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Saturday, 21 December, 2024
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नीतीश अब ओबीसी नेता नहीं रहे, बीजेपी उनका क्या करे?

नीतीश सामाजिक न्याय के सारे मुद्दे छोड़ बीजेपी की भाषा बोल रहे हैं. अगर वे गठबंधन को ओबीसी वोट नहीं दिला सकते, तो फिर वे बीजेपी के लिए किस काम के.

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की मोटे तौर पर दो तरह की राजनीति रही है. लालू प्रसाद के साथ की और लालू प्रसाद के विरोध की. शुरुआत में वह लंबे समय तक राजनीति में लालू के साथ रहे. दोनों नेताओं ने एक दूसरे को आगे बढ़ने में साथ दिया. नीतीश जब लालू से छिटके तो पहले भाकपा-माले और फिर भाजपा का दामन थाम लिया और लंबे समय तक भाजपा के साथ रहे. फिर वह कुछ समय के लिए भाजपा से अलग हुए, लालू के साथ आए और अब फिर से कुछ समय से भाजपा के साथ हैं. अब नीतीश ऐसी स्थिति में पहुंच रहे हैं कि अगर भाजपा उन्हें अपने गठबंधन से बाहर कर दे तब भी भाजपा की सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है.

नीतीश एनडीए से बाहर तब आए थे, जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया. ऐसा नहीं था कि नीतीश को मोदी से कोई चिढ़ थी. नीतीश क्या, फायरब्रांड समाजवादी रहे जॉर्ज फर्नांडिस ने भी यह कहकर गुजरात नरसंहार का बचाव किया कि देश में पहली बार ऐसी घटना नहीं हुई है. दरअसल 2014 के चुनाव के पहले नीतीश का दांव उल्टा पड़ गया. वह लालकृष्ण आडवाणी के खेमे के थे, और उस खेमे के लिए चाल चलने में उन्होंने गलत पासा फेंक दिया.


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2014 के चुनाव में बुरी तरह हार, उन्हें बिहार में सिर्फ दो लोकसभा सीटें मिलीं, के बाद नीतीश अप्रासंगिक बन गए थे. उनके दल को तोड़कर भाजपा उन्हें पूरी तरह से खत्म करने की रणनीति बना चुकी थी. तब वह लालू प्रसाद के साथ आए. 2015 में बिहार विधानसभा का जनादेश भाजपा के खिलाफ गया. जेडीयू-आरजेडी की सरकार बनी. लेकिन बिना किसी तार्कित कारण के, नीतीश एक बार फिर लालू का साथ छोड़कर भाजपा के साथ आ गए. एक बार फिर बीजेपी के साथ सरकार बना ली. अब वह मोदी के साथ कंफर्टेबल हैं.

भाजपा के साथ पहले चरण की गलबहियां के दौर में नीतीश के बारे में बिहार में एक चर्चा आम थी कि जदयू से अगर कोई सवर्ण टिकट मांगने आता था तो यह कह दिया जाता था कि सवर्ण कोटा भाजपा को दे दिया गया है, इधर गुंजाइश नहीं है. पता नहीं यह कितना सही है, लेकिन जनता के बीच इस परसेप्शन के चलते जदयू की ओबीसी पार्टी वाली छवि बनी रही. साथ ही गाहे बगाहे लालू भी ऑफ द रिकॉर्ड दावा कर देते थे कि भले ही हम सत्ता से बाहर हैं, लेकिन हमने बिहार में जो राजनीति चलाई, उसे कोई माई का लाल नहीं खत्म कर सकता. अगर किसी में हिम्मत है तो वह किसी सवर्ण को मुख्यमंत्री का कैंडीडेट घोषित करके देख ले, जनता उसे धूल चटा देगी.

नीतीश को लालू विरोधी मत मिलते थे. खासकर सवर्ण मत, जो लालू से खासा चिढ़ा हुआ था. उसके अलावा नीतीश का अपना ओबीसी वोट बैंक भी बन गया, जो टिकट वितरण की ट्रिक या जातीय निकटता की वजह से जुड़ा. इसका ज़बर्दस्त लाभ हुआ और 2014 में भाजपा से अलग होने तक यह समीकरण अजेय बना रहा.


