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Wednesday, 20 November, 2024
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ओबीसी नरेंद्र मोदी ने ‘ओबीसी’ के लिए क्या किया?

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देश की आधी से ज़्यादा आबादी ओबीसी जातियों की है. नरेंद्र मोदी कहते हैं कि वे ओबीसी हैं. ऐसे में ये देखना दिलचस्प होगा कि मौजूदा सरकार ने ओबीसी के लिए अब तक क्या किया.

चुनाव पहले की बात है. 2014 का लोकसभा चुनाव प्रचार शबाब पर था. तमाम दलों के नेता वादे और दावे कर रह थे, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे थे. इसी दौरान बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी की अमेठी में सभा हुई. कांग्रेस और कांग्रेस के नेता उनके निशाने पर थे. अगले दिन प्रियंका गांधी ने एक बयान दिया कि ‘नरेंद्र मोदी ने अमेठी में उनके शहीद पिता का अपमान किया है और इस नीच राजनीति का अमेठी के हर पोलिंग बूथ के लोग बदला लेंगे.’

नरेंद्र मोदी को मानो प्रियंका गांधी के ऐसे ही बयान का इंतज़ार था. अगले दिन उनकी यूपी के ही डुमरियागंज में सभा थी. उसमें उन्होंने कहा- ‘हां, ये सही है कि मैं नीच जाति में पैदा हुआ हूं, पर मेरा सपना है एक भारत, श्रेष्ठ भारत…आप लोग मुझे चाहे जितनी गालियां दो, मोदी को फांसी पर चढ़ा दो, लेकिन मेरे नीची जाति के भाइयों का अपमान मत कीजिए.’ उन्होंने उसी दिन ट्वीट करके कहा- ‘सामाजिक रूप से निचले वर्ग से आया हूं, इसलिए मेरी राजनीति उन लोगों के लिए नीच राजनीति ही होगी.’

अगले ही ट्वीट में इस बात को और साफ करते हुए लिखते हैं – ‘हो सकता है कुछ लोगों को यह नज़र नहीं आता हो पर निचली जातियों के त्याग, बलिदान और पुरुषार्थ की देश को इस ऊंचाई पर पहुंचाने में अहम भूमिका है.’

2017 में एक बार फिर ऐसा ही मौका आया जब गुजरात में चुनाव के दौरान कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर ने कहा कि ‘नरेंद्र मोदी नीच किस्म के आदमी हैं, जिसमें कोई सभ्यता नहीं है’ तो अगले ही दिन सूरत की जनसभा में मोदी ने जवाब दिया कि, ‘मणिशंकर अय्यर ने मुझे नीच और निचली जाति का कहा. हमें गंदी नाली का कीड़ा कहा. क्या यह गुजरात का अपमान नहीं है?’

नरेंद्र मोदी गुजरात की मोड घांची जाति से आते है. अपने पिछड़ी जाति के होने को वे लगातार मेडल की तरह पहनते हैं और इसका जिक्र करना वे कभी नहीं भूलते. उनका ऐसा कहना शायद उन्हें देश की उस पिछड़ी आबादी से जोड़ता है, जिसकी संख्या देश की आबादी का 52 प्रतिशत है. ये आंकड़ा दूसरे राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन का है. चूंकि देश में 1931 के बाद एससी-एसटी के अलावा बाकी जाति समूहों की जनगणना नहीं हुई, इसलिए ओबीसी की संख्या के बारे में 1931 के आंकड़ों से ही काम चलाया जाता है. 2011 से 2016 के बीच हुई सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए.

ओबीसी के लिए क्या बड़े कदम उठाए गये

बहरहाल, ये देखना दिलचस्प होगा कि नरेंद्र मोदी जिस जाति समूह का खुद को सदस्य बताते हैं, उसके लिए यानी ओबीसी के लिए वर्तमान सरकार ने क्या बड़े कदम उठाए. केंद्र सरकार के मुताबिक ऐसा सबसे बड़ा कदम है राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देना. इसके लिए 123वां संविधान संशोधन करके संविधान में एक नया अनुच्छेद 338बी जोड़ा गया. आयोग को अब सिविल कोर्ट के अधिकार प्राप्त होंगे और वह देश भर से किसी भी व्यक्ति को सम्मन कर सकता है और उसे शपथ के तहत बयान देने को कह सकता है. उसे अब पिछड़ी जातियों की स्थिति का अध्ययन करने और उनकी स्थिति सुधारने के बारे में सुझाव देने तथा उनके अधिकारों के उल्लंघन के मामलों की सुनवाई करने का भी अधिकार होगा. संविधान संशोधन विधेयक पर जो भी विवाद थे वे लोकसभा में हल हो गए और राज्यसभा में ये आम राय से पारित हुआ है. अब इस आयोग को राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग या राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के बराबर का दर्जा मिल गया है.

बीजेपी राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का दर्जा बढ़ाए जाने को सरकार की बड़ी उपलब्धि बता रही है लेकिन ये कह पाना मुश्किल है कि इससे देश की आधी आबादी यानी पिछड़ी जातियों के लोगों की ज़िंदगी में क्या बदलाव आएगा. ऐसे ही अधिकारों के साथ राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग या राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग खास असरदार साबित नहीं हुए हैं. संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद इतना समय नहीं गुज़रा है कि इस फैसले के असर की समीक्षा की जाए.


