इस महीने के अंत में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की वार्षिक बैठक के बाद लगभग निश्चित है कि भारत इसके एक्सक्यूटिव बोर्ड का अध्यक्ष पद संभाल लेगा. भारत इसका स्वागत ही करेगा क्योंकि वह दुनिया को ‘चलाने’ वाली बहुद्देशीय एजेंसियों में हमेशा से अपनी बड़ी भूमिका की तलाश में रहा है. इसके अलावा, कई दूसरे देशों की तरह भारत भी बहुपक्षीय व्यवस्था की वकालत करता रहा है. बहरहाल, इस तरह की भूमिका से मान और दबदबा बढ़ता है.
लेकिन भारत के लिए इस भूमिका का एक अवांछित परिणाम भी सामने आ सकता है, उस पर महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मतभेदों के मामलों में अपना पक्ष स्पष्ट करने का दबाव बढ़ सकता है. भारत के सहयोगी देश उम्मीद करेंगे वह ऐसे टकरावों के मामलों में उनका कूटनीतिक समर्थन करे. भारत अपने सहयोगियों का समर्थन करे यह जितना अहम है, उतना ही उसके लिए यह महत्वपूर्ण होगा कि चीन ऐसी एजेंसियों पर अपना अनावश्यक प्रभाव न कायम कर पाए क्योंकि यह भारत के हितों को चोट पहुंचाएगा.
भारत ऐसे समय पर डब्लूएचओ में नेतृत्व की भूमिका संभालेगा जब दुनिया कोरोनावायरस की महामारी से परेशान है और वह चीन से उसकी अक्षमता और दूसरी वजहों से नाराज है. दरअसल, डब्लूएचओ इस महामारी के शुरू के दिनों में चीन के आगे जिस तरह नतमस्तक रहा है, इसके महानिदेशक जिस तरह कथित रूप से चीनी सरकार के बयानों का हवाला प्रेस के सामने देते रहे उन सबके कारण विवाद पैदा हुआ. किसी का पक्ष लेने और खासकर चीन का विरोध न करने की भारत की पारंपरिक हिचक की परीक्षा आगे भी होगी, और संतुलन साधने के प्रयासों के नुकसान और बढ़ सकते हैं.
कोरोनावायरस की महामारी से ज्यादा दूसरी वजहों से भी अंतरराष्ट्रीय सत्ता संघर्ष कई रूपों में और एक-दूसरे से जुड़ी कई वजहों के कारण सामने आता रहेगा. भारत के लिए बिना कीमत चुकाए इन सबकी अनदेखी करना मुश्किल होता जाएगा.
यह भी पढ़ें :भारत कोरोना के बाद चीन के मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की जगह ले सकता है, ये कहना जल्दबाजी होगी
वर्चस्व की राजनीति के सूत्रधार
लेकिन, वर्चस्व की जो राजनीति आगे होने वाली है उसका एक महत्वपूर्ण पहलू चीन से सीधी सैन्य टक्कर पर केन्द्रित नहीं होगा, हालांकि इसे खारिज भी नहीं किया जा सकता है- बल्कि बहुद्देशीय एजेंसियों पर कब्जे की होड़ के रूप में होगा. बहुद्देशीय एजेंसियां अंतरराष्ट्रीय वर्चस्व की राजनीति से पैदा हुई हैं. इस तथ्य को समझते हुए भी अनदेखा किया जाता रहा है. अंतरराष्ट्रीय वर्चस्व की होड़ चीन के मजबूत उभार के कारण पहले ही तेज हो चुकी थी, क्योंकि चीन अमेरिका की ताकत की बराबरी में जितना करीब आएगा, यह होड़ उतनी ही तीखी होगी. कोरोनावायरस की महामारी ने इसे और बढ़ाने का ही काम किया है.
अमेरिका-चीन टकराव के कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के उस प्रस्ताव पर भी सहमति नहीं बन रही है जिसमें अपील की गई है कि इस महामारी से मुक़ाबले पर पूरा ज़ोर देने के लिए विश्वव्यापी युद्धविराम घोषित किया जाए. चीन इस बात पर अड़ा है कि इस प्रस्ताव की भाषा डब्लूएचओ का समर्थन करने वाली हो, लेकिन अमेरिका इसका विरोध कर रहा है. नतीजा- गतिरोध.
