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Sunday, 13 October, 2024
होममत-विमतविवाह मौलिक अधिकार नहीं, समान सेक्स मैरिज पर फैसला अदालत के कमरे में नहीं, संसद में हो

विवाह मौलिक अधिकार नहीं, समान सेक्स मैरिज पर फैसला अदालत के कमरे में नहीं, संसद में हो

भारत में ज्यादातर विवाह हिंदू मैरिज एक्ट 1955 में निर्देशित होते हैं. इसके अलावा 1954 का स्पेशल मैरिज एक्ट है, जो विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच शादी को मान्यता देता है.

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समलैंगिक विवाह यानी एक ही सेक्स के लोगों के बीच शादी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी हो चुकी है और कोर्ट को अब फैसला सुनाना है. कोर्ट में सुनवाई के दौरान जिस एक मुद्दे पर कम बात हुई है, वह है स्पेशल मैरिज एक्ट और हिंदू मैरिज एक्ट का एक प्रावधान, जिसमें ये कहा गया है कि शादी को कानूनी मान्यता देने के लिए ये जरूरी है कि जिनके बीच शादी हो रही है, वे बच्चे पैदा करने यानी संतानोत्पत्ति में सक्षम (capability to procreate children) हों.

बच्चा पैदा करने में सक्षम होने को बेशक शादी की शर्त के रूप में सख्ती से लागू नहीं कराया गया है पर इसे कानून का हिस्सा बनाया गया है. इसके महत्व का अंदाजा इस बात से लगाइए कि नपुंसक (Impotent) होना विवाह विच्छेद यानी तलाक का कानूनी आधार है.

भारत में खासकर हिंदुओं के विवाह कानून और स्पेशल मैरिज एक्ट का आधार पहले कानून मंत्री डॉ. बी.आर. आंबेडकर का ड्राफ्ट किया हुआ और संसद में पेश किया गया हिंदू कोड बिल है. इसमें भी “दूल्हा” और “दूल्हन” का प्रावधान है और उनकी अलग-अलग न्यूनतम आयु भी निर्धारित की गई है. इससे ये तो साफ हो जाता है कि भारत के शुरुआती कानून निर्माता, अलग-अलग सेक्स के लोगों के बीच विवाह को ही मान्यता दे रहे थे. ऐसा नहीं है कि उस समय समलैंगिक नहीं थे या समलैंगिकता पर बहस नहीं थी. लेकिन विवाह को लेकर उनकी दृष्टि साफ थी, और इसी आधार पर कानून बनाए गए.

भारत में ज्यादातर विवाह हिंदू मैरिज एक्ट 1955 में निर्देशित होते हैं. इसके अलावा 1954 का स्पेशल मैरिज एक्ट है, जो विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच शादी को मान्यता देता है. संसद ने ये कानून संविधान की सातवीं अनुसूची और अनुच्छेद 25 और 246 से मिले अधिकारों के तहत बनाए हैं. अन्य धर्मों से संबंधित विवाह की व्यवस्थाएं भी हैं. सुप्रीम कोर्ट में आई मौजूदा याचिका स्पेशल मैरिज एक्ट में संशोधन करके उसमें समलैंगिक लोगों या एक ही सेक्स के लोगों के बीच विवाह का प्रावधान जुड़वाना चाहती हैं. याचिका में कहा गया है कि विवाह को लिंग यानी जेंडर (औरत-मर्द) की पहचान से न जोड़ा जाए.

इस बारे में हमारी राय है कि इस मामले को सुप्रीम कोर्ट को नहीं सुनना चाहिए. इसके पीछे दो वजहें हैं. एक, जिस स्पेशल मैरिज एक्ट को बदलने या उसे असंवैधानिक ठहराने की मांग याचिका में की गई है, वह कानून संसद ने अपने अधिकारों के दायरे में बनाया है और इससे संविधान के तीसरे अध्याय में दर्ज मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता. और दो, याचिकाकर्ता विवाह की एक नई कैटेगरी को इस एक्ट में जोड़ने की मांग कर रहे हैं, जबकि ऐसा करने से एक्ट के सेक्शन 4(सी) में दर्ज लैंगिक भिन्नता यानी जेंडर डिफरेंस खत्म हो जाएगा. इस बारे में अगर कानून को बदलना भी है तो संविधान के तहत ये अधिकार संसद को है.

