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Tuesday, 7 May, 2024
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BJP मुकाबले में सबसे आगे, फिर भी चुनावी मुद्दा तय करने में Modi को डर क्यों

‘लहर’ वाले चुनाव के दौरान मतदाताओं का उत्साह चरम पर होता है. एक बेहतर भविष्य की उम्मीदें रहती हैं, कभी-कभी प्रतिशोध का भाव भी रहता है. इन सबके मद्देनज़र 2024 का चुनाव अप्रत्याशित रूप से मुद्दा विहीन चुनाव नज़र आ रहा है.

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इस चुनाव अभियान का लगभग आधा हिस्सा पूरा हो चुका है और मैं कुछ संशय के साथ यह कहने की हिम्मत कर रहा हूं कि अब तक जो मुद्दा उभरकर सामने आया है वो बहुत स्पष्ट नहीं है. संशय इसलिए है कि जो इस चुनावी दौड़ में सबसे आगे है, वही इस अभियान की परिभाषा तय करने में अक्षम दिख रहा है.

2012 के बाद से अपने उत्कर्ष की ओर बढ़ते हुए नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भारत में प्रतियोगी राजनीति की शर्तें तय करती रही है. 2014 में सबके लिए ‘अच्छे दिन’ के नारे के साथ दुश्मनों (पाकिस्तान और चीन) को ‘छप्पन इंच का सीना’ और ‘लाल आंखें’ दिखाई गई थीं.

2019 में राष्ट्रीय सुरक्षा का आह्वान किया गया था और इसके मामले में बदले हुए नज़रिए को ‘घुस के मारेंगे’ के नारे से परिभाषित किया गया था.

2024 में सात चरणों वाले चुनाव के जबकि तीसरे चरण में हम प्रवेश करने वाले हैं, भाजपा की ओर से कोई मुद्दा नहीं उभरा है. चीन का तो नाम तक नहीं लिया जा रहा, न पाकिस्तान की चर्चा हो रही है.

इस सब के बावजूद इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा इस दौड़ में बाकी सबसे कहीं आगे है. इसी वजह से इस चुनाव की कुछ निश्चित और टिकाऊ शर्ते तय करने में उसकी झिझक रहस्यमय लगती है.

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शायद यही वजह है कि इस बार मतदान प्रतिशत नीचा रहा है, जबकि गर्मियां अभी पूरी तरह शुरू भी नहीं हुई हैं.

या यह भी हो सकता है कि मतदाताओं को इस बार ऐसी कोई टक्कर नहीं दिख रही हो जिससे जोश पैदा होता है, ऐसी टक्कर, जो दो गैर-बराबर टीमों के बीच एकतरफा क्रिकेट मैच की आशंका के कारण होती है. जब नतीजे का अंदाज़ा लगाना इतना आसान और सुरक्षित हो, तब वोट देने क्यों जाएं? आप भाजपा/आरएसएस वालों या मोदी सरकार के समर्थकों से बात करें, जैसी कि मैंने पिछले हफ्ते बेंगलुरु और उससे आगे दक्षिण की यात्रा के दौरान की, तो लोगों को यह संशय व्यापक तौर पर व्यक्त करते पाया.

भारत में चुनावों पर लंबे समय से नज़र रखने वाला कोई भी व्यक्ति बता देगा कि ऐसा प्रायः नहीं होता. वास्तव में, ‘लहर’ वाले चुनाव के दौरान मतदाताओं का उत्साह और सड़कों पर जोश सबसे चरम पर होता है. एक बेहतर भविष्य की उम्मीदें रहती हैं, कभी-कभी प्रतिशोध का भाव भी रहता है. इन तमाम कारणों के मद्देनज़र 2024 का चुनाव अप्रत्याशित रूप से मुद्दा विहीन चुनाव नज़र आ रहा है.

सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि हमारी राष्ट्रीय राजनीति के सबसे बड़े बाज़ीगर नरेंद्र मोदी भी इस चुनाव के लिए कोई ऐसा मुद्दा नहीं तय कर सके हैं, जो सात चरणों के इस चुनाव को पहले से आखिरी चरण तक एक सूत्र में बांध सके. इस शुक्रवार को दूसरे चरण के खत्म होने तक तो वे और उनकी पार्टी नए विषय उठाती रही, जिनमें से कुछ विषय तो एक हफ्ते तक भी ज़िंदा नहीं रह सके. यह भी गौर करने वाली बात होगी कि कम-से-कम पिछले तीन सप्ताहों में भाजपा का चुनाव अभियान कांग्रेस द्वारा उभारे गए मुद्दों के विरोध पर किस हद तक आधारित रहा है. मजबूती से जमी सरकार और चुनाव अभियान में सबसे आगे रही पार्टी अपनी प्रतिद्वंद्वी को जवाब देने में ही उलझी रहे, ऐसा प्रायः होता नहीं है.


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भाजपा ने अपनी यह छवि बनाने के लिए जिसकी वह हकदार भी है, कड़ी मेहनत की है कि वह हमेशा चुनावी मूड में रहने वाली पार्टी है. इसलिए अभियान-2024 इस मुद्दे के साथ शुरू किया गया कि मोदी ने दुनिया में भारत को इतना ऊंचा दर्जा दिलाया जितना अब तक किसी नेता नहीं दिलाया था और इस मामले में अनकहे तौर पर उनकी तुलना जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से की जाने लगी.

इसकी शुरुआत दिल्ली में ‘भारत मंडपम’ के दरवाजे खोले जाने के साथ हुई, जहां जी-20 शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया. यह पूरा ‘शो’ मोदी को नए ग्लोबल लीडर की तरह पेश करने और दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्षों द्वारा इसकी तसदीक करवाने की कवायद के रूप में सामने आया.

लेकिन इस कवायद को नई दिल्ली में गणतंत्र दिवस के आसपास ‘क्वाड’ के नेताओं को जुटाने की योजना की विफलता और खासकर इस जमावड़े में मुख्य अतिथि बनने का निमंत्रण अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन द्वारा ठुकराने के कारण बड़ा झटका लगा. वैसे, हम नहीं जानते कि निज्जर-पन्नुन मसले ने इस मामले में क्या भूमिका निभाई या इसने जी-20 तथा भारत और ‘एंग्लोस्फेयर’ (अंग्रेज़ीभाषी देशों तथा सभ्यताओं) पर कैसी छाया डाली. इसका सीधा निष्कर्ष यही निकलता है कि दुनिया में भारत का दबदबा बढ़ने की रफ्तार के दावे ध्वस्त चाहे न हुए हों, उन्हें जोरदार झटका ज़रूर लगा है.

चुनाव के पहले के उन्हीं दिनों में ऐसी एक और कोशिश निर्वाचित निकायों में महिलाओं को आरक्षण देने का कानून हड़बड़ी में बनाकर महिला मतदाताओं को रिझाने के लिए की गई. यह कानून कब से लागू होगा इसकी समय सीमा नहीं तय की गई है और इसे अगली जनगणना और परिसीमन का इंतज़ार करना पड़ेगा और जहां तक हमारी जानकारी है, यह 2029 तक भी शायद ही पूरा हो सकेगा. इस मुद्दे की भी आज भाजपा के अभियान में शायद ही चर्चा की जाती है. ज्यादा-से-ज्यादा यही कहा जा सकता है, जैसा कि अमोघ रोहमेत्रा की यह रिपोर्ट बताती है, भाजपा ने जिन उम्मीदवारों को खड़ा किया है उनमें महिलाओं का अनुपात मात्र 16 फीसदी है.

राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को भी चुनाव के मद्देनज़र जनवरी में संपन्न कर दिया गया, लेकिन तमाम राज्यों के आला 20 भाजपा नेताओं के पिछले 100 भाषणों की जांच कर लीजिए कि इनमें इसका कितनी प्रमुखता से और कितने ज़ोर के साथ ज़िक्र किया गया. यह मुद्दा इस शुक्रवार को टीवी के पर्दों पर केवल इस रूप में उभरा कि राहुल और प्रियंका गांधी संभवतः राम मंदिर जा सकते हैं.

इसी तरह, चुनाव की घोषणा से कई सप्ताह पहले सामाजिक न्याय के मुद्दे पर ज़ोर देने के लिए पिछड़ी जाति/निम्न वर्ग के ग्रामीण नेताओं में सबसे प्रमुख माने गए चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न से बड़े जोश के साथ सम्मानित किया गया, लेकिन इसके बाद से सामाजिक न्याय के मुद्दे की कोई चर्चा सुनी नहीं गई. वैसे, इसने चरण सिंह के पोते को ‘इंडिया’ गठबंधन छोड़कर एनडीए में शामिल होने का बहाना जरूर थमा दिया.


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अब आज अगर आप चुनाव अभियान पर नज़र डालें तो पाएंगे कि मुद्दा प्रतिद्वंद्वी दल परिभाषित कर रहा है, हालांकि, कांग्रेस वाले भी इस बात पर आश्चर्य कर सकते हैं. पिछले तीन सप्ताह में दोनों दलों ने अपने-अपने घोषणापत्र जारी किए. आप गौर कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री कांग्रेस के घोषणापत्र का कितनी बार ज़िक्र करते हैं, कितने सवाल उठाते हैं और उसको लेकर कितना खौफ पैदा करते हैं, जबकि वे और उनकी पार्टी के प्रमुख नेता अपने घोषणापत्र का कितना कम ज़िक्र करते हैं.

इसी तरह, राहुल गांधी ने 6 अप्रैल को हैदराबाद में अपना पार्टी घोषणापत्र जारी करते हुए जो भाषण दिया और “संस्थाओं, समाज और संपत्ति” के सर्वे (हालांकि उन्होंने इस शब्द का प्रयोग नहीं किया, लेकिन आशय स्पष्ट है) और उसके बाद “90 फीसदी” वंचितों के बीच उसके समुचित वितरण का क्रांतिकारी कार्यक्रम चलाने का जो वादा किया, उसने मोदी के अभियान को इसके बाद से परिभाषित कर दिया है.

मोदी ने आम महिलाओं में यह कहकर डर पैदा करने की कोशिश की है कि कांग्रेस अगर सत्ता में आई तो उन्हें अपने मंगलसूत्र और स्त्रीधन से हाथ धोने पड़ सकते हैं, क्योंकि कांग्रेस उन्हें किस तरह ज़िंदगी के साथ भी ज़िंदगी के बाद भी लूटना चाहती है. सबसे ताज़ा कड़ी सैम पित्रोदा ने ‘विरासत कर’ की बात करके जोड़ी. अब यह अध्ययन का एक मुद्दा हो सकता है कि ये डर कितने जायज़ हैं, बशर्ते चुनाव अभियान के मध्य में पहुंचकर आप यह सोच रहे हों कि कांग्रेस के सत्ता में आने के अच्छे आसार हैं. वैसे, अधिकतर कांग्रेस वाले और उसके विपक्षी सहयोगी आपसे अकेले में यही कहेंगे कि उनका वास्तविक लक्ष्य मोदी को 272 के आंकड़े से नीचे रखना ही है.

जबकि हालात मोदी के इतने पक्ष में हैं तब भी इस चुनाव के प्रति उनका इस तरह का रुख इसी वजह से रहस्यमय लगता है. उनका यह रुख सत्ता में कांग्रेस की वापसी के डर पर आधारित नज़र आता है, न कि 10 साल के उनके अपने शासन के रिकॉर्ड पर और 2047 में ‘विकसित भारत’ के वादे पर.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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