अक्सर यह देखा जाता है कि सोशल मीडिया पर बहुत से मुद्दों पर बहस छिड़ती है और उसके बाद आलोचनाएं पेश की जाती हैं. आलोचनाओं की अपनी एक महत्ता है जिसे नकारा नहीं जा सकता. इस प्रक्रिया में मुद्दे के संदर्भ और उसके प्रस्तुत करने के तरीके पर ध्यान देना भी उतना ही जरूरी है.
बीते दिनों ऐसी ही एक बहस सोशल मीडिया पर छिड़ गई जिसमें राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा प्रकाशित पहली कक्षा की हिंदी की पाठ्यपुस्तक में छपी कविता ‘आम की टोकरी ‘ की जमकर आलोचना की गई.
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‘छोकरी’ और स्थानीय भाषा
प्राथमिक शिक्षिका होने के नाते मैं यह बताना चाहती हूं कि जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग इस कविता में हुआ है, वह कविता को रोचक बनाने के लिए किया गया है. पहली बात तो यह है कि छोकरी शब्द का स्थानीय भाषा में अर्थ होता है- लड़की. यह किसी भी तरह से अपमानजनक नहीं है. यदि छोकरी शब्द को अपमानजनक समझा जा रहा है और इसकी आलोचना की जा रही है तो फिर ये सवाल उठता है कि जो लोग यह कर रहे हैं और जिन्हें छोकरी शब्द पर आपत्ति है, क्या वे स्थानीय भाषाओं की शब्दावलियों का सम्मान नहीं करते?
प्राइमरी कक्षा की शिक्षण प्रक्रिया में अपने छात्रों के साथ जुड़ने के नाते मेरा जो अनुभव है उसके मुताबिक जब भी किताबों में या किन्हीं महत्वपूर्ण रचनाओं में बच्चों के दैनिक परिवेश से जुड़ी शब्दावलियों का प्रयोग किया जाता है, तो उस कविता या उस रचना को बोलने में बच्चे बहुत ही आनंद महसूस करते हैं. और ये उन्हें स्थानीय भाषाओं के सम्मान की ओर प्रेरित करता है.
सोशल मीडिया पर इस कविता की जो लोग आलोचना कर रहे हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे ज़मीनी स्तर पर छात्रों से किस प्रकार और कितने जुड़े हैं? क्या इस बात को समझना इतना मुश्किल है कि यह कविता बच्चों के अभिनय के लिए भी दी जा सकती है जहां इसका उद्देश्य यह हो सकता है कि बच्चे इस कविता को गाते समय अपने आप को उस बच्ची से जोड़ें जो आम की टोकरी में आम लिए खड़ी है.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कविता की पंक्तियों में एक वाक्य का प्रयोग हुआ है– ‘नहीं बताती दाम है ‘. इस बात से साफ ज़ाहिर होता है कि यह जरूरी नहीं कि बच्ची आम बेच ही रही हो. कविता को देखने का सबका अपना नज़रिया है. जो छात्र इस कविता को पढ़ेंगे या उसका वाचन ज़ोर-ज़ोर से करेंगे या इस कविता में दिखाई गई बच्ची को अपने उम्र का पाकर अपने आप से जोड़ेंगे तो वो ज्यादा आनंद ले पाएंगे.
जिन्हें कक्षा १ के बच्चों के लिए लिखी गई उस कविता में पता नहीं क्या-क्या दिख रहा है अगर वे गंभीर हैं तो बस एक काम करें। कक्षा १ के किसी बच्चे को वह कविता पढ़वाएँ। बिना उसे कुछ भी बताए-सिखाए। अगर उसे वह ‘बुरी-गंदी’ लगे तो कविता गंदी है। नहीं तो स्वीकार करिए कि गंदगी हमारे भीतर है।
— राहुल देव Rahul Dev (@rahuldev2) May 22, 2021
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रचना के संदर्भ को समझना जरूरी
किसी भी रचना को उसके संदर्भ में समझना बेहद जरूरी है. आलोचना केवल आलोचना करने के उद्देश्य से ही नहीं की जानी चाहिए. आलोचना के पीछे पुख्ता और ठोस कारण होने चाहिए जिसे न्यायोचित ठहराया जा सके.
हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि प्राथमिक स्तर पर बच्चों को पढ़ाना कोई नहीं चाहता लेकिन तैयार की गई सामग्री की आलोचना सब अपने नज़रिए से करना चाहते हैं. आलोचनाओं का हमेशा से ही स्वागत होना चाहिए लेकिन प्राथमिक कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों से जुड़कर ही उनके परिवेश को समझा जा सकता है.
मैं छह साल की बच्ची की मां हूं और साथ ही एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षिका भी, जो प्राथमिक स्तर पर बच्चों से जुड़ी है. इस प्रकार की आलोचनाओं को सुनते हुए मुझे लगता है कि अति आलोचना करते हुए हम बच्चों से उनके बचपन का आनंद छीन लेते हैं. यदि कविता में बच्ची को ना दर्शा कर किसी बच्चे यानी लड़के को दर्शाया होता तो क्या तब भी ऐसा ही सवाल उठाया जाता? शायद तब कहा जाता कि किताबों में लड़कियों को स्थान नहीं दिया गया या ये जेंडर बायस्ड है.
इस नज़रिए से यदि हम देखें तो प्रत्येक पाठ्यपुस्तक की प्रत्येक रचना में कोई ना कोई खामी या आलोचना की जा सकती है लेकिन बात यही है कि आलोचना केवल आलोचना करने के उद्देश्य से ना की जाए. आलोचना करने के बाद उसके लिए उपाय या विकल्प भी सुझाए जाएं.
विवादित कविता पहली कक्षा के छात्रों के लिए है और पहली कक्षा में बच्चे कमोबेश छह साल के ही होते हैं. यहां हो सकता है कि छह साल की बच्ची की बात इसलिए ही की गई हो ताकि कविता पढ़ने वाले इस उम्र के बच्चे अपने आप को उस बच्ची से जोड़ सकें.
रचना के परिवेश और संदर्भ की महत्वता को समझना बहुत ही जरूरी है. प्राथमिक स्तर पर स्थानीय बोलियों और भाषाओं के महत्व को भी समझा जाना चाहिए. यदि हम इसी प्रकार की अति आलोचनाएं प्रस्तुत करेंगे तो हम किताबों की रचनाओं को आम जीवन से कभी नहीं जोड़ नहीं पाएंगे.
(लेखिका दिल्ली के सरकारी स्कूल में प्राथमिक शिक्षिका हैं. वह दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग से पीएचडी कर रही हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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