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Sunday, 22 December, 2024
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आर्थिक मजबूती के बाद कुछ कर दिखाने के लिए ओलंपिक की मेजबानी का दावा, 2036 के लिए भारत का मजबूत दांव

ओलंपिक खेलों की मेजबानी सस्ता सौदा नहीं है लेकिन भारत की ग्रीस वाली हालत नहीं हो सकती जिसे ओलंपिक खेलों की मेजबानी के लिए कर्ज लेना पड़ा और चार साल बाद वित्तीय संकट झेलना पड़ा.

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नवागंतुकों के लिए विशेष ‘कमिंग आउट पार्टी’ जैसा आयोजन करने का चलन अब बंद हो गया है. लेकिन आय तथा विकास का एक निश्चित मुकाम हासिल करने के वाले देशों को लगने लगता है कि उन्हें दुनिया को कुछ कर दिखाना चाहिए. किसी देश को यह उत्साह प्रायः तब आता है जब उसकी प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा (जिसे उसके लोगों की क्रय शक्ति और डॉलर के 1990 वाले अंतरराष्ट्रीय मूल्य के आधार पर तय किया जाता है) 4,000 डॉलर के आंकड़े को छू लेता है. डॉलर के अंतरराष्ट्रीय मूल्य में परिवर्तन के साथ यह आंकड़ा बदलता है. और इस ‘कमिंग आउट पार्टी’ का मतलब है गर्मियों में अपने यहां ओलपिंक खेलों का आयोजन करना.

वास्तव में, 19वीं सदी के अंतिम दशक में जब आधुनिक ओलपिंक खेलों का खाका बनाया गया था, तब अमीर पश्चिमी यूरोपीय देश और अमेरिका 4,000 डॉलर वाले आंकड़े को छू रहे थे. प्राचीन काल में ओलपिंक खेलों की मेजबानी करने के कारण ग्रीस को आधुनिक काल में सबसे पहले इसका आयोजन करने का मौका मिला. इसके बाद फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन, और जर्मनी (1916 में, जिसे प्रथम विश्वयुद्ध के कारण रद्द किया गया) को मौका मिला. एंगस मैडीसन की गणना के मुताबिक 1913 में, अपेक्षाकृत गरीब दक्षिणी यूरोप समेत पूरे पश्चिमी यूरोप की प्रति व्यक्ति आय 3,473 डॉलर थी.

ओलपिंक खेलों की मेजबानी का मौका यूरोप और अमेरिका के दायरे से बाहर के देश को तब दिया गया जब उसका उक्त आंकड़ा 4,000 डॉलर के करीब पहुंचा (तब तक आय का आंकड़ा इससे कुछ ऊपर हो चुका था) : 1964 में जापान, 1988 में दक्षिण कोरिया, 2008 में चीन, 2016 में ब्राज़ील. 1968 में मेजबानी करने वाला मेक्सिको आय के इस दायरे को लांघ चुका था. अब भारत 2036 के ओलपिंक खेलों की मेजबानी करने की मजबूत दावेदार है. भारत की प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा 9,000 डॉलर से ऊपर है. डॉलर के 1990 के मूल्य के हिसाब से यह 4,000 डॉलर के आंकड़े के करीब पहुंचता है. 2036 तक इन आंकड़ों में दोगुनी वृद्धि हो जाएगी.

ओलपिंक खेलों की मेजबानी कोई सस्ता सौदा नहीं है. चीन ने 2008 में 44 अरब ‘नॉमिनल’ डॉलर की भारी-भरकम रकम खर्च करके दुनिया की आंखों को चुंधिया दिया था लेकिन इसके बाद के मेज़बानों ने इसकी एक तिहाई या उससे भी कम रकम खर्च की. अधिकांश पैसा खेलों के लिए सुविधाएं विकसित करने की जगह शहर के इन्फ्रास्ट्रक्चर को सुधारने पर खर्च किया जाता है. नयी दिल्ली ने 2010 में जब राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी की थी तब कुल 9 अरब डॉलर खर्च किए थे जिसका 80 फीसदी हिस्सा खेलों से इतर इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च किया गया. 1982 के एशियाई खेलों और इन राष्ट्रमंडल खेलों के लिए मंजूर कई सुविधाएं खेलों के बाद ही खत्म हो गईं.


