नई दिल्ली: पहली कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक में छपी बच्चों की एक कविता जिसे राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने प्रकाशित किया है, सोशल मीडिया पर आलोचना का शिकार हो रही है.
‘आम की टोकरी’ शीर्षक की इस कविता में सर पर आमों की टोकरी रखे उन्हें बेंचने ले जा रही छह साल की एक बच्ची के लिए ‘छोकरी’ शब्द (कन्या के लिए एक ग़ैर-अपमानजनक आमबोल का शब्द) इस्तेमाल किया गया है. इसके विषय की भी, ‘बाल श्रम’ को बढ़ावा देने के लिए आलोचना की जा रही है.
इसे सबसे पहले बृहस्पतिवार को अवनीश शरन ने शेयर किया, जो 2009 बैच के छत्तीसगढ़ काडर के आईएएस अधिकारी हैं और राज्य के तकनीकी शिक्षा विभाग में काम करते हैं. पाठ्यपुस्तक से कविता का स्क्रीनशॉट साझा करते हुए उन्होंने इस साहित्य को घटिया क्वालिटी का बताया, कवि की साख पर सवाल उठाए और अधिकारियों को इसे पाठ्यक्रम से हटाने के लिए कहा.
ये किस ‘सड़क छाप’ कवि की रचना है ?? कृपया इस पाठ को पाठ्यपुस्तक से बाहर करें. pic.twitter.com/yhCub3AVPR
— Awanish Sharan (@AwanishSharan) May 20, 2021
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दूसरे ट्विटर यूज़र्स ने जल्द ही ट्वीट को उठा लिया और इसे पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए कविता और एनसीईआरटी दोनों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए. एक यूज़र ने कहा, ‘ये बाल श्रम को बढ़ावा दे रही है.’
सर्
ये बाल मजदूरी को भी बढ़ावा दे रहा है। https://t.co/U02QIH87yO— मै भी अम्बेडकर (@villageBahujan) May 20, 2021
एक अन्य यूज़र ने हैरानी जताई कि स्कूलों में बच्चों को ऐसी कविताएं पढ़ाई जा रही हैं.
@ncert @CSF_India
Shocked to see this content for our children https://t.co/rS0IIVvzp9— Abhilasha Rajan (@abhilasha789) May 20, 2021
कविता ‘आम की टोकरी’ को उत्तराखंड स्थित कवि राम कृष्ण शर्मा खद्दर ने लिखा है, जो बच्चों का साहित्य लिखते हैं, और ये कविता 2006 से एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तक रिमझिम का हिस्सा बनी हुई है.
कविता के नीचे उसी पेज पर प्रकाशकों ने छात्रों के लिए अतिरिक्त अभ्यास दिए हैं और अध्यापकों से उनके साथ बाल श्रम के बारे में बात करने के लिए कहा है. किताब में सिफारिश की गई है, ‘बच्चों से पूछिए कि क्या वो ऐसे बच्चों को जानते हैं, जो बाज़ार में चीज़ें बेंचते हैं, और क्या वो स्कूल जाते हैं? अगर वो स्कूल नहीं जाते, तो बच्चे स्कूल में भर्ती होने में उनकी कैसे मदद कर सकते हैं?’.
उसमें साफ साफ ये भी कहा गया है: ‘तस्वीर में लड़की ऐसे दिखा रही है, जैसे वो आम बेंच रही है. बच्चों से कहिए कि वो कक्षा में आम, नींबू, केला, गन्ना, मूंगफली, सेब, दवा की गोलियां जैसी, अलग अलग चीज़ें खाने की नक़ल करें’.
‘छोकरी’ के इस्तेमाल और बाल श्रम पर बंटे एक्सपर्ट्स
कविता की बहुत अधिक समीक्षा या आलोचना ऑनलाइन उपलब्ध नहीं है, और जो थोड़ी बहुत हैं उन्हें छोकरी जैसे शब्द के इस्तेमाल और एक छोटी लड़की को फल ढोते हुए दिखाने में कोई समस्या नहीं दिखती.
ऐसी ही एक समीक्षा में मनोहर चमोली मनु, जो उत्तराखंड से ही हैं और एक अध्यापक हैं, और बच्चों के साहित्य पर काम करते हैं, कहते हैं कि कविता और इसकी रचना विशेष तौर पर, इस तरह डिज़ाइन की गई है, कि बच्चों के हिंदी में ‘आ’ और ‘का’ के स्वर सिखाए जाएं. दूसरे स्वर और अक्षर जैसे ‘ना’ ‘मा’ ‘ए’ आदि इससे पहले के अध्याय में, पहले ही कवर किए जा चुके हैं.
समीक्षा में ये भी कहा गया है, कि इस कविता से बच्चे सड़क पर फिरने वाले बच्चों के बारे में सोच सकते हैं, जो फल, स्नैक्स, और दूसरे सामान बेंचते हैं; वो बच्चे जो स्कूल नहीं जाते और ‘उनसे अलग हैं’.
