वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर का 4.5 प्रतिशत का आंकड़ा आर्थिक विकास की रफ्तार धीमी पड़ने की आशंका की पुष्टि करता है.
आर्थिक सुस्ती का सबसे चिंताजनक पहलू विनिर्माण क्षेत्र का है. इस वर्ष की वृद्धि दर विशेष रूप से खराब रही है, जो पहली तिमाही के 0.6 प्रतिशत से घटकर दूसरी तिमाही में -1.0 प्रतिशत पर आ गई. यह अनुमान औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक पर आधारित है, जिसका डेटा पहले ही आ चुका है और तेज गिरावट के संकेत दे चुका है.
विनिर्माण सेक्टर को महज आर्थिक सुस्ती का ही सामना नहीं है, बल्कि इसने गत वर्ष की जुलाई-सितंबर तिमाही के मुकाबले 1 प्रतिशत कम उत्पादन दर्ज किया है. दरअसल एक बड़ी विकासमान अर्थव्यवस्था में इस सेक्टर में आमतौर पर धीमी ही सही पर वृद्धि जारी रहती है. इसमें सुस्ती आ सकती है, पर संकुचन शायद ही देखने को मिलता है.
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ये सही है कि कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था में संकुचन नहीं देखने को मिला है, पर विनिर्माण क्षेत्र में संकुचन और अन्य सेक्टरों में सुस्ती के मद्देनज़र समस्या को गंभीरता से लेने और सुधारों की योजना तैयार करने की ज़रूरत आ पड़ी है.
अर्थव्यवस्था में आए इस तरह के धीमेपन से मात्र मांग बढ़ाकर नहीं निपटा जा सकता है. वैसे, मुद्रा नीति को कार्यान्वित करने की वित्तीय सेक्टर की अपर्याप्त क्षमता और सरकार के निवेश बढ़ाने की सीमित गुंजाइश को देखते हुए मांग बढ़ाना भी आसान नहीं होगा. इसके लिए कोई जादुई साधन या फिर झटपट उपाय मौजूद नहीं है.
नीतिगत परिवर्तनों की ज़रूरत
आर्थिक वृद्धि की रफ्तार कम पड़ने का एक प्रमुख कारण है नीतियों में बदलाव. दिवालिया कानून, जीएसटी और मुद्रास्फीति के पूर्वनिर्धारित लक्ष्य जैसे नीतिगत बदलाव सकारात्मक हैं. पर इन बदलावों के प्रभावी होने के लिए अन्य बदलावों की ज़रूरत है, जोकि अभी किए नहीं गए हैं.
उदाहरण के लिए, दिवालिया कानून के सही ढंग से काम करने के लिए अच्छे से काम करने वाली अदालतों की ज़रूरत है. महंगाई को पूर्वनिर्धारित दायरे में रखने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक वित्तीय व्यवस्था चाहिए. औपचारिक क्षेत्र की कंपनियों के विस्तार के लिए अनुकूल कारोबारी माहौल की दरकार है.
निवेशक नीतिगत अनिश्चितता की शिकायत करते हैं. इसका मतलब ये है कि नीतियां बारंबार बदली जाती रहती हैं और इस कारण निवेशकों के लिए योजनाएं बनाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि आगे क्या होगा, उनके लिए इसका अनुमान लगाना संभव नहीं होता है.
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इस समस्या के समाधान के लिए ज़रूरी है कि नीतियां ज़मीनी वास्तविकताओं को समझने वाले विशेषज्ञों द्वारा, काफी पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद बनाई जाए, ताकि किसी नीति को एक झटके में लागू करने के बजाय पहले उसके सकारत्मक और नकारत्मक प्रभावों पर विचार हो सके. इसके लिए सक्षम टीमों के गठन के साथ-साथ आलोचनाओं को गंभीरता से लेने की भी ज़रूरत है.
नेताओं की जवाबदेही
इसके अलावा, शीर्ष नेताओं को अपने निर्णयों की जिम्मेदारी लेनी होगी और राजनीतिक समर्थन और आमसहमति का वातावरण निर्मित करना होगा, ताकि कारोबारियों को समय रहते नीतिगत बदलावों की जानकारी मिल सके. यदि नीतियों की घोषणा करने के बाद बारंबार उनमें बदलाव किया जाता है या उन पर आगे और काम नहीं किया जाता है, तो कारोबारियों का सरकार की व्यवस्था पर भरोसा नहीं रह जाएगा और वे पैसा लगाने से बचेंगे.
आज, दिवालिया अदालतों पर ज़रूरत से अधिक बोझ है. बट्टे खातों और नाकाम उद्यमों में आज हजारों करोड़ रुपये फंसे पड़े हैं. यदि नए दिवालिया कानून को लागू करने से पहले ही पर्याप्त तैयारी की गई होती, तो आज पेश आ रही कुछेक परेशानियों से बचा जा सकता था. दिवालियापन के शुरुआती मामलों से निपटना आसान नहीं होने वाला था. ये भी मालूम था कि इसके लिए कहीं अधिक तैयारी किए जाने की ज़रूरत थी.
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भारत अनौपचारिक से औपचारिक अर्थव्यवस्था में तब्दील हो रहा है. औपचारिक क्षेत्र की कंपनियों को अपने विस्तार के लिए कम सरकारी नियम-कानूनों, ऋण की उपलब्धता, पर्याप्त बुनियादी सुविधाओं और मुनासिब कर ढांचे की दरकार है. सरकार को ये देखने की ज़रूरत है कि ऐसी परिस्थितियां कैसे निर्मित की जा सकती हैं.
(लेखिका एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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