केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार के गठन के बाद से ही प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, अभिनेताओं और प्रगतिशील होने का दावा करने वाला एक वर्ग लगातार यह दावा कर रहा है कि देश में लोकतंत्र खतरे में है और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकारों का हनन करके जनता की आवाज दबाने का प्रयास हो रहा है.
दूसरी ओर, एक अन्य वर्ग इस तरह की आवाज उठाने वालों का पुरजोर प्रतिवाद भी कर रहा है. हो सकता है कि समाज का एक वर्ग अपने अनुभवों के आधार पर ऐसा महसूस कर रहा हो. आज हर तरफ मौलिक अधिकारों के हनन की बात तो सुनाई पड़ती है लेकिन क्या कोई नेता, कलाकार, रंगकर्मी, समाजसेवी या फिर बुद्धिजीवी संविधान में प्रदत्त नागरिकों के कर्तव्यों के बारे में बात करते सुनाई पड़ता है? शायद नहीं.
हमें ध्यान रखना होगा कि मौलिक अधिकारों की तरह ही संविधान के भाग 4-क में शामिल मौलिक कर्तव्य भी महत्वपूर्ण हैं और इस ओर भी हम सभी को ध्यान देने की आवश्यकता है.
हम संविधान में प्रदत्त अपने मौलिक अधिकारों के प्रति जितना सचेत हैं क्या उतना ही इसी संविधान में प्रदत्त मौलिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक हैं? शायद नहीं. अगर हम संविधान में प्रदत्त मौलिक कर्तव्यों के प्रति सचेत होते और इनके बारे में जनता को जागरूक बनाने के गंभीर प्रयास किये गये होते तो शायद आज मौलिक अधिकारों की रक्षा का मुद्दा इतना मुखर होकर नहीं उठाया जाता.
यह भी पढ़ें:अदालतों में न्यायाधीश और न्यायिक अधिकारी नहीं होना, न्यायालय और सरकार की चिंता का विषय
केन्द्र और राज्य सरकारों तथा उनके तमाम विभागों ने यदि जनता को उनके मौलिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाने का प्रयास किया होता तो निश्चित ही आज सांप्रदायिक तनाव की स्थिति, नियमों और नागरिकों के हितों की अनदेखी करके हुये औद्योगीकरण तथा प्राकृतिक संसाधानों के अंधाधुंध दोहन से हुये प्रदूषण से बचने, पर्यावरण संरक्षण, अनधिकृत निर्माण, जल, जमीन, जंगल, वन्यजीवों और आदिवासियों की रक्षा के साथ ही तमाम अन्य समस्याओं का सामना करने के लिये देशवासी पूरी तरह तैयार होते.
यह भी सही है कि समय के साथ उच्चतम न्यायालय ने संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के दायरे का काफी विस्तार किया है लेकिन मौलिक कर्तव्यों के अमल के बारे में हमेशा ही उसने इसे कार्यपालिका पर छोड़ना बेहतर समझा है.
हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना करते समय मौलिक अधिकारों के साथ ही मौलिक कर्तव्यों को शामिल नहीं किया था. संभवतः उनका विचार रहा होगा कि देश और संविधान के प्रति कर्तव्यों का पालन करना प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है.
आपातकाल के दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने शायद यह महसूस किया कि मौलिक अधिकारों के प्रति तो सभी जागरूक हैं लेकिन कर्तव्यों के प्रति संजीदगी नहीं है. इसका नतीजा यह हुआ कि काग्रेस के नेता सरदार स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिशों के मद्देनजर 1976 में संविधान में संशोधन करके मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया.
जहां तक सवाल मौलिक कर्तव्यों का है तो 1976 में संविधान में संशोधन करके इसके ‘भाग 4-क’ में ‘मूल कर्तव्य’ शीर्षक से अनुच्छेद 51-क इसमें जोड़ा गया था. संविधान में मूल कर्तव्यों को शामिल करने का उद्देश्य नागरिकों को इसमें प्राप्त मौलिक अधिकारों के साथ ही उनकी जिम्मेदारियों से भी अवगत कराना था.
यह भी पढ़ें: आर्थिक सर्वेक्षण में न्यायालयों में लंबित मुकदमों पर जताई चिंता, नहीं चलेगी तारीख पर तारीख
इस समय हमारे संविधान के अनुच्छेद 51-क के अंतर्गत 11 मूल कर्तव्य हैं जो कानून द्वारा लागू करने योग्य है. मूल कर्तव्यों के अध्याय के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट् ध्वज और राष्ट् गान का आदर करे. इसी तरह, इन कर्तव्यों में भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करना और इसे अक्षुण बनाये रखना और देश की रक्षा करना तथा आह्वाहन किये जाने पर राष्ट् की सेवा करना भी शामिल है.