छोकरी शब्द के इस्तेमाल पर, जिसे किसी कन्या को संबोधित करने के लिए, अकसर एक घटिया शब्द समझा जाता है, चमोली कहते हैं: ‘इस शब्द के इस्तेमाल पर आपत्ति क्यों करते हैं…शब्द वास्तव में एक शब्द ही तो है…बहुत से शब्द जो एक भाषा में गाली से लगते हैं, वो दूसरी भाषाओं में उचित उपयोग समझे जाते हैं’.
दिप्रिंट ने एक मौजूदा और एक पूर्व एनसीईआरटी अधिकारी से बात की, जो दोनों पुस्तक विभाग से नज़दीकी से जुड़े रहे हैं, और दोनों का कहना था कि ये ‘विवाद’ अनावश्यक है.
मौजूदा अधिकारी ने कहा, ‘मुझे इस कविता में कोई समस्या नज़र नहीं आती. इसका मक़सद बच्चों को अक्षर और हिंदी शब्दावली सिखाना है; ये विवाद बिल्कुल अनावश्यक है’.
दिप्रिंट ने एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक ऋषिकेश सेनापति को ईमेल के जरिए एक विस्तृत टेक्स्ट मैसेज भेजा गया लेकिन इस ख़बर के छपने तक उनका कोई जवाब नहीं मिला था.
दिप्रिंट ने एनसीईआरटी के मीडिया डिवीज़न को भी ईमेल के जरिए संपर्क किया, लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला. अगर उनकी तरफ से कोई उत्तर आता है तो इस खबर को अपडेट किया जाएगा.
लेकिन, प्रसिद्ध कवि और ललित कला अकादमी अध्यक्ष अशोक वाजपेई जैसे लोगों का कहना था, ‘इस बात पर ज़्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए, कि कक्षाओं में बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है’.
वाजपेई ने दिप्रिंट से कहा, ‘जहां तक छोकरी शब्द का सवाल है, मुझे उससे आपत्ति नहीं है, क्योंकि उसे नकारात्मक ढंग से प्रयोग नहीं किया गया है; हिंदी में इसे अकसर स्नेहात्मक तरीक़े से इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन, जहां तक छह साल की बच्ची को आम बेंचते हुए दिखाने की बात है, तो मैं ज़रूर कहूंगा कि इससे, लोगों की संवेदनशीलता को ठेस पहुंच सकती है. अब हर कोई बाल श्रम की समस्या से अवगत है, इसलिए कविता से उस तरह का आभास हो सकता है, इसलिए अधिकारियों को ज़्यादा एहतियात बरतनी चाहिए कि वो पाठ्यक्रम में क्या शामिल करते हैं’.
उन्होंने आगे कहा कि अगर कविता अभी भी पढ़ाई जा रही है तो अध्यापकों को ज़्यादा सावधान रहना चाहिए और बच्चों को बाल श्रम की बारीकियों के बारे में समझाना चाहिए, और उन्हें बताना चाहिए कि ये एक समस्या है.
इस बीच, भोपाल में बच्चों के कला और साहित्य के केंद्र, एकतारा बाल साहित्य केंद्र के निदेशक सुशील शुक्ला ने कहा, कि ये आलोचना ऐसे लोगों की ओर से आ रही है, जिन्हें साहित्य और उसकी बारीकियों की समझ नहीं है. शुक्ला ने हिंदी में बच्चों के साहित्य पर व्यापक रूप से काम किया है और वो बच्चों के लिए हिंदी किताबों को देखने वाली एनसीईआरटी कमेटी का हिस्सा भी रहे हैं.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘इस तरह की बातें वो लोग कहते हैं, जो हिंदी साहित्य को नहीं समझते. हिंदी भाषा के अलग अलग रूप होते हैं, और मुझे नहीं लगता कि छोकरी कोई बुरा शब्द है. छोकरी शब्द का प्रयोग सूरदास ने भगवान कृष्ण और राधा की अपनी कविताओं में भी किया है. तो क्या आप सूरदास को अनिपुण कहेंगे?’
कविता में कथित रूप से बाल श्रम को बढ़ावा दिए जाने के मुद्दे पर शुक्ला ने कहा: ‘मेरी राय में, कवि एक ऐसी लड़की के बारे में बात कर रहा है, जो आमों की टोकरी के साथ खेल रही है, वो उन्हें बेंच नहीं रही है, क्योंकि कवि ये भी कहता है ‘नहीं बताती दाम है’. बाल श्रम के बारे में जानना अच्छी बात है, इस विषय पर जानकारी पैदा करने का, ये सही तरीक़ा नहीं है. इस कविता को काफी समय से निशाना बनाया जाता रहा है, और मुझे लगता है कि ये बिल्कुल अनावश्यक है’.
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