बच्चे की परवरिश के लिए एक गांव चाहिए होता है. शिक्षा इतनी अहम है कि उसे ऑनलाइन लर्निंग के हवाले नहीं किया जा सकता. बच्चे के विकास के लिए उसकी अलग-अलग लोगों, सीखने के तरीक़ों, और लक्ष्यों तक पहुंच होनी चाहिए. कोरोनावायरस महामारी के चलते 1.2 अरब बच्चों के क्लास रूम से बाहर रहने से, ऑनलाइन पढ़ाई को एक जादुई समाधान की तरह देखा जा रहा है. ऐसा बिल्कुल नहीं है- ये एक अनुपूरक है, रक्षक नहीं है. कोरोनावायरस की दुनिया में, हमें अपने प्रयास दोगुने कर देने चाहिएं, ताकि हमारे बच्चों को मानव-केंद्रित पढ़ाई मुहैया कराई जा सके.
सबसे अच्छी पढ़ाई फ़िज़िकल है, वर्चुअल नहीं
शिक्षा का उद्देश्य युवाओं को एक उपयोगी और काम में लगे नागरिक के तौर पर, कामयाब जीवन जीने के लिए तैयार करना है. नौजवान लोगों को ज़रूरत होती है अच्छा और संतोषजनक काम तलाशने की, और उन प्रमुख मुद्दों को समझने की, जो उनके जीवन को प्रभावित करते हैं. ऑनलाइन लर्निंग बेसिक कौशल को विकसित करने में मदद कर सकती है, लेकिन ये आपके अंदर जिज्ञासा, गहन सोच और इमोशनल इंटैलिजेंस पैदा नहीं करती, जो 21वीं सदी में एक उच्च कामकाजी वयस्क के लिए ज़रूरी हैं.
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ज़्यादातर पढ़ाई खेल से प्रेरित होती है. बच्चे स्वभाव से ही जिज्ञासु होते हैं-वो अपनी दुनिया को जानना और समझना चाहते हैं. बचपन की अच्छी शिक्षा, खेलने, खोजने, और सीखने का माहौल पैदा करती है. खोज ऐसी होनी चाहिए जो महसूस की जा सके, ताकि बच्चे अपने दिमाग़ में दुनिया के वैचारिक मॉडल तैयार करना शुरू कर दें, और उसे प्रोसेस करने लगें, ताकि वो नए हुनर विकसित कर सकें. सर्वश्रेष्ठ इंजीनियर शुरू में ब्लॉक्स बनाते हैं, और फिर अधिक पेचीदा बिल्डिंग किट्स इस्तेमाल करने लगते हैं. अपनी परिभाषा से ही वर्चुअल दुनिया इस तरह का फ़िज़िकल स्टिमुलेशन मुहैया नहीं करा सकती.
जैसे-जैसे हम अपने आसपास की भौतिक दुनिया देखते हैं, हमारी जिज्ञासा बढ़ती जाती है. आकाश नीला क्यों है? रात में इतने तारे क्यों चमकते हैं? आम कहां से आते हैं? ये सब वो सवाल हैं जिन्हें बच्चों को पूछने और खोजने देना चाहिए. और इस खोज में उन्हें रास्ता दिखाने, तथा उनकी जिज्ञासा को और अधिक बढ़ाने के लिए, शिक्षकों और माता-पिता का होना ज़रूरी है. जैसे जैसे बच्चे समझना शुरू करते हैं कि दुनिया असल में कैसे काम करती है, वैसे-वैसे उनमें जीवन भर के लिए, अधिक व्यापक रूप से सीखने, और चीज़ों के साथ गहराई से जुड़ने की जिज्ञासा पैदा होती जाती है.
भावनात्मक विकास आवश्यक है
जिस तरह ऑनलाइन लर्निंग जीवन भर के लिए जिज्ञासा की चिंगारी पैदा नहीं कर सकती, ठीक उसी तरह ये बच्चों को गहन विचारक बनने के लिए भी तैयार नहीं कर सकती. समस्या का रचनात्मक समाधान, और सावधानी से की जाने वाली जांच एक साथ काम करने वाली प्रक्रिया है. अपने विचारों को विकसित करने और अपने तर्कों को आज़माने के लिए, बच्चों को शिक्षकों और दूसरे बच्चों के साथ बातचीत करनी होती है. आदरपूर्ण चर्चा के ज़रिए उन्हें बहु-आयामी दृष्टिकोण विकसित करने होते हैं, और अपने नजरिए को व्यापक करना होता है. गहन विचार और सावधानी से की गई जांच की कला, एक ऐसी सीखी हुई कला है, जो इंसानी मेल-मिलाप, निर्देशित पूछताछ से तप कर निकलती है, निष्क्रिय कंप्यूटर के निर्देश से नहीं.
