यों तो मौलाना अबुल कलाम आजाद के (जिनकी आज 132वीं जयंती है और जिसे परम्परा के अनुसार राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है) ढेर सारे परिचय हैं: मुस्लिम विद्वान, कवि, लेखक, पत्रकार, क्रांतिकारी, खिलाफत आन्दोलनकारी, महात्मा गांधी के अनुयायी, सत्याग्रही, स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष, देश के पहले शिक्षामंत्री और ‘भारत रत्न’ वगैरह.
लेकिन आज की तारीख में उनका सबसे बड़ा परिचय यह है कि देश के स्वतंत्रता संघर्ष के नाजुक दौर में जब मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना अपना घातक द्विराष्ट्र सिद्धांत (टू नेशन थ्यौरी) लेकर आगे बढ़े और मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की मांग करने लगे, तो उन्होंने जिन्ना और उनके विचारों व कवायदों का जैसी दृढ़ता से विरोध किया, वैसा कांग्रेस के अन्दर या बाहर के उनके समकालीन किसी और नेता से सम्भव नहीं हुआ- वह अल्पसंख्यक समुदाय से रहा हो या बहुसंख्यक.
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जानकारों के अनुसार इस सिलसिले में एक समय मौलाना यह तक कहने से नहीं हिचके थे कि उनके लिए राष्ट्र की एकता स्वतंत्रता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है और वे उसका विभाजन टालने के लिए कुछ और दिनों की गुलामी भी बर्दाश्त कर सकते हैं. 1923 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने दो टूक घोषणा की थी, ‘अगर कोई देवी स्वर्ग से उतरकर भी यह कहे कि वह हमें हिंदू-मुस्लिम एकता की कीमत पर 24 घंटे के भीतर स्वतंत्रता दे देगी, तो मैं ऐसी स्वतंत्रता को त्यागना बेहतर समझूंगा. स्वतंत्रता मिलने में होने वाली देरी से हमें थोड़ा नुकसान तो जरूर होगा, लेकिन हमारी एकता टूट गई तो इससे पूरी मानवता का नुकसान होगा.’
लेकिन इतिहास गवाह है कि अंततः मौलाना के नजरिये को दरकिनार कर, और तो और, उनकी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी विभाजन के लिए राजी हो गई और मौलाना हिन्दू-मुस्लिम एकता की बिना पर उसे रोकने के अपने मकसद में नाकाम हो गये. फिर भी उन्होंने अपनी एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना से कोई समझौता नहीं किया, जहां धर्म, जाति, सम्प्रदाय और लिंग किसी के अधिकारों में आड़े न आने पाए. 15 अप्रैल, 1946 को उन्होंने कहा कि मुस्लिम लीग की अलग पाकिस्तान की मांग के दुष्परिणाम न सिर्फ भारत बल्कि खुद मुसलमानों को भी झेलने पड़ेंगे क्योंकि वह उनके लिए ज्यादा परेशानियां पैदा करेगा.
उनकी इस भविष्यवाणी को तो हम 1971 में हुए भारत पाक युद्ध के दौर में ही सच हुई देख चुके हैं कि नफरत की नींव पर तैयार हो रहा नया पाकिस्तान तभी तक जिंदा रहेगा, जब तक नफरत जिंदा रहेगी: ‘बंटवारे की आग ठंडी पड़ने लगेगी तो यह नया देश भी अलग-अलग टुकड़ों में बंटने लगेगा.’ 1971 में पाकिस्तान का टूटना और बंग्लादेश का अलग नया राष्ट्र बनना उनके इसी कथन की प्रामाणिकता की नजीर था.
प्रसंगवश, मौलाना ने अपने समय के उन इस्लाम धर्मानुयायी नेताओं की कड़ी लानत-मलामत से भी परहेज नहीं ही किया, जो उनकी निगाह में देश से ज्यादा अपने सम्प्रदाय के हितों को समर्पित हो गये थे. इन सम्प्रदायवादी नेताओं के विपरीत उन्होंने 1905 में हुए बंग-भंग (बंगाल के विभाजन) का भी अपने तईं भरपूर विरोध किया.
1942 में कांग्रेस ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आन्दोलन आरंभ किया तो मौलाना ही उसके अध्यक्ष थे. इसकी ‘सजा’ के रूप में उन्होंने अपनी जिन्दगी के तीन साल जेल में बिताए. इससे पहले 1916 में भी अंग्रेज हुक्मरानों ने मौलाना की गतिविधियों से चिढ़कर उनको बंगाल-बदर कर रांची की जेल में नजरबंद कर दिया था.
