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Thursday, 18 April, 2024
होममत-विमतनई केंद्र सरकार में दक्षिण भारत से कोई बड़ा चेहरा नहीं

नई केंद्र सरकार में दक्षिण भारत से कोई बड़ा चेहरा नहीं

उत्तर और दक्षिण की बिलकुल ही अलग-अलग प्रकार की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियां, अलग प्रकार की समस्याएं एवं चिंताएं हैं – इन सब मसलों को संतोषजनक रूप से हल करने की कोशिश होनी चाहिए.

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राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार जब शपथ ले रही थी तो किसी के मन में दूर-दूर तक ये विचार नहीं आ सकता था कि इस सरकार में प्रधानमंत्री पद का कोई और भी दावेदार हो सकता है. यह 2014 से अलग स्थिति है. 2014 में मिली अप्रत्याशित सफलता के बावजूद भाजपा के ही शीर्ष के कुछ नेता अपने को भविष्य के प्रधानमंत्री पद की रेस से बाहर नहीं मानते थे. वैसे भी एक साल पहले ही नरेंद्र मोदी बीजेपी के सत्ता संघर्ष में विजयी होकर निकले थे और पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में पेश करने का फैसला किया था.

2017 के मध्य में जब भाजपा (आप एनडीए भी कह सकते हैं) की ओर से उपराष्ट्रपति पद के लिए तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री वेंकैया नायडू को नामांकन भरने को कहा गया तो राजनीतिक हलकों में दबे स्वर से ये चर्चा हो रही थी कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने एक बहुत ही प्रभावी और 2019 (या उसके बाद भी) के लोकसभा चुनावों के बाद प्रधानमंत्री पद के एक संभावित प्रतिद्वंद्वी को किनारे लगा दिया है. वेंकैया नायडू ने स्वयं भी ये कहा था कि वह सक्रिय राजनीतिक जीवन ‘मिस’ करेंगे.


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इसमें कोई संदेह नहीं कि कर्नाटक में अच्छी-ख़ासी पैठ बना लेने के बावजूद भी भाजपा को मोटे तौर पर हिन्दी पट्टी और गुजरात-महाराष्ट्र की पार्टी के रूप में ही देखा जाता रहा है. वेंकैया नायडू भाजपा के एकमात्र दक्षिण भारतीय कद्दावर नेता थे जो न केवल अपने गृह-राज्य आंध्र प्रदेश में बल्कि सभी दक्षिण भारतीय राज्यों में जाने जाते थे. अच्छी हिन्दी बोल लेने के कारण वह उत्तर भारत में भी खूब पहचाने और सुने जाते थे और वह भाजपा के लोकप्रिय अध्यक्षों में से थे. ऐसे नेता को उपराष्ट्रपति पद पर भेज देने से एक सक्रिय राजनैतिक जीवन पर विराम लग गया. भाजपा में अब दक्षिण भारत का कोई ऐसा नेता नहीं जो नायडू के आस-पास की हैसियत रखता हो. हालांकि यह मानने का कोई पुख्ता कारण नहीं कि नायडू को किसी योजना के तहत किनारे करने वाली बात सही है.

ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि निवर्तमान केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अंत तक आते आते निर्मला सीतारमण और सदानंद गौड़ा ही बचे थे जो दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व करते थे. येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद कुछ समय तक कर्नाटक का मुख्यमंत्री रहने के बावजूद गौड़ा दक्षिण भारत में अपनी कोई स्वतंत्र पहचान नहीं बना सके हैं. कर्नाटक की राजनीति में भी उनका कोई खास महत्व नहीं है.

निर्मला सीतारमण जेएनयू में पढ़ी हुई हैं और राज्यसभा की सदस्य हैं. दक्षिण में उनका कोई राजनीतिक आधार नहीं है, और इसलिए उनको दक्षिण के राजनीतिक प्रतिनिधि के तौर पर ज़्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता. ऐसे में पिछली एनडीए सरकार में से अनंत कुमार की असामयिक मृत्यु के बाद दक्षिण भारत कैबिनेट में लगभग नदारद जैसा था. ऐसा भी नहीं है कि दक्षिण के लोगों को इस बात की बिल्कुल परवाह न हो.