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वयस्कता के लिए भावनात्मक समझ अनिवार्य होती है. एक अच्छा समायोजित वयस्क, जो सामान्य जीवन के उतार चढ़ाव से निपटने के लिए तैयार होता है, उसने भावनात्मक समझ के आवश्यक गुण अपनी शिक्षा से सीखे होते हैं, जिसमें आत्म-बोध, सामाजिक जागरूकता, और रिश्तों का निभाव शामिल हैं. ये इंसानी हुनर और ज़्यादा अहम होते जा रहे हैं, क्योंकि नियमित काम तो अब मशीनें कर रही हैं, और ज्ञान एक ऐसी चीज़ बन रहा है, जिसे आप आसानी से सुपर-क्लाउड से उठा सकते हैं. विश्लेषणात्मक प्रक्रिया आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (एआई) द्वारा टर्बोचार्ज हो रही है. सामान्य अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए, किसी समस्या के विश्लेषणात्मक समाधान निकालने के काम को, कंप्यूटर पर छोड़ दिया गया है.
भावनात्मक स्तर अब बौद्धिक स्तर से ज़्यादा अहम हो गया है, इसलिए शिक्षा को बुनियादी कौशल सिखाने से कहीं आगे बढ़ना होगा. बच्चों को सीखने के समृद्ध माहौल में डूब जाना होगा, जिसमें टीम के दूसरे साथी और हुनरमंद गुरू शामिल होते हैं. भावनात्मक ज़रूरतें उभरनी चाहिएं, और उन्हें सही तरह संबोधित किया जाना चाहिए. इस तरह की चुनौतियों से बच्चे सेल्फ-मैनेजमेंट और सामाजिक जागरूकता सीखते हैं, बहुत सी भावनात्मक सीख टीमों के साथ काम करने, और टकरावों का निपटारा सीखने से भी आती है. 21वीं सदी में कामयाब करियर बनाने के लिए, ये भावनात्मक स्तर बनाना भी बहुत आवश्यक है.
शिक्षा का काम मशीनों को नहीं दिया जा सकता
ऑनलाइन शिक्षा वो फिज़िकल लर्निंग और भावनात्मक प्रबंधन नहीं सिखाती, जो हमें खेलों, ख़ासकर प्रतियोगी खेलों से, हासिल होता है. अपने स्कूली पाठ्यक्रकम के हिस्से के रूप में, बच्चों को बहुत सारे खेल सीखने चाहिएं. आत्म-बोध और अनुशासन सीखने के लिए, उन्हें खेल टीमों का हिस्सा होना चाहिए. नाटक व क्विज़ जैसी दूसरी पाठ्येतर गतिविधियां भी, बच्चों को अच्छे से सिखाती हैं कि किस तरह निरंतर डटे रहकर, मुक़ाबले में बने रहना चाहिए.
लचीलेपन के साथ बच्चे क़ाबिल वयस्क बनते हैं, जो अपने जीवन, काम, और नागरिकता में कामयाब बन सकते हैं. शिक्षा मूल रूप से पेरेंट्स की ज़िम्मेदारी है, और इसे मशीनों के हवाले नहीं किया जा सकता. पेरेंट्स को शैक्षिक टेक्नोलॉजी के प्रलोभन से बचना होगा, जो तुरंत संतुष्टि का वादा करती है. इंजीनियर्स सीख गए हैं कि चमकदार स्क्रीन्स को, कैसे एक लत बनाया जा सकता है. गेम्स और उनसे जुड़े अचानक मिलने वाले नंबर और पुरस्कार, बच्चों को घंटों के लिए अपना ग़ुलाम बना लेते हैं. लेकिन स्क्रीन्स पर बिताया गया समय, उस क़ीमती समय को छीन लेता है, जिसे दूसरे बच्चों और बड़ों के साथ सीखने में बिताया जा सकता है.
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वो तकनीकें जो ऑनलाइन लर्निंग को संभव बनाती हैं- इंसान जैसा इंटरफेस, छात्रों की ट्रैकिंग, विशेष रूप से तैयार सामग्री, निरंतर टेस्टिंग- वही आगे चलकर ऑनलाइन लर्निंग को पुराना कर देती हैं. बुनियादी स्किल्स में बेहतरी हासिल करने का कोई मतलब नहीं है. इन्हें ज़्यादा बेहतर ढंग से कंप्यूटर्स के ज़रिए, सुपर-क्लाउड में किया जा सकता है.
21वीं सदी के वास्ते समाधान विकसित करने के लिए सहानुभूति और रचनात्मकता की ज़रूरत है. इन्हें इंसानों के असीमित मेल-मिलाप से ही हासिल किया जा सकता है. कोरोना वायरस की दुनिया में, हमारी शिक्षा प्रणाली को इस तरह बनाना होगा, कि वो मानव-केंद्रित पढ़ाई मुहैया करा सके. एक बच्चे को पालने के लिए गांव चाहिए, स्क्रीन नहीं.
(जयंत सिन्हा संसद में वित्तीय मामलों की स्थाई समिति के अध्यक्ष, और झारखंड के हज़ारीबाग़ से लोकसभा सांसद हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)