स्वतंत्रता के बाद देश के पहले शिक्षामंत्री के तौर पर मौलाना ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) समेत शिक्षा व संस्कृति को विकसित करने वाले कई उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इनमें संगीत नाटक, साहित्य ओर ललित कला जैसी अकादमियां भी शामिल हैं. इतना ही नहीं, 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अतिरिक्त उन्होंने बेटियों की शिक्षा, कृषि शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षणों की पृष्ठभूमि भी तैयार की. उन्हें ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक के लेखन के लिए भी याद किया जाता है, जिसमें उन्होंने स्वतंत्रता और सम्प्रभुता को लेकर अपनी अवधारणाओं का बेझिझक वर्णन किया है.
मौलाना के शुरुआती जीवन पर जाएं तो 11 नवंबर, 1888 को सऊदी अरब के मक्का शहर में उनका एक ऐसे भारतीय परिवार में जन्म हुआ, जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के विफल होने के बाद कोलकाता से वहां चला गया था. तब उनका बड़ा लम्बा-सा नाम रखा गया था: सैयद अबुलकलाम गुलाम मुहियुद्दीन अहमद बिन खैरुद्दीन अलहुसैनी आजाद, लेकिन बाद में वे मौलाना अबुल कलाम आजाद के नाम से ही जाने और पहचाने गये. उनके जन्म के कुछ ही वर्षों बाद ही उनका परिवार फिर से कोलकाता लौट आया था. मौलाना अभी 11 साल के ही थे कि उनकी मां नहीं रहीं और उसके दो साल बाद ही वे शादी करके निकाह के बंधन में बंध गये.
शुरुआती पारम्परिक इस्लामी शिक्षा के अलावा उन्होंने स्वाध्यायपूर्वक उर्दू, फारसी, हिन्दी, अरबी व अंग्रेजी भाषाओं और इतिहास, गणित व भारतीय व पाश्चात्य दर्शनों का गहन अध्ययन किया. शिक्षा सम्बन्धी विचारों में वे आधुनिक शिक्षावादी सर सैयद अहमद खां के निकट बताये जाते हैं.
आज की हमारी युवा पीढ़ी को शायद ही मालूम हो कि 1912 में मौलाना ने ‘अल-हिलाल’ नाम की एक अनूठी पत्रिका निकालनी शुरू की, तो गोरी सरकार उसके क्रांतिकारी तेवर को फूटी आंखों भी बर्दाश्त नहीं कर सकी और उसने दो साल के भीतर ही पत्रिका की जमानत राशि जब्त कर ली और भारी जुर्माना लगाकर उसे बंद कराकर ही तसल्ली पाई. बाद के वक्त में स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ी दूसरी व्यस्तताओं ने मौलाना को ऐसी पत्रकारिता की फुरसत ही नहीं बख्शी.
आजादी के बाद 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में मौलाना उत्तर प्रदेश की रामपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े तो हिन्दू महासभा ने उनके खिलाफ बिशनचंद सेठ को चुनाव मैदान में उतारा. चुनावी सरगर्मियां शुरू हुईं तो बिशनचंद सेठ का चुनाव प्रचार जल्दी ही धुंआधार हो गया, लेकिन देशभर में कांग्रेस के लिए प्रचार की जिम्मेदारी सिर पर होने के कारण मौलाना के लिए रामपुर जाकर अपने मतदाताओं से खिताब करने का समय निकालना ही मुश्किल था. बहुत हाथ-पांव मारने और कई प्रत्याशियों के आग्रह से कन्नी काटने के बाद भी वे सार्वजनिक रूप से चुनाव प्रचार का वक्त खत्म होने से पहले रामपुर नहीं जा सके. जब पहुंचे तो घर-घर जाकर प्रचार करने का समय ही बचा था पर सीमित समय में वे इस तरह कितने घरों में जा पाते?
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अलबत्ता, कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ताओं द्वारा उनके पक्ष में की जा रही जमीनी मेहनत रंग लाई. मतगणना हुई तो मौलाना 59.57 प्रतिशत वोट पाकर खासी शान से जीते. उन्हें 1,08,180 वोट मिले जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी बिशनचंद को महज 73,427 वोट.
1992 में मौलाना को मरणोपरांत देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया. ज्ञातव्य है कि उन्होंने अपने शिक्षामंत्री रहते नैतिक कारणों से इस सम्मान को लेने से मना कर दिया था.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)