इसके अलावा, मौलिक कर्तव्यों में देश के सभी लोगों में समरसता और समान भाईचारे की भावना का निर्माण करना शामिल है जो धर्म, भाषा ओर प्रदेश या वर्ग पर आधारित तथा भेदभाव से परे हो. मौलिक कर्तव्यों में प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करना और उनका संवर्धन शामिल हैं. इसके दायरे में झीलें, नदी और वन्य जीव आते हैं. इसी तरह, सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखना और हिंसा से इसे बचाना भी मूल कर्तव्यों में शामिल है.
वास्तव में देखा जाये तो हुआ यह कि प्रत्येक नागरिक अपने मौलिक अधिकारों के प्रति तो पूरी तरह सचेत है और इन अधिकारों की रक्षा के लिये अनेक संगठन भी सक्रिय है लेकिन मौलिक कर्तव्यों के प्रति जनता को जागरूक बनाने की दिशा में शायद ही कोई संगठन सक्रिय भूमिका निभा रहा है. मौलिक कर्तव्यांे के प्रति नागरिकों की उदासीनता या कहें अनभिज्ञता के लिये हमारी सरकारें भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने व्यावहारिक रूप में इस दिशा में कभी कोई ठोस पहल ही नहीं.
यही नहीं, सरकार ने नागरिकों को उनके मौलिक कर्तव्यों के प्रति शिक्षित करने के उद्देश्य से शीर्ष अदालत के न्यायाधीश जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता में 1999 में एक समिति भी गठित की थी. इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में मौलिक कर्तव्यों को लागू करने के लिये अनेक कानूनों के प्रावधानों का जिक्र किया था. समिति ने अपनी सिफारिशों में प्रत्येक नागरिक के लिये ‘‘ चुनाव में मतदान करना, लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय रूप से हिस्सा लेना, करों के भुगतान’’ जैसे बिन्दुओं को मौलिक कर्तव्यों में शामिल करने का भी सुझाव दिया था.
इसका अनुमान इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिये पूर्व प्रधान न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया की अध्यक्षता में गठित आयोग ने 2002 में पेश अपनी रिपोर्ट में मौलिक कर्तव्यों को लागू करने के लिये तत्काल कदम उठाने के साथ ही इनके प्रति जनता को संवेदनशील बनाने और उनमें जागरूकता पैदा करने के लिये अनेक सुझाव दिये लेकिन इस दिशा में कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया.
यह भी पढ़ें: भारतीय संविधान का वो संशोधन, जिसने करोड़ों लोगों के दिल दहला दिए थे
यही नहीं, यह मामला उच्चतम न्यायालय भी पहुंच चुका है. देश की शीर्ष अदालत ने संविधान में प्रदत्त मौलिक कर्तव्यों और इस विषय पर शीर्ष अदालत के दो पूर्व प्रधान न्यायाधीशों की अलग अलग रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों को लागू करने का निर्देश देने के लिये दायर जनहित याचिका भी अप्रैल 2017 में खारिज कर दी थी.
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने भारतीय जनता पार्टी के नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की इस याचिका पर यह कहते हुये विचार करने से इंकार कर दिया था कि आपकी पार्टी ही सत्ता में है. अपनी पार्टी से ऐसा करने के लिये कहें.
इससे पहले, 1998 में पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा ने भी संविधान में प्रदत्त मौलिके अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों में संतुलन बनाने तथा इन कर्तव्यों के बारे में नागरिकों को शिक्षित करने के लिये आवश्यक निर्देश जारी करने का अनुरोध करते हुये शीर्ष अदालत को एक पत्र लिखा था. इस पत्र को याचिका में तब्दील कर दिया गया था. इस मामले में शीर्ष अदालत ने पूर्व अटार्नी जनरल के पराशरण को न्यायालय की मदद के लिये न्याय मित्र नियुक्त किया था.
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वी एन खरे की अध्यक्षता वाली पीठ ने 31 जुलाई, 2003 को अपना आदेश दिया था. इसमें कहा गया था कि इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये कि भारत सरकार आयोग-समिति:न्यायमूर्ति वेंकटचलैया आयोग और न्यायमूर्ति वर्मा समितिः की सिफारिशों का संज्ञान लेगी और सही परिप्रेक्ष्य में इन पर विचार करेगी.
न्यायालय ने कहा था कि तद्नुसार हम सरकार को ऐसा ही करने और इन पर अमल के लिये यथाशीघ्र उचित कदम उठाने का निर्देश देते हैं.
उम्मीद की जानी चाहिए कि जनता के हितों की रक्षा के लिये प्रतिबद्धता दोहराने वाली केन्द्र और राज्यों की सरकारें, राजनीतिक दल, समाजसेवी और नागरिक अधिकारों की रक्षा के अभियान में सक्रिय भूमिका निभा रहे गैर सरकारी संगठन नागरिकों को उनके मौलिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाने की दिशा में भी प्रयास करेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.यह आलेख उनके निजी विचार हैं)