समान सेक्स के लोगों के बीच विवाह को अगर सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी मिलती है, तो ये स्पेशल मैरिज एक्ट की सिर्फ एक और व्याख्या नहीं होगी, बल्कि ये एक्ट को नए सिरे से लिखना माना जाएगा क्योंकि स्पेशल मैरिज एक्ट अलग-अलग सेक्स के लोगों के बीच शादी को ही मान्यता देता है. समान सेक्स के बीच शादी का जो निषेध स्पेशल मैरिज एक्ट से आया है, वह संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत सेक्स के आधार पर भेदभाव की श्रेणी में नहीं आता है. न ही ये निजता यानी प्राइवेसी के अधिकार का उल्लंघन है.

स्पेशल मैरिज एक्ट में अलग-अलग सेक्स के लोगों के बीच शादी की व्यवस्था होने और उसमें भी बच्चा पैदा करने में सक्षम लोगों के बीच शादी की जो बात है, उससे ऐसा समझा जा सकता है कि कानून ने शादी को मानव संतति की निरंतरता यानी मानव सभ्यता के जारी रखने के उपक्रम के तौर पर भी देखा है. शादी के इस पहलू की अनदेखी का मानव सभ्यता के लिए गंभीर परिणाम हो सकता है क्योंकि शादी समाज की एक महत्वपूर्ण तथा अनिवार्य संस्था है. ऐसे महत्वपूर्ण विषय को अदालत में छह महीने की सुनवाई और पांच जजों की मर्जी या विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता.


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क्या शादी मौलिक अधिकार है?

ये विषय सीधा नहीं है. संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि राज्य किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को विधिक प्रक्रिया के अलावा बाधित नहीं करेगा. इसी अनुच्छेद के आधार पर विभिन्न अदालतों ने लोगों के निजी जीवन और मानवीय गरिमा से जुड़े फैसले दिए हैं, जिनमें प्राइवेसी का अधिकार, स्वास्थ्य तथा शिक्षा का अधिकार, और रोजगार का अधिकार शामिल है. लेकिन शादी का अधिकार सीधे इसके दायरे में नहीं आता और उसे नागरिक अधिकार या सिविल राइट्स माना गया है. ये नैसर्गिक यानी नेचुरल राइट भी नहीं है. यही वजह है कि विवाह कानूनों में शादी को रेगुलेट किया गया कि कौन शादी कर सकता है, कौन नहीं कर सकता है या शादी के समय कम से कम कितनी उम्र होगी आदि. इसलिए मौजूदा कानूनों के तहत, किसी दो व्यक्तियों को समान सेक्स का होने के आधार पर शादी करने से रोका जा सकता है. यहां तक कि मैरिज एक्ट में इस बात का भी प्रावधान है कि किन रिश्तों के बीच शादियां नहीं हो सकतीं. औरत और मर्द के बीच की शादियां भी शर्तों के अधीन हैं.

बहुचर्चित शफीन जहां बनाम अशोकन के.एम. और अन्य केस (2018) में सुप्रीम कोर्ट ने ये व्यवस्था दी है कि अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करना अनुच्छेद 21 के तहत आता है, पर ध्यान दें कि इस केस में शादी औरत और मर्द के बीच हुई है. यही बात एक ही सेक्स के लोगों के मामले में लागू नहीं होती क्योंकि इस तरह की शादी को कानून की मान्यता ही नहीं है. इसलिए जो शादी हुई ही नहीं, उस मामले में शफीन जहां केस का फैसला लागू नहीं होगा.

बच्चे पैदा करने में यानी संतानोत्पत्ति में सक्षम होने वाली बात चूंकि स्पेशल मैरिज एक्ट में भी है, इसलिए इसमें धर्म का भी कोई विषय नहीं है. ये सब पर लागू है.