ऐसे तनावपूर्ण माहौल में आश्चर्य नहीं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत के सहयोगी उस पर इस बात के लिए दबाव डालें कि वह इस महामारी के स्रोतों और इस मामले में डब्लूएचओ की भूमिका की जांच का स्पष्ट समर्थन करे. ‘दिप्रिंट’ ने पिछले सप्ताह खबर दी थी कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने भारत पर दबाव डाला है कि वह डब्लूएचओ में सुधारों के लिए पहल करे और इस महामारी के स्रोतों की जांच का समर्थन करे. चीन से इन देशों की नाराजगी के और भी कई कारण हैं.
इस महामारी के कारण अमेरिका में मौतों का आंकड़ा 1 लाख को छूने वाला है और बेरोजगारी दर 80 साल पहले की ऐतिहासिक मंदी वाले स्तर को पार करने वाली है और सबके ऊपर, यह अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव का साल है, जिसमें कोई भी उम्मीदवार चीन के प्रति नरम रुख रखने का जोखिम नहीं उठाना चाहेगा. उधर, ऑस्ट्रेलिया को चीन ने धमकाया है कि वह इस महामारी के स्रोतों की खुली जांच का समर्थन करने से बाज आए.
ताइवान का रुख
चीन जबकि भारत के इर्दगिर्द दबाव बढ़ा रहा है, भारत के लिए अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया बेहद महत्वपूर्ण सहयोगी बन गए हैं. भारत पर अपना रुख साफ करने का दबाव इसलिए भी बढ़ेगा क्योंकि उसे इन सहयोगियों की बेहद जरूरत है. यह एक विश्वसनीय सहयोगी के तौर पर भारत की साख की भी परीक्षा साबित होगी. भारतीय विदेश नीति पर बहसों में अमेरिका को हमेशा से गैरभरोसेमंद बताया जाता रहा है, इसी तरह भारत के सहयोगी देश भी भारत की विश्वसनीयता को लेकर चिंतित हो सकते हैं. इस चिंता को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसे सवाल कभी भी उभरकर सामने आ सकते हैं.
यह भी पढ़ें : कोविड के बाद विश्व में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए भारत को कमर कसनी पड़ेगी : थॉमस फ्रीडमैन
और यह केवल अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की बात नहीं है. कोरोना महामारी में भारत को तुरंत मेडिकल साजोसामान सप्लाई करने वाला ताइवान अगले सप्ताह विश्व स्वास्थ्य सभा में भाग लेना चाहता है और वह चाहता है कि भारत उसका समर्थन करे. ताइवान को अपना हिस्सा मानने वाला चीन नहीं चाहता कि वह इस सभा में भाग ले. भारत ताइवान मसले पर चीन से उलझने से कतराता रहा है, लेकिन ताइपे दुनियाभर में अपना समर्थन जुटाता रहा है. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक अमेरिकी कानून को मंजूरी दी है जिसमें कहा गया है कि ताइवान पर बढ़ते चीनी दबाव के मद्देनजर अमेरिका ताइवान को कूटनीतिक समर्थन देगा. भारत अपनी ताइवान नीति में शायद जल्दी बदलाव न करे मगर यह भी भारत पर बढ़ते दबावों का एक संकेत है.
बदलती स्थितियां
भारत पिछले एक दशक में बहुत आगे निकल आया है और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की विभिन्न शक्तियों के साथ सुरक्षा संधियां करके अपनी क्षमताओं को बढ़ाने में कोई दिक्कत नहीं महसूस कर रहा है. इसने 70 देशों के संदर्भ में चीन की ‘बेल्ट ऐंड रोड’ पहल (बीआरआइ) जैसे मसलों पर अपना रुख साफ कर दिया है क्योंकि चीन भारत के भौगोलिक क्षेत्रों का अतिक्रमण कर रहा था.
लेकिन मौजूदा हालात में यही लग रहा है कि भारत एक बार फिर संतुलन साधते हुए आगे बढ़ने की नीति पर चलने वाला है. हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च के अंत में जी-20 वर्चुअल शिखर बैठक के अपने भाषण में डब्लूएचओ में सुधारों और उसे मजबूत बनाने की बात की थी, लेकिन ऐसा लगता है कि इधर इस मसले पर पुनर्विचार हुआ है. भारत सरकार के ‘आंतरिक मामलों की जानकारी रखने वालों’ के मुताबिक भारत अब यह कह रहा है कि जब तक कोरोना महामारी का संकट खत्म नहीं हो जाता, तब तक डब्लूएचओ में सुधारों को टाला जा सकता है. यह भारत के सहयोगियों को समर्थन देने के मसले को टालना ही कहा जाएगा, और ऐसा करके किसी को बहलाया नहीं जा सकता.
(लेखक जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं यह उनका निजी विचार है)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)