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तमिलनाडु

अब प्रश्न ये है कि इस बार एनडीए सरकार में दक्षिण भारत को जिस तरह का प्रतिनिधित्व मिला है वह किस प्रकार का है? सबसे पहले तो तमिलनाडु को लें. भाजपा की सहयोगी पार्टी अन्नाद्रमुक को बहुत उम्मीद थी कि उन्हें मंत्री परिषद एक जगह अवश्य मिल जाएगी लेकिन फिलहाल उसे मंत्रिपरिषद में जगह नहीं मिली है. इस तरह दक्षिण के सबसे बड़े प्रदेश से किसी लोकसभा सांसद का मंत्रिपरिषद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. लेकिन पिछली सरकार की तरह निर्मला सीतारमण तो मंत्रिमंडल में हैं. फिर इस बार भूतपूर्व विदेश सचिव एस जयशंकर भी हैं लेकिन वह दिल्ली में ही जन्मे और पढ़े हैं (सेंट स्टीफेंस कॉलेज और जेएनयू में) और विदेश सेवा में आने के बाद वह हमेशा ही विदेश में या नई दिल्ली में रहे हैं. उनके माता-पिता भी दिल्ली में रहते थे और इस तरह तमिलनाडू के लोग उनसे कोई भावनात्मक संबंध मान सकें, इसकी कोई संभावना नहीं लगती. उल्लेखनीय है कि निर्मला और जयशंकर दोनों तमिल ब्राह्मण परिवारों से आते हैं जिनका वहां की राजनीति पर कोई असर नहीं है.


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केरल

इसी तरह वर्षों से केरल में आरएसएस द्वारा हिन्दू धर्मावलम्बियों को राज्य में मुसलमानों और ईसाइयों के बढ़ते प्रभाव का हवाला देकर और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने की मांग का समर्थन करके हो सकता है कि केरल की कुछ गिनी-चुनी जगहों में भाजपा ने अपनी पहचान बना ली हो लेकिन इस बार भी उसे लोकसभा चुनावों में कोई सफलता नहीं मिली. वहा से पिछली बार भी मंत्रिपरिषद में रहे वी. मुरलीधरन को फिर इस बार राज्य मंत्री के तौर पर जगह मिल गई है.

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना

आंध्र प्रदेश की बात से तो हमने इस लेख की शुरुआत से ही की थी कि सिर्फ आंध्र के ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण भारत में अपनी सम्मानपूर्ण जगह बनाने वाले भाजपा नेता वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति के रूप में स्थापित कर दिए गए हैं और इस प्रकार आंध्र से भी अब कोई ऐसा नेता नहीं बचा जिसे राष्ट्रीय परिदृश्य में देखा जा सके. तेलंगाना से ज़रूर जी. किशन रेड्डी को राज्य मंत्री का दर्जा देकर मंत्रिपरिषद में जगह दी गई है.

कर्नाटक

दक्षिण का एकमात्र राज्य जिसने भाजपा को इस बार पूरी तरह गले लगाया है, कर्नाटक है जहां उसने 28 में से 25 सीटें जीत ली हैं और उसे इसका पारितोषिक भी मिला है. कर्नाटक से सदानंद गौड़ा के अलावा प्रह्लाद जोशी को भी कैबिनेट मंत्री के तौर पर मंत्रिमण्डल में जगह मिली है. इन दो कैबिनेट स्तर के मंत्रियों के अलावा सुरेश अंगादी को भी राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया है.

इस तरह से मोदी सरकार के दूसरे संस्करण में दक्षिण भारत से चार लोगों को कैबिनेट स्तर का मंत्री बनाया गया है जबकि बाकी तीन को राज्य मंत्री. यह लिखे जाने तक विभागों का बंटवारा नहीं हुआ है जिसके बाद ये अंदाज़ लगाया जा सकेगा कि उन्हें राजनीतिक रूप से कोई वज़नदार या रसूख वाले मंत्रालय मिले हैं या नहीं.