स्पेशल मैरिज एक्ट के अनुच्छेद 4(बी) में कहा गया है कि – कोई भी पक्ष विधिमान्य या सहमति देने में समर्थ होने पर भी इस प्रकार या इस हद तक मानसिक विकार का पीड़ित नहीं है कि वह विवाह और संतोनोत्पत्ति के अयोग्य हो. हिंदू मैरिज एक्ट के सेक्शन 5(बी) में भी संतोनोत्पत्ति वाली बात इसी तरह शामिल है.

ये तर्क दिया जा सकता है कि संतानोत्पत्ति की बात का मतलब शारीरिक रूप से बच्चा पैदा करना नहीं है, बल्कि शायद यहां ये बात कही जा रही है कि दंपति बच्चे का लालन-पालन कर पाएगा या नहीं. लेकिन ये ध्यान दें कि यहां सिर्फ मानसिक विकार की बात नहीं है. मानसिक विकार के बावजूद कोई व्यक्ति संतान उत्पन्न करने में सक्षम हो सकता है. ये दो अलग बातें हैं.

साथ ही, संतान उत्पन्न करना सिर्फ निजी मामला नहीं है. यह मानव सभ्यता की निरंतरता की बुनियादी शर्त भी है कि पति-पत्नी बच्चे पैदा करें. ये हर मामले में अनिवार्यता नहीं है, लेकिन विधि निर्माताओं ने इसे कानून का हिस्सा बनाया है और यही कानून आज की तारीख में लागू है. इसे बदलने और समान सेक्स के बीच शादी को मान्यता देने पर विचार हो सकता है. विचार विमर्श में कोई समस्या नहीं है. लेकिन क्या कोर्ट ये करने में सक्षम है? हमारी राय है कि नहीं. ये कोई भेदभाव का मामला भी नहीं है. ये सेक्सुअल ओरियंटेशन का नहीं, उनके संतानोत्पत्ति में सक्षम होने या न होने का मामला है. सेक्स निजी विषय है. समान सेक्स के लोगों के बीच यौन संबंध को भारत में मान्यता दी जा चुकी है, लेकिन शादी और संतति उत्पन्न करने का सामाजिक और सभ्यतामूलक संदर्भ भी है. किसी सरकार या सत्ता से आप ये उम्मीद नहीं कर सकते कि वह मानव संतति के खत्म हो जाने का रास्ता खोले.

सेक्सुअल ओरियंटेशन निजी अधिकार है, जिसे अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने लॉरेंस बनाम टेक्सास केस (2003) में और भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने पुत्तुसामी (2017) और नवतेज सिंह जौहर (2018) में मान्य किया है. लेकिन शादी का मामला नागरिक अधिकार है, जिस पर संसद को कानून बनाने का अधिकार है. वैसे भी अमेरिका से उलट भारत के संविधान में नागरिकों को असीमित स्वतंत्रता नहीं है और उसके निजी व्यवहार भी रेगुलेशन के दायरे में हैं.

एक और महत्वपूर्ण बात. भारत के संविधान में समानता के अधिकार के साथ विशेष वर्गों और समूहों के लिए विशेष अधिकार और संरक्षण की बात है. इन श्रेणियों में महिलाएं भी शामिल हैं. अगर जेंडर को स्थिर पहचान नहीं माना जाएगा तो महिलाओं के लिए बनाए तमाम विशेष प्रावधान और कानूनों को संविधान का संरक्षण खत्म हो जाएगा. इस संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 15(3) को देखे जाने की जरूरत है, जिसमें राज्य को अधिकार दिया गया है कि वह महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है और इससे समानता की सिद्धांत बाधित नहीं होता.

इतने महत्वपूर्ण और नाजुक विषय पर फैसला लेने से पहले पूरे देश की राय सामने आनी चाहिए. इसका सही मंच संसद है, सुप्रीम कोर्ट का एक कमरा नहीं.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादनः ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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