scorecardresearch
Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतभारत में सियासी रंग में रंगी जीडीपी, क्या अब नए मापदंड की ज़रूरत है?

भारत में सियासी रंग में रंगी जीडीपी, क्या अब नए मापदंड की ज़रूरत है?

जीडीपी के नए आंकड़े को पिछले अनुमानों के मुक़ाबले तकनीकी दृष्टि से ज़्यादा बेहतर बताने के चाहे जो दावे किए जा रहे हों, जनता में इसकी विश्वसनीयता इसकी असलियत की परीक्षा पर ही निर्भर करेगी.

Text Size:

2007 की बात है. चीन में अमेरिका के राजदूत ने ली केक्वियांग से मुलाक़ात की, जो उस समय लिआयोनिंग की चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सेक्रेटरी थे, और आज चीन के प्रधानमंत्री हैं. ली ने राजदूत महोदय से कहा कि जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए वे तीन असली क्षेत्रों के आंकड़ों के हिसाब से काम करते हैं.

ली के ये तीन क्षेत्र थे- रेलवे से माल ढुलाई, लोगों के द्वारा बिजली की खपत और बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज़ के आंकड़े. इसके आधार पर ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका ने एक ‘ली केक्वियांग सूचकांक’ ही बना डाला. बाद में हुए विश्लेषणों ने स्पष्ट कर दिया कि यह सूचकांक लगभग हर वस्तु और मुद्रा के लिए जीडीपी से ज़्यादा प्रासंगिक है.

क्या अब समय आ गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाले जानकार ‘ली केक्वियांग सूचकांक’ का भारतीय संस्करण तैयार कर डालें? यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि अभी इसी हफ्ते जीडीपी के आंकड़ों में संशोधन को लेकर विवाद खड़ा हो गया. संशोधित आंकड़े पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अधिकांश कार्यकाल में हासिल आर्थिक वृद्धि दर में काफी गिरावट दर्शाते हैं.


यह भी पढ़ें: उर्जित पटेल सख्त और अल्पभाषी हैं लेकिन भारत अभी उनका इस्तीफ़ा नहीं सह सकता


ये आंकड़े दर्शाते हैं कि उनके दस साल के राज में आर्थिक वृद्धि की दर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज में हासिल आर्थिक वृद्धि की दर से कम रही. इसके बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बयान जारी कर दिया कि मनमोहन सिंह के उत्तराधिकारी की सरकार की तुलना में मनमोहन सरकार को लेकर जो अंतिम दावा किया जाता रहा है वह भी खारिज हो गया है.

समस्या यह है कि उन दस सालों के मुक़ाबले पिछले चार सालों में अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रदर्शन को लेकर जो तर्क दिए जा रहे हैं वे असली अर्थव्यवस्था यानी कॉरपोरेट बिक्री, मुनाफा और निवेश, कर राजस्व, क्रेडिट ग्रोथ, आयात-निर्यात, आदि के आंकड़ों से उभरते प्रमाण के सामने खोखले साबित हो जाते हैं.

दूसरे संकेतकों पर भी गौर किया जा सकता है, खासकर उन पर, जिनका ज़िक्र ली ने किया है— रेलवे वैगन लोडिंग और बिजली की खपत. लेकिन भारत में मुश्किल यह है कि कुल माल ढुलाई में रेलवे का हिस्सा निरंतर घटता रहा है. इसके साथ ही, बिजली उत्पादन क्षमता का अच्छा-खासा हिस्सा ग्रिड के बाहर है. इस वजह से बिजली खपत में कुल वृद्धि का हिसाब लगा पाना कठिन है. ग्रिड से ज़्यादा खपत का अर्थ ग्रिड से ज़्यादा महंगे बिजली उत्पादन में गिरावट हो सकता है.

जीडीपी के नए आंकड़े पिछले अनुमानों के मुक़ाबले तकनीकी दृष्टि से ज़्यादा बेहतर हैं (ऐसा हो भी सकता है), इसके चाहे जो दावे किए जा रहे हों, जनता में इसकी विश्वसनीयता इसकी असलियत की परीक्षा पर ही निर्भर है. इस परीक्षा में नए आंकड़े तब फ़ेल हो जाते हैं जब इन्हें अर्थव्यवस्था के समवर्ती ‘असली’ आंकड़ों के बरअक्स देखा जाता है.

मसलन, सबसे तेजी वाले 2007-08 साल के आंकड़े को – जिसे 9.8 प्रतिशत से घटाकर 7.7 प्रतिशत कर दिया गया है— जांचा जा सकता है. यह सबसे परेशानी वाले 2013-14 साल के आंकड़े 6.4 प्रतिशत से थोड़ा ही ज़्यादा है. ज़ाहिर है कि तेज़ी वाले और परेशानी वाले सालों कि वृद्धि दरों में महज 1.3 प्रतिशत अंक का अंतर नहीं हो सकता.

नए आंकड़ों के बचाव में दावा किया गया है कि कॉरपोरेट मुनाफे को भरोसेमंद संकेतक नहीं माना जा सकता, क्योंकि सबसे हाल की अवधि में वेतन पर ज़्यादा खर्च हुआ. इस दावे पर यकीन करना मुश्किल है, क्योंकि वेतनों में बड़ी वृद्धि मनमोहन के पहले कार्यकाल में सबसे तेज़ी वाले सालों में हुई, बाद में कम वृद्धि ही हुई.


यह भी पढ़ें: चीन पर लगाम कसना कितना मुमकिन है?


यह मान लेना भी तर्कपूर्ण लगता है कि जब कंपनियां अच्छा प्रदर्शन करती हैं तब वेतनों में ज़्यादा वृद्धि देती हैं. ऐसा भी नहीं है कि अनौपचारिक क्षेत्र ने औपचारिक क्षेत्र की सुस्ती की भरपाई की, जबकि नोटबंदी और जीएसटी ने भारी उथलपुथल मचा दिया था.

इसलिए, यह असुविधाजनक तथ्य सामने आता है कि मनमोहन सरकार के अंतिम दो सालों के लिए 2015 में जो उपक्रम किया गया उसने उन सालों के लिए वृद्धि दरों को काफी ऊंचा कर दिया. और अब उन सालों से पहले के सालों के लिए उसी तरह के उपक्रम ने दरों में गिरावट दिखा दिया.

इस बीच, पेशेवर अर्थशास्त्रियों ने विसंगतियों की— मसलन, सांकेतिक और वास्तविक (यानी मुद्रास्फीति के लिए समायोजित) आंकड़ों के बीच– ओर संकेत किया है. सांकेतिक आंकड़े पुराने आंकड़ों से ज़्यादा अंतर नहीं दर्शाते. वास्तविक आंकड़ों में ही तेज़ गिरावट दिखती है. ऐसे उपक्रमों के बारे में विशेषज्ञों की राय समान्यतः यह है कि वास्तविक आंकड़े ही ऊंचे हो जाते हैं. इसलिए असली पेंच मुद्रास्फीति के समायोजन के तरीके में है.

बहरहाल, इस निष्कर्ष से बचा नहीं जा सकता- रोज़गार पैदा करने लेकर किए गए भ्रामक दावों (जिन्हें नीति आयोग का भी समर्थन था) से यह धारणा बनती है कि सरकारी आंकड़े सियासी रंग अख़्तियार कर रहे हैं. इस धारणा को मज़बूती देने से बचना है, तो सरकार के थिंक-टैंक को जवाब देने पड़ेंगे.

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

share & View comments