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भाजपा के साथ गठजोड़ के दूसरे दौर में नीतीश अब सामाजिक न्यायवादी न होकर आरएसएस वादी ज्यादा नज़र आ रहे हैं. वह मोदी मैजिक की चपेट में हैं. सवर्ण आरक्षण का विरोध करने वाला झेलेगा, जैसे उनके बयान आ रहे हैं. पिछड़े वर्ग को निजी क्षेत्र में आरक्षण, जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण, जातीय जनगणना जैसे मसले वह भूल चुके हैं. शायद मोदी मैजिक में उन्हें लगता है कि अब सवर्ण का समर्थन करने से ही जीत संभव है और ओबीसीपरस्ती से नुकसान हो सकता है. नीतीश अपना ओबीसी तेवर गंवा चुके हैं. उनकी राजनीति से ओबीसी गायब है.

नीतीश का लव-कुश समीकरण भी टूट चुका है. बिहार में कुशवाहा मतों का ध्रुवीकरण उपेंद्र कुशवाहा की तरफ हो चुका है. उपेंद्र इस समय राजद के गठबंधन के साथ हैं. लव-कुश समीकरण करीब 100 साल पुराना समीकरण था, जिसमें कुर्मियों को लव और कोइरियों को कुश का वंशज बताकर एकजुटता बनाने की कवायद हुई थी. लालू से अलग होने के बाद नीतीश ने बिहार में लव-कुश समीकरण को पुनर्जीवित किया था. अब वह समीकरण भी जाता रहा.

नीतीश ने कभी किसी कुर्मी नेता को भी राज्य में उभरने नहीं दिया, जो उन्हें चुनौती दे सके. कोई ओबीसी नेता भी नहीं उभरा. उपेंद्र कुशवाहा को उभारने की कोशिश की, वह नीतीश का साथ छोड़कर चले गए. बिहार में लालू प्रसाद से इतर मजबूत अस्तित्व बनाए हुए तमाम यादव नेता हैं, जिनमें शरद यादव, पप्पू यादव, रंजीता रंजन, हुकुमदेव नारायण यादव, रामकृपाल यादव, नंदकिशोर यादव सहित कई बड़े नाम हैं. वहीं नीतीश ने किसी भी कुर्मी नेता को उस स्तर तक नहीं पहुंचने दिया कि किसी क्षेत्र विशेष में भी उनकी जाति का कोई नेता उन्हें चुनौती दे सके. हालांकि इस समय उन्होंने पार्टी की ओर से लोकसभा में कौशलेंद्र कुमार और राज्यसभा में आरसीपी सिंह को नेता बनाया है, जो कुर्मी समाज के हैं. लेकिन कोई भी नेता इस कद का नहीं है, जिसे नीतीश के बाद अगली पीढ़ी संभालने वाला कहा जाए. संभवतः नीतीश ने भाजपा के साथ मौजूदा पारी में अपना कुर्मी मत बचाने की ही मज़बूत कवायद की है.

मौजूदा लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने अपने स्वाभिमान को मारकर जदयू से समझौता किया. दोनों दलों ने बराबर सीटें बांट लीं. भाजपा को अपने करीब आधे दर्जन सिटिंग सांसदों के टिकट काटकर जदयू को देने होंगे. अब स्थिति बदल रही है. नीतीश भी वही भाषा बोल रहे हैं, जो भाजपा की भाषा है. उन्हें सर्जिकल स्ट्राइक पसंद है. उन्हें नोटबंदी पसंद है. उन्हें सवर्ण आरक्षण पसंद है. विश्वविद्यालयों में विभागवार आरक्षण पर उन्होंने खामोशी ओढ़ रखी थी, जो उन्होंने काफी देर से तोड़ी.


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वहीं उनके विपक्ष में खड़े राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव मुखर हैं. तेजस्वी सीधे मोर्चा ले रहे हैं और सामाजिक न्याय पर साफ रुख अपनाए हुए हैं. तेजस्वी शायद यह रणनीति बना चुके हैं कि पार्टी जिन सवर्ण प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में उतारती है, वह खुद सवर्ण वोट खींचें. इसके अलावा वह ओबीसी मतों के ध्रुवीकरण, अल्पसंख्यकों व दलितों को जोड़ने की कवायद कर रहे हैं.

ऐसे में अगर नीतीश अपना ओबीसी चेहरा हटा रहे हैं तो भाजपा को जदयू से समझौते की क्या ज़रूरत है? अगर नीतीश को भी कुछ टिकट देकर ही ओबीसी मतों को अपने पक्ष में खींचना है तो यह चाल बड़ी आसानी से भाजपा भी चल सकती है. नीतीश के साथ समझौता खत्म कर देने पर तो उसके पास और मौका होगा कि वह ज़्यादा टिकट देकर जातीय वोट खींचने का खेल खुले मैदान में खेल सके. व्यावहारिक रूप में देखें तो नीतीश अब भाजपा के लिए महत्वहीन हो चुके हैं.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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