यह लोकतंत्र की बिडंबना ही है कि सरकार चाहे जो कुछ भी करे, उस पर सवाल खड़े किए जाते हैं और सरकार को विवादों में घसीट लिया जाता है. इस बात को जम्मू-कश्मीर की परिसीमन प्रक्रिया से ज्यादा बेहतर ढंग से नहीं समझाया जा सकता. पिछली बार परिसीमन जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन संविधान और जम्मू-कश्मीर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957 के तहत किया गया था. इन कानूनों में इतिहास और परंपराओं को पूरी तरह समाहित किया गया है. तत्कालीन रियासत के भारत में विलय के बाद से जम्मू और कश्मीर दोनों क्षेत्रों की सीटों में कम से कम दस बार तो फेरबदल किया ही जा चुका होगा.
मार्च 2020 में गठित मौजूदा परिसीमन आयोग की प्रमुख जस्टिस (रिटायर) रंजना प्रकाश देसाई ने इस संबंध में प्रस्ताव साझा किया है. आयोग की शुरुआती सिफारिशों के मुताबिक, जम्मू क्षेत्र में छह सीटें और घाटी में एक सीट बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया है.
इस पर घाटी ही नहीं जम्मू में भी लगभग सभी राजनीतिक दलों के प्रदर्शन और यहां तक कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थकों के एक वर्ग की तरफ से विरोध जताए जाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
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राजनीति का खेल
पिछली बार परिसीमन को लेकर एक बड़ी शिकायत ये रही थी कि इसमें आबादी के संदर्भ में वैज्ञानिक सिद्धांतों का पालन नहीं किया गया. सीटें मनमाने ढंग से तय कर दी गईं और अधिकृत तौर पर मंजूरी के बाद लोगों और राजनीतिक दलों को इसे स्वीकारने पर बाध्य किया गया. जम्मू के मतदाता, जिनमें अधिसंख्यक हिंदू हैं जो एकजुट होकर या तो कांग्रेस या फिर भाजपा के लिए वोट करते हैं, 1963, 1973 और 1995 के परिसीमन से नाखुश रहे हैं, उनका कहना है कि जम्मू को सरकार में कभी पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला. विधानसभा सीटों का बंटवारा ऐसा था कि जम्मू को कभी इतना बहुमत मिल ही न पाए, जो मुख्यमंत्री चुनने के लिए पर्याप्त हो.
अब जब परिसीमन प्रक्रिया शुरू हुई तो उम्मीद की जा रही थी कि जम्मू में हुई ‘ऐतिहासिक गलती’ को सुधारा जाएगा. पूरी प्रक्रिया 2011 की जनगणना के आधार पर शुरू की गई जो स्वाभाविक ही था. लेकिन जनगणना के आंकड़ों पर यह कहते हुए सवाल उठाए जाने लगे कि घाटी के मतदाताओं के पक्ष में इनमें कथित तौर पर हेरफेर की गई है. जनगणना के अंतिम आंकड़ों पर गौर करने पर पाया गया कि कश्मीर घाटी के निर्वाचन क्षेत्रों की आबादी बढ़ने में एक असामान्य पैटर्न नजर आ रहा था, जो समझ से थोड़ा परे था.
1981 से 2011 तक के जनगणना आंकड़ों पर सरसरी निगाह डालने पर ही कुछ खामियां नजर आती हैं. उदाहरण के तौर पर गांदरबल जिले के बरवाला गांव में 20 सालों में जनसंख्या में 164 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि अगले 10 वर्षों में यह वृद्धि केवल 9 प्रतिशत ही रही. गांदरबल के फॉरेस्ट ब्लॉक में जनसंख्या वृद्धि 20 वर्षों में 728 प्रतिशत रही, जबकि अगले 10 वर्षों में यह 23 प्रतिशत थी. पुलवामा जिले के कई अन्य गांवों में भी ऐसे ही आंकड़े सामने आए.
अब इसके आगे कोई क्या कर सकता है? परिसीमन रिपोर्ट का विरोध करने वाले दलों को अच्छी तरह पता है कि 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में बड़ा बदलाव आया है, बल्कि ये कहना गलत नहीं होगा कि इसमें पूरी तरह कायापलट हो गई है. जम्मू-कश्मीर का खास दर्जा खत्म होने की स्थिति में कोई बदलाव नहीं होने जा रहा. इसकी कोई गुंजाइश न बचने से कम से कम दो पार्टियों नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की सियासी संभावनाएं गंभीर तौर पर प्रभावित हुई हैं. कांग्रेस कभी भी उन निर्वाचन क्षेत्रों में बड़ी खिलाड़ी नहीं रही जहां ये दोनों दल मजबूत स्थिति में रहे हैं. नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी दोनों नए प्रस्तावों का विरोध कर सकते हैं और इसके साथ अपने दबदबे वाले निर्वाचन क्षेत्रों पर पकड़ बनाए रखने में सफल हो सकते हैं. लेकिन कांग्रेस के लिए स्थिति थोड़ी अजीब है. पार्टी के लिए परिसीमन प्रस्तावों का विरोध करना और नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के वोटबैंक में सेंध लगा पाना थोड़ा मुश्किल होगा. परिसीमन का समर्थन करने से उसे जम्मू में भी फायदा नहीं होगा.
परिसीमन में जम्मू-कश्मीर के हित निहित
परिसीमन आयोग के सुझाव जो भी हो, जाहिर तौर पर जम्मू-कश्मीर और लोकतंत्र का हित इसी में निहित है कि सभी सियासी दल वास्तविकता को स्वीकारें और आगे बढ़ें. इसके अलावा, यदि समिति के दायरे में आता हो तो उसे यह सिफारिश भी करनी चाहिए कि विधानसभा का कार्यकाल मौजूदा छह वर्षों से घटाकर अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की तर्ज पर पांच साल ही किया जाए.
पुनर्गठन से पहले जम्मू-कश्मीर में कुल 111 सीटें होती थीं, जिनमें 24 पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) के लिए आरक्षित और खाली रखी जाती थीं. 87 सीटों पर चुनाव होते थे और इनमें पीओके का कोई प्रतिनिधि नहीं होता था. आगामी विधानसभा चुनाव के बाद—वे जब भी कराए जाएं—नरेंद्र मोदी सरकार को पीओके का प्रतिनिधित्व करने वाले 24 सदस्यों को नामित करना चाहिए. ये सदस्य जम्मू-कश्मीर और केंद्र सरकार तथा पीओके के उत्पीड़ित लोगों के बीच खाई पाटने में मददगार साबित होंगे. दरअसल, बात अगर पीओके (और जम्मू-कश्मी) में जन्मे और वहीं बसे लोगों की करें तो उन्हें पाकिस्तान का नागरिक नहीं माना जाता है. भारत सरकार पीओके के लोगों को भारतीय नागरिक ही मानती है और ऐसे में जरूरी है कि उनके राजनीतिक अधिकारों का विस्तार किया जाए.
केंद्रीय मंत्रियों राजनाथ सिंह और अमित शाह का कहना है कि पीओके के लोग पाकिस्तान से आजादी चाहते हैं और पीओके और अक्साई चिन भारत के अभिन्न अंग हैं. नि:संदेह अवैध रूप से पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए और अवैध रूप से चीन को सौंपे गए इन क्षेत्रों की मध्य एशिया में अपनी स्थिति मजबूत करने के इच्छुक भारत के लिए खासी रणनीतिक अहमियत है. क्या मोदी सरकार और तमाम राजनीतिक दल यह मौका भुनाने की कोशिश करेंगे?
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(लेखक ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. वह @seshadrichari पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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