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Tuesday, 16 April, 2024
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श्रद्धाराम फिल्लौरी: जिन्होंने ‘ऊं जय जगदीश हरे’ ही नहीं और भी बहुत कुछ रचा

श्रद्धाराम फिल्लौरी ने कवि कर्म से इतर भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है और कई विद्वान उनके उपन्यास ‘भाग्यवती’ को हिंदी का पहला उपन्यास मानते हैं.

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‘ऊं जय जगदीश हरे’: हिंदू धर्मावलंबियों के लिए कंठ के हार जैसी यह आरती आपने कभी न कभी जरूर गाई या सुनी होगी. लेकिन क्या आप जानते हैं कि लोकप्रियता में अपना सानी न रखने वाली इस आरती की रचना किसने की?

जानते हैं तो बहुत अच्छी बात है लेकिन नहीं जानते तो भी अपराधबोध का शिकार होने की जरूरत नहीं. आपकी तरह और भी बहुत से लोग यह बात नहीं जानते. लेकिन इसमें उनका दोष नहीं. दोष उस सामाजिक कृतघ्नता का है, जिसने इसके सर्जक श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा की गई देश समाज और साहित्य की बहुआयामी सेवाओं को तो भुला ही दिया है, उनकी यादों तक को विस्मृति के गर्त मे सुला दिया है.

बहरहाल, उनके बारे में जानने की सबसे बड़ी बात यह है कि भीषण गरीबी में पलने-बढ़ने और परिवार की जीविका के लिए छोटी उम्र से ही कथावाचन करने को विवश होने के बावजूद उन्होंने तिल-तिल संघर्ष कर अपने व्यक्तित्व के इतने आयाम रच डाले कि सिर्फ ‘हिन्दी व पंजाबी का अपने समय का महत्वपूर्ण साहित्यकार’ कहकर उनका पूरा परिचय नहीं दिया जा सकता.

सनातन धर्म के प्रतिबद्ध प्रचारक होने के अतिरिक्त वे दृढ़प्रतिज्ञ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, प्रतिष्ठित ज्योतिषी और पारंगत संगीतज्ञ भी थे. दरअस्ल, वे पंजाब की धरती के उन संतों, साधकों और साहित्यकारों की श्रृंखला में आते हैं, जिन्होंने मनुष्य मात्र की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पित कर देने के बावजूद कभी ‘शिखर-सेवी’ बनने की चाह नहीं की. पूरे जीवन नींव की ईंट, मील का पत्थर अथवा संवाद के सेतु ही बने रहे. 2012 में 175वीं वर्षगांठ मनाये जाने से पहले उन्होंने लम्बे समय तक विस्मृति के गर्त में खोये रहने का अभिशाप झेला. शायद इसलिए कि उनकी जैसी शख्सियतों की ओर ठीक से देखना और उनकी स्मृतियों को संजोना हम अभी भी ठीक से नहीं सीख पाये हैं. उनमें से अनेक को हम प्रायः भूल जाते हैं और किसी प्रसंग में अचानक उनके याद आने के बाद चौंकते भी हैं.


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तिस पर फिल्लौरी की जीवनयात्रा इतने उतार-चढ़ावों से भरी रही है कि उनके बारे में जानकर कोई भी चौंक जाये. 30 सितम्बर, 1837 को वे पंजाब के जालंधर जिले के छोटे से कस्बे फिल्लौर में एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए और कहा जाता है कि बचपन से ही बडे़ प्रतिभा सम्पन्न थे. अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए सात साल की उम्र में ही उन्होंने गुरुमुखी सीख ली थी. जैसा कि बता आये हैं, परिवार की जीविका के लिए उन्हें कुछ ही बरसों बाद कथावाचन से जुड़ जाना पड़ा तो उन्होंने अपने तईं वाचन के लिए महाभारत की कथा चुनी, जिसे सुनाना उन्हें बहुत अच्छा लगता था. चूंकि वे पूरी तन्मयता से यह कथा सुनाते थे, इसलिए जहां भी सुनाते, श्रोताओं को जमा होते देर नहीं लगती थी.

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लेकिन युवावस्था आते-आते उनके भीतर पता नहीं कैसे देशभक्ति का जज्बा इतना प्रबल हो गया कि उन्होंने अपने कथामंचों को लोगों को अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध ‘भड़काने’ और आजादी की चेतना जगाने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. 1865 में जब वे 28 वर्ष के ही थे, उनके इस जज्बे की खबर गोरी सरकार तक जा पहुंची और उसका कहर कुछ इस तरह टूटा कि उनको शहर-बदर कर दिया गया. यह ऐसी सजा थी जो उन दिनों आजादी के दीवानों को उनकी सक्रियता वाले क्षेत्रों की उन्हें अपना मानने वाली जनता से दूर करने और सफलता की ओर बढ़ रहे उनके अभियानों को जड़-मूल से खत्म करने के लिए दी जाती थी.