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बीजेपी का ओबीसी आबादी के लिए दूसरा बड़ा कदम है ओबीसी जातियों के बंटवारे के लिए आयोग का गठन. 2 अक्टूबर, 2017 को केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत एक आयोग के गठन की अधिसूचना जारी की. इस आयोग को तीन काम सौंपे गए हैं- एक, ओबीसी के अंदर विभिन्न जातियों और समुदायों को आरक्षण का लाभ कितने असमान तरीके से मिला, इसकी जांच करना. दो, ओबीसी के बंटवारे के लिए तरीका, आधार और मानदंड तय करना, और तीन, ओबीसी को उपवर्गों में बांटने के लिए उनकी पहचान करना. इस आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए 12 हफ्ते का समय दिया गया.

आयोग की अध्यक्षता पूर्व न्यायाधीश जी. रोहिणी को सौंपी गई हैं. बीजेपी ने कहा है कि इस आयोग के बनने से अति पिछड़ी जातियों को न्याय मिल पाएगा. इस आयोग के गठन के पीछे तर्क यह है कि ओबीसी में शामिल पिछड़ी जातियों में पिछड़ापन समान नहीं है. इसलिए ये जातियां आरक्षण का लाभ समान रूप से नहीं उठा पातीं. कुछ जातियों को वंचित रह जाना पड़ता है. इसलिए ओबीसी श्रेणी का बंटवारा किया जाना चाहिए. देश के सात राज्यों में पिछड़ी जातियों में पहले से ही बंटवारा है.

लेकिन जिस रोहिणी कमीशन को अपनी रिपोर्ट 12 हफ्ते में दे देनी थी, वो रिपोर्ट 12 महीने बाद भी नहीं आई है. इस आयोग का कार्यकाल सरकार तीन बार बढ़ा चुकी है और आखिरी एक्सटेंशन के बाद अब आयोग को 20 नवंबर, 2018 तक अपनी रिपोर्ट सौंप देनी है. आयोग के काम की गति और उसके सामने मौजूद चुनौतियों को देखते हुए ही इसका कार्यकाल लगातार बढ़ाना पड़ रहा है और लगता नहीं है कि अगली डेडलाइन तक भी इसकी रिपोर्ट आ पाएगी.
मोदी सरकार रोहिणी कमीशन को लेकर क्या करती है, इसका ओबीसी राजनीति और देश की राजनीति पर बड़ा असर पड़ सकता है. इसलिए इस पर नज़र रखिए.

सरकारी योजनाएं

जहां तक ओबीसी के लिए सरकारी योजनाओं का सवाल है तो मोदी सरकार ने इस दिशा में कोई ब़ड़ा काम नहीं किया है. ओबीसी के लिए अलग मंत्रालय बनाने की मांग को सरकार ठुकरा चुकी है. ओबीसी के विकास का जिम्मा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के अधीन है, जिसे अनुसूचित जाति, विमुक्त जातियों और देश की आधी ओबीसी आबादी से लेकर बुजुर्गों, नशाखोरों, भिखारियों, ट्रांसजेंडर और फिज़िकली चैलेंज्ड लोगों तक के विकास के लिए काम करना है. मंत्रालय को इन तमाम लोगों के उत्थान के लिए 2018-19 के बजट में सिर्फ 7,750 करोड़ रुपए मिले हैं.


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ओबीसी विकास का केंद्र सरकार का फंड वर्तमान बजट में सिर्फ 1,745 करोड़ रुपए है जो लगभग 70 करोड़ ओबीसी आबादी के लिए बेहद कम है. प्रति ओबीसी केंद्र सरकार का सालाना खर्च लगभग 25 रुपए है. बाकी योजनाओं का लाभ उन्हें मिलता है लेकिन ओबीसी विकास के नाम पर तो उन्हें पच्चीस रुपए सालाना ही मिलते हैं. ये रकम भी नौ योजनाओं में विभाजित है. एक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग डेवलपमेंट फंड भी है, जिसका सालाना बजट 100 करोड़ रुपए हैं जिसे इसी 1745 करोड़ रुपए से निकाला जाता है. इस फंड पर ज़िम्मा है कि वह ओबीसी उद्यमियों को लोन दे. गौर करने की बात है भारत में मझौले उद्योग की परिभाषा के मुताबिक अगर किसी उद्योग का सालाना टर्नओवर 250 करोड़ रुपए तक है तो वह मीडियम इंडस्ट्री की कैटेगरी में है. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पिछड़ा वर्ग के उद्यमियों के विकास के लिए सरकार कितनी गंभीर है. ये सारी समस्याएं पिछली सरकारों से चली आ रही हैं. लेकिन हालात इस सरकार में भी बदले नहीं हैं, जिसका नेतृत्व एक स्वघोषित ओबीसी कर रहा है.

ओबीसी की राजकाज में हिस्सेदारी बेहद कम है और कांग्रेस के शासन की तुलना में उनकी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. क्लास वन की केंद्र सरकार की नौकरियों में उनकी संख्या 13 फीसदी और क्लास टू की नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी 14.78 फीसदी है. 52 फीसदी आबादी के लिए ये बेहद कम है. न्यायपालिका से लेकर उच्च नौकरशाही में सेक्रेटरी स्तर के पदों और पीएसयू के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर जैसे पदों पर ओबीसी लगभग अनुपस्थित हैं. पिछड़ी जाति का होने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री के शासन में इन क्षेत्रों में उनकी स्थिति बदली है, ये दावा बीजेपी भी नहीं करती.

ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी अपने लिए अगला कार्यकाल मांगते हुए, ओबीसी के विकास के लिए क्या कोई ठोस योजना पेश करेंगे? नज़र रखिए बीजेपी के 2019 के घोषणापत्र पर.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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