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Sunday, 8 December, 2024
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देवानंद की ‘प्रेम पुजारी’ जैसी देशभक्ति बॉलीवुड की किसी अन्य फिल्म में देखने को नहीं मिली

प्रेम पुजारी में देवानंद ने रामदेव नामक एक अमन-पसंद सैनिक का किरदार निभाया है, जो कोर्ट मार्शल किए जाने के बाद पलायन करने को विवश हो जाता है.

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एक अनूठी कहानी, मज़ेदार जुमले, शानदार संगीत तथा इठलाने और सिर झटकने की वो खास अदा– बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ (1970) पर हर तरह से देवानंद की अमिट छाप थी. बॉलीवुड के अन्य सुपरस्टारों की तरह ही देवानंद ने रोमांटिक नायक के रूप में अपनी विशेष पहचान बनाई थी. हालांकि, उन्होंने अन्य कई तरह के किरदार भी निभाए थे. वैसे तो हमेशा उनका ज़िक्र सर्वप्रथम एक अभिनेता के रूप में किया जाएगा, पर उन्होंने बॉलीवुड की कुछ अतिविशिष्ट फिल्मों का निर्देशन और निर्माण भी किया था. दिप्रिंट ‘प्रेम पुजारी’ का पुनरावलोकन कर रहा है.

प्रेम पुजारी में देवानंद, वहीदा रहमान और ज़हीदा ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं. फिल्म की पृष्ठभूमि 1960 के दशक के उस दौर की है जब भारत-चीन युद्ध होने ही वाला था. देवानंद ने रामदेव नामक एक अमन-पसंद सैनिक का किरदार निभाया है जो कोर्ट मार्शल किए जाने के बाद पलायन करने को विवश हो जाता है. भगोड़ेपन के दौरान उसकी मुलाकात रानी (ज़हीदा) से होती है जो कि चीन के लिए जासूसी कर रही होती है. रामदेव उसकी असलियत जाने बगैर शुरुआत में उसकी मदद करता है, और फिर अनजाने में जासूसी के खतरनाक खेल में फंस जाता है. रानी रामदेव को पसंद करती है, पर वह अपने काम के प्रति भी समर्पित है, इस तरह वो दो पाटों में फंसा महसूस करती है. जब रामदेव को रानी और उसके सहयोगी जासूसों की योजना का पता चलता है, तो हमेशा की तरह पलायन करने की बजाय वह उन्हें उसी के खेल में मात देने का फैसला करता है.

यह फिल्म बॉलीवुड के दो लोकप्रिय विषयों- देशभक्ति और सेना को चतुराई से उठाती है. फिल्म का कथानक सेना या देश के समर्थन (आप ‘बॉर्डर’ फिल्म के बलिदानी और देशभक्त सैनिकों को याद करें) की खुल कर चर्चा नहीं करता है, बल्कि अपना संदेश बड़े ही सूक्ष्म तरीके से देता है.

देवानंद का किरदार रामदेव किसी को नुकसान पहुंचाने की सोच तक नहीं सकता है. अपने रिटायर्ड फौजी पिता के दबाव में उसे सेना में शामिल होना पड़ता है. फिल्म के पहले घंटे में रामदेव को युद्ध के खिलाफ, तथा जनहानि और अनावश्यक हिंसा के विरुद्ध दलीलें देते दिखाया जाता है. पर वह हमेशा ये अफसोस जता कर अपनी दलीलों को खुद कमज़ोर कर देता है, कि हिंसा में शामिल होने की उसकी असमर्थता उसकी मर्दानगी को कम करती है. आखिरकार जब वह देश के लिए जासूसी करता है और 1965 के युद्ध के लिए उसे दोबारा सेना में भर्ती किया जाता है तो वह एक ‘मर्द’ बन चुका होता है. वह सशस्त्र सेनाओं और युद्ध की ज़रूरतों के बारे में सहमत हो चुका होता है. एक तरह से, फिल्म उत्तरोत्तर आपको युद्ध-विरोधी से युद्ध-समर्थक दृष्टिकोण की तरफ ले जाती है, न सिर्फ नायक के प्रति आप में सहानुभूति जगा कर, बल्कि दूसरे पक्ष को बुरा दिखा कर भी.


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फिल्म में दूसरे पक्ष, चीनियों को बुरा दिखाने के लिए उनका बहुत ही नस्लवादी तरीके से घिसा-पिटा और बुरा चित्रण किया जाता है. चीनी किरदारों को, जो कि ज़ाहिर है भारतीयों ने निभाये हैं, आंखें सिकोड़ कर नस्लवादी बकवास करते दिखाया गया है. जब रामदेव और रानी तिब्बती होने का ढोंग करते हैं तो उस दौरान उनकी वेशभूषा से लेकर बोलने के नकली लहजे और मेकअप तक, सब कुछ बेतुका और अतिरंजित दिखता है. जाहिर है, ये फिल्म उस दौर में बनी थी जब बॉलीवुड में राजनीतिक रूप से सही दिखने की प्रवृति या राजनीतिक जागरूकता का आमतौर पर अभाव था. इसलिए ये दलील दी जा सकती है कि फिल्म में इस तरह का चित्रण अज्ञानतावश किया गया था. हालांकि, इस तरह के स्टीरियोटाइप (रुढ़ीवादी) के कारण देशभक्ति की भावना को बल मिला था.

देवानंद इस फिल्म में अपने सहज अदम्य रूप में नज़र आते हैं. उनका निर्देशन भी कसा हुआ (कहीं-कहीं कुछ ज़्यादा ही) है. स्पष्टतया उनमें निर्देशन की नैसर्गिक प्रतिभा थी, जो कि इस फिल्म में खुलकर नज़र आती है. वहीदा रहमान हमेशा की तरह प्रतिभाशाली और खूबसूरत दिखती है, हालांकि सिर्फ रोमांस के चित्रण के लिए उनका इस्तेमाल किया गया है. जबकि ज़हीदा को प्रमुख प्रतिद्वंद्वी किरदार के रूप में कहीं बड़ी भूमिका दी गई है और वह अपने विरोधाभासी चरित्र को अच्छे से निभाती है.

संगीत इस फिल्म की एक और खासियत है. गोपालदास नीरज के लिखे और एसडी बर्मन के संगीतबद्ध किए गाने फिल्म के मुकाबले अधिक हिट हुए थे, जो कि आज भी लोकप्रिय हैं. फिल्म वास्तव में बॉक्स-ऑफिस पर फ्लॉप साबित हुई थी. इसके किशोर कुमार और लता मंगेशकर के गाए शोखियों में घोला जाए, रंगीला रे तेरे रंग में और फूलों के रंग से जैसे गाने सदाबहार हैं.

प्रेम पुजारी ने देवानंद के अभिनय और निर्देशन कौशल को प्रदर्शित किया. इसने एक ऐसे विषय को उठाया जिस पर पूरा देश एकजुट था और इसमें बेहतरीन गाने शामिल थे. इन वजहों से, ये शायद देवानंद के करियर को परिभाषित करने वाली फिल्मों में से एक थी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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