लेकिन इस सजा से भी फिल्लौरी न तो टूटे, न ही विचलित हुए. शहर-बदर की अवधि समाप्त होने के बाद फिल्लौर वापस आए तो समाज सुधार के कामों में लग गये. अब तक वे शहर के लोगों में ‘पंडित जी’ के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे और उनके लिए अपने प्रति लोगों में व्याप्त सम्मान की भावना को सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आक्रोश में बदलना आसान हो चला था.

आज यह जानकर हैरत होती है कि उन्होंने उन दिनों ही भ्रूण हत्या के अंदेशों को समझकर उसके खिलाफ लोगों को एकजुट किया और नारा दिया था कि बेटा-बेटी समान हैं इसलिए माता-पिता को दोनों के लाड़-प्यार व पढ़ाई-लिखाई में कोई फर्क नहीं करना चाहिए. काश, बढ़ती कन्या भ्रूण हत्याओं के चलते निरंतर खराब हो रहे स्त्री-पुरुष लिंगानुपात का कहर झेलते पंजाब व हरियाणा उनकी सीख पर समय रहते ठीक से अमल कर पाते!

लेकिन इतना ही नहीं, ‘पंडित जी’ ने सामाजिक सक्रियताओं में व्यस्तता को अपनी साहित्य-सर्जना के रास्ते की बाधा नहीं बनने दिया. उन्होंने कवि कर्म के लिए अपने नाम के साथ ‘फिल्लौरी’ जोड़ लिया जो आगे चलकर उनकी पहचान से तो जुड़ा ही, अपनी जन्मभूमि से उनके जुड़ाव का प्रतीक भी बना. बहुत कम ही लोग जानते हैं कि ‘ऊं जय जगदीश हरे’ वाली जो आरती आज हिंदू धर्मावलंबियों के गले के हार जैसी है और उनकी धार्मिक भावनाओं को स्वर देती है, उसकी रचना उन्होंने ही की थी. अलबत्ता, उन्होंने इसमें अपने तखल्लुस ‘फिल्लौरी’ का प्रयोग नहीं किया था. ‘श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ’ वाली पंक्ति में अपने नाम के पूर्वार्ध ‘श्रद्धा’ को इस चतुराई से डाला था कि श्रद्धा बढ़ाने के संकेत के साथ ही ‘श्रद्धाराम’ नाम का भी संकेत हो जाए.


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उन्होंने कवि कर्म से इतर भी हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है और कई विद्वान उनके उपन्यास ‘भाग्यवती’ को हिंदी का पहला उपन्यास मानते हैं.

लेकिन उम्र ने श्रद्धाराम फिल्लौरी के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी की. इस उपन्यास के छपने के कुछ ही वर्षों बाद केवल 43 वर्ष की अवस्था में दबे पांव आई मृत्यु ने 24 जून, 1881 को लाहौर में उनकी जीवन यात्रा तो रोकी ही, पंजाब से उसका एक बड़ा दूरदर्शी साहित्यकार छीन लिया. ऐसा अनूठा साहित्यकार, जो सामाजिक आंदोलनों को नेतृत्व प्रदान करने में भी अपना सानी नहीं रखता था.

उनकी बची हुई यादों के संरक्षण के सिलसिले में इधर के वर्षों में ठोटी सी ही सही मगर एक अच्छी बात यह हुई है कि उनके शहर फिल्लौर में उनकी यादों को संजोने की जागरूकता बढ़ रही है. सुधीजनों के प्रयासों से पिछले दिनों इसके कुछ उपक्रम भी हुए हैं, जिनका उद्देश्य फिल्लौरी की बाबत जानकारियां बढ़ाने के उद्देश्य से उन पर अध्ययनों व शोधों की प्रवृत्ति बढ़ाना है. फिल्लौर शहर के बस अड्डे पर उनकी एक प्रतिमा भी स्थापित की गयी है. उनके नाम पर बने ट्रस्ट के कर्ता-धर्ता बताते हैं कि इस प्रतिमा की स्थापना की भी एक दिलचस्प अंतर्कथा है. यह प्रतिमा बनकर आने के बाद हमारी सामाजिक कृतघ्नता की शिकार होकर बीस वर्षों तक फिल्लौर नगर परिषद के कार्यालय में पड़ी धूल खाती रही.

लम्बे संघर्ष के बाद 1995 में बेअंत सिंह की सरकार के दौरान इसे वहां से निकाला और बस अड्डे पर स्थापित किया जा सका. तब से हर बरस उनकी जयंती पर कार्यक्रम आयोजित करके उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है. 2012 में 175वीं वर्षगांठ के अवसर पर एक अपेक्षाकृत बड़ा कार्यक्रम हुआ, जिसमें श्रद्धांजलि के अतिरिक्त उनके बारे में हासिल की गयी जानकारियों को भी एक दूसरे के साथ साझा किया गया था.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

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