बीजेपी 243 सदस्यीय विधानसभा में 53 सीटों पर सिमट गई. आरजेडी 82 एमएलए के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. ये एक और दास्तान है कि नई सरकार के दो साल बीतते-बीतते नीतीश कुमार ने हारी हुई पार्टी बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. लेकिन बीजेपी अच्छे से जानती है कि 2015 में उसे लालू यादव ने हराया था.
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ये कोई नहीं कह सकता कि अगले चुनाव को लेकर लालू यादव क्या रणनीति बनाएंगे. हालांकि जेल में सीमित लोग ही उनसे मिल पाते हैं, लेकिन जब भी तेजस्वी या आरजेडी के अन्य नेता उनसे मिलने जाएंगे तो लालू यादव उन्हें कोई तरीका सुझा सकते हैं. हो सकता है कि वे फिर से सेकुलरिज्म और सामाजिक न्याय का ऐसा कोई फॉर्मूला निकालें, जिसकी काट निकालना बीजपी के लिए मुश्किल हो जाए. वहीं ये भी मुमकिन है कि विजय पथ पर अबाध दौड़ते बीजेपी के रथ को रोक पाना लालू यादव के लिए इस बार मुमकिन न हो. खासकर तब जबकि उनकी सेहत ठीक नहीं है और कोराना काल में ज्यादा लोग उनसे मिल भी नहीं सकते.
लालू के बिना मंदिर के सवाल पर केंद्र में भी कोई ढंग की राजनीति हो नहीं पा रही है. ज्यादातर सेकुलर दल पस्त हैं और इस आशंका में जी रहे हैं कि अगर उन्होंने मंदिर पर कुछ ऐसा-वैसा बोल दिया, तो कहीं हिंदू वोट नाराज न हो जाए. राममंदिर के लिए निकाले गए रथ को रोककर भी ज्यादातर हिंदू वोट लेने वाले लालू यादव की कमी इस दौर में खलेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)