दक्षिण भारत से बीच बीच में ऐसे स्वर सुनाई देते रहते हैं कि उन्हें उत्तर भारत के पिछड़ेपन की वजह से नुकसान हो रहा है और देश के इन पिछड़े राज्यों के कारण वह जितनी तेज़ी से विकास कर सकते थे, नहीं कर पा रहे हैं. कहने की आवश्यकता नहीं कि इस किस्म के तर्क को एक संघीय ढांचे वाली संवैधानिक व्यवस्था में स्वीकार नहीं किया जा सकता लेकिन फिर भी इतना तो कहना ही होगा कि अगर दक्षिण के कुछ लोगों के मन में ऐसी कोई धारणा भी बनती है (जिसके सही या गलत होने के तर्क में हम फिलहाल नहीं जा रहे) तो उसके निवारण के राजनीतिक उपाय करने वांछित होंगे. क्या भाजपा में यह क्षमता है कि वह अपने दम पर ऐसी धारणाओं से निपट सकती है और या फिर भविष्य में इस बात की कोई संभावना है कि वह किसी तरह से सम्पूर्ण भारत को संतुलित प्रतिनिधित्व देने वाली सरकार गठित कर सके?

इस समय हम जिन परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं, उनमें अब बिना देरी के ये आवश्यक हो गया है कि केंद्र सरकार का स्वरूप ऐसा हो कि वह सार्वदेशिक लगे और उसमें सब क्षेत्रों का संतुलित ढंग से प्रतिनिधित्व हो. अगर ऐसा न हो सका तो दक्षिण भारत के राज्यों में अभी दिखाई न पड़ने वाली ये भावना बलवती हो सकती है कि जनसंख्या कम होने के कारण वो तो हमेशा ही राजनीतिक तौर पर उत्तर भारत की अपेक्षा कमज़ोर ही रहेंगे और चुनावी राजनीति में पिछड़े रहने के कारण उन्हें देश के केंद्रीय शासन पर राजनीतिक नियंत्रण के लिए हमेशा वैसे संयोग का इंतज़ार करना होगा जैसा संयोग पीवी नरसिम्हा राव और एचडी देवेगौड़ा को मिला था.


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याद दिलाने की आवश्यकता नहीं कि दक्षिण के राज्य पिछले कुछ दशकों से इन्फॉर्मेशन टेक्नोलोजी (आईटी), ऑटो इंडस्ट्री, दवा उद्योग और छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयों का केंद्र बन गए हैं. देश की ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री का आधे से ज्यादा भाग चेन्नई और उसके आस-पास ही स्थित है. बेंगलुरु, हैदराबाद और चेन्नई आईटी सर्विसेज़ और सॉफ्टवेयर सेवाओं को देने के लिए विश्वभर में जाने जाते हैं. कभी कभी लोग उत्तर और दक्षिण के राज्यों के बीच केंद्र सरकार द्वारा आवंटित की जाने वाली राशि और राज्यों द्वारा केंद्र को दी जाने वाली राशि की तुलना भी करते हैं और उसके आधार पर इस धारणा को पुष्ट करने का प्रयास करते हैं कि केंद्र द्वारा आर्थिक स्रोतों का आवंटन त्रुटिपूर्ण होता है. जैसा कि हमने ऊपर कहा, बिना इस तर्क में गये कि ऐसी धारणा सही है या नहीं, हमारा जोर केवल इस बात पर है कि केंद्र सरकार का स्वरूप इस प्रकार का होना चाहिए के ऐसे मसलों का यथासंभव सर्वमान्य ढंग से निपटारा हो सके.

उत्तर और दक्षिण की बिलकुल ही अलग-अलग प्रकार की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियां, अलग प्रकार की समस्याएं एवं चिंताएं और उनके अलग प्रकार के हल हैं – इन सब मसलों को संतोषजनक रूप से ‘एड्रेस’ करने के लिए केंद्र सरकार का स्वरूप ऐसा होना वांछित है कि उसमें दक्षिण का भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो.

देखना होगा कि आने वाले महीनों में केंद्र सरकार किस तरीके से क्षेत्रीय संतुलन बेहतर बनाने के लिए आवश्यक प्रयास करती है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और raagdelhi.com नामक वेबसाइट चलाते हैं)

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