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अधिकतर मेजबान शहर देश की राजधानी या सबसे बड़ा शहर होता है. इसमें अपवाद अमेरिका का सेंट लुइस शहर था जिसने 1904 में ओलपिंक खेलों की मेजबानी की थी. अगर भारत का अहमदाबाद सबसे पसंदीदा शहर है, जिसकी संभावना है, तो यह भी एक अपवाद होगा, क्योंकि यह आबादी, क्षेत्रफल, सकाल घरेलू उत्पाद, स्वच्छता या महिलाओं की सुरक्षा के मामलों में भारत के टॉप पांच शहरों में इसका नाम नहीं है. यह व्यापार और शिक्षा की केंद्र है मगर विमान सेवाओं का केंद्र नहीं है और अंग्रेजी से कम परिचित है, मुख्यतः निरामिष है और यहां मद्य निषेध भी लागू है.

यह सब तो बदलने वाला नहीं है लेकिन ओलपिंक खेलों की मेजबानी इसे आगे बढ़ा सकती है. इसे बड़ा और बेहतर हवाई अड्डा मिल सकता है, पूर्ण मेट्रो नेटवर्क, ज्यादा होटल, फ्लाइओवर, आदि मिल सकते हैं. तब तक यहां से मुंबई तक बुलेट ट्रेन चलने लग सकती है इन सब पर खर्च का कितना बोझ यह शहर, राज्य और केंद्र उठा पाएगा? इसके बावजूद भारत को ग्रीस वाली हालत से नहीं गुजरना पड़ सकता है, जिसने 2004 में ओलपिंक खेलों की मेजबानी करने के लिए कर्ज लेना पड़ा और यह चार साल बाद उसके लिए वित्तीय संकट की कुछ हद तक वजह बन गया था.

मेजबान देश अगर ओलपिंक खेलों में बुरा प्रदर्शन करता है तब यह उसके लिए शर्म की बात बन जाती है. इसलिए, मुख्य सवाल यह है कि क्या ओलपिंक खेलों की मेजबानी उसके खिलाड़ियों (और महिला खिलाड़ियों) को बेहतर प्रदर्शन करने में मददगार साबित होती है? मेजबान देश ओलपिंक खेलों में पहले के मुक़ाबले निश्चित ही अपना प्रदर्शन बेहतर करते हैं. इसकी वजह शायद यह है कि वे विशेष प्रयास करते हैं. मेक्सिको ने 1964 में इन खेलों में केवल एक मेडल जीता था, 1968 में उसने नौ मेडल जीते; दक्षिण कोरिया के मेडलों की संख्या 19 से बढ़कर 33, चीन की 63 से बढ़कर 100 हो गई. 1982 में एशियाई खेलों की मेजबानी करने वाले भारत के मेडलों की संख्या 28 से दोगुनी बढ़कर 57 हो गई थी. लेकिन वृद्धि की यह गति टूट भी जाती है. इसी तरह, भारत ने नयी दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेलों में 101 मेडल जीते मगर इसके बाद ग्लासगो में इन खेलों में वह 64 मेडल ही जीत पाया.

अंततः, मामला इस नफा-नुकसान का नहीं है. जब कोई देश कुछ कर दिखाना चाहता है, तब वह ओलपिंक खेलों की मेजबानी करता है. भारतीय एथलीटों ने अभी-अभी हांगझोऊ में जिस तरह का उम्दा प्रदर्शन किया, उसके बाद किसी को क्या शिकायत हो सकती है?

(बिजनेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन : ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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