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Friday, 20 December, 2024
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औरतों को बेरोजगार बना रहा है नया मेटरनिटी बेनेफिट कानून

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना है कि मेटरनिटी बेनेफिट की लागत उठाने का जिम्मा सिर्फ इंप्लॉयर का नहीं होना चाहिए. बल्कि इसे सोशल इंश्योरेंस या पब्लिक फंड से चुकाया जाना चाहिए. इसलिए इसमें सरकार की भूमिका की बात हो रही है.

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जिसे महिला सशक्तिकरण का सबसे बड़ा हथियार माना जाता रहा था, वह कानून फुस्स हो गया है. बल्कि उसका उल्टा ही असर हो रहा है. मेटरनिटी बेनेफिट कानून ने श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी तो बढ़ाई नहीं, बल्कि उससे बाहर खदेड़ने का सारा इंतज़ाम जरूर कर दिया है. टीमलीज सर्विसेज़ लिमिटेड के पिछले साल के एक सर्वेक्षण (2018) में कहा गया है कि इस नए कानून ने छोटे-बड़े कारोबारों से बड़ी संख्या में औरतों को धकेल बाहर किया है. इस सर्वेक्षण के लिए कंपनी ने आईटी, शिक्षा, ई-कॉमर्स, मैन्यूफैक्चरिंग जैसे दस बड़े क्षेत्रों में 300 से अधिक इंप्ल़ॉयर्स से बातचीत की थी. इस रिपोर्ट के मुताबिक मैटरनिटी बेनेफिट के नए कानून की वजह से 2018-19 में 18 लाख महिलाओं की नौकरियों के नुकसान का अनुमान है.

ताजा खबर ये है कि केंद्र सरकार मेटरनिटी बेनेफिट के तहत पेड यानी सवैतनिक छुट्टी देने पर आने वाले खर्च का एक हिस्सा (14 हफ्ते का वेतन) उठाने पर विचार कर रही है.

2017 में नया मेटरनिटी कानून बना था. यह कामकाजी औरतों को प्रसव के समय 26 हफ्ते या लगभग छह महीने की वैतनिक छुट्टी का प्रावधान करता है. पुराने कानून के अंतर्गत पहले कामकाजी औरतों को प्रसव की स्थिति में 12 हफ्ते या तीन महीने की छुट्टी मिलती थी. फिर केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के लिए यह छुट्टी छह महीने कर दी गई. इसके बाद सरकार ने नया विधेयक लाकर इसे निजी क्षेत्र पर भी लागू कर दिया. चूंकि यह छुट्टी वैतनिक होती है. इसलिए कंपनियों पर इसका भार वहन करने की जिम्मेदारी आ जाती है. अब कोई भी औरतों को नौकरियां देकर ऐसा घाटा क्यों उठाना चाहेगा?

महिलाओं के अनुकूल माहौल नहीं

नौकरियों के इंटरव्यू के दौरान औरतों को अक्सर कई अप्रिय सवालों के जवाब देने पड़ते हैं. उनकी वैवाहिक स्थिति और गर्भावस्था से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं. 2014 में केनरा बैंक की चेन्नई स्थित शाखा के रिक्रूटमेंट फॉर्म में औरतों से उनके आखिरी पीरियड की तारीख के बारे में भी पूछा गया था. इसका तर्क यह दिया गया था कि बैंक महिला की सेहत की सारी जानकारी हासिल करना चाहता है. बाद में मानवाधिकार हनन का मुद्दा उठा, तो बैंक को आनन-फानन में उस फॉर्म को वापस लेना पड़ा. लेकिन यह जरूर है कि नौकरियों से पहले अक्सर कंपनी मालिक आश्वस्त होना चाहते हैं कि महिला भविष्य में अपने जीवन से जुड़ा कोई अहम फैसला नहीं लेने वाली.

पेड मैटरनिटी लीव का पेचीदा मामला

दरअसल कंपनियों के लिहाज से देखा जाए तो मेटरनिटी लीव का सारा बोझ उन्हीं पर आ पड़ा है. हमारे देश में कर्मचारियों को चिकित्सा लाभ देने वाला एक कानून हैं- ईएसआई अधिनियम, 1948. इससे महिला कर्मचारी इस अधिनियम के तहत मेटरनिटी बेनेफिट से संबंधित भुगतान का दावा कर सकती हैं. उनके कंपनी मालिक कुछ राशि नियमित रूप से इस अधिनियम के अंतर्गत स्थापित राज्य कर्मचारी बीमा निगम में जमा कराते हैं. लेकिन, इससे मेटरनिटी बेनेफिट हासिल करने की दो शर्तें हैं- पहला तो जिस कंपनी, कारखाना वगैरह में महिला काम करती हो वह इस एक्ट के दायरे में आता हो. दूसरा यह कि उस महिला की मासिक कमाई इक्कीस हजार रुपए से कम हो. इससे ज्यादा कमाने वाली औरतों का मेटरनिटी बेनेफिट का दावा उनके मालिकों पर बनता है.


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प्राइवेट कंपनियों को मेटरनिटी बेनेफिट के खर्च से बचाने के लिए सरकार ने एक पहल की है. श्रम और रोजगार मंत्रालय ने उन महिलाओं की सात हफ्ते की मेटरनिटी लीव का खर्च उठाने की घोषणा की है, जिन्हें पंद्रह हजार रुपए से कम वेतन मिलता है. वे ईपीएफओ में एक साल से रजिस्टर्ड हैं और ईएसआई एक्ट में नहीं आतीं. लेकिन इससे बहुत कम संख्या में औरतों को फायदा होने वाला है.

क्या है समाधान?

इस समस्या के कई हल हैं. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि अनिवार्य सामाजिक बीमा के दायरे में सभी कर्मचारियों को लाया जाए- भले ही उनका वेतन कितना भी हो. चाहे वह महिला हों या पुरुष. कंपनी मालिक अपने सभी कर्मचारियों के लिए बीमा राशि का अंशदान दे. इस राशि को महिलाएं मेटरनिटी बेनेफिट के लिए हासिल कर सकती हैं, पुरुष दूसरे लाभ के लिए. कनाडा में ऐसे ही मॉडल को अपनाया गया है.

विश्व के विभिन्न देशों में मेटरनिटी बेनेफिट देने के लिए अलग-अलग फंडिंग मॉडल्स को लागू किया गया है. 2014 में आईएलओ ने 185 देशों में मेटरनिटी बेनेफिट पर एक अध्ययन किया. इसमें सिर्फ 25 परसेंट देशों में इंप्लॉयर्स मेटरनिटी बेनेफिट देने के लिए अपना पैसा इस्तेमाल करते हैं. ब्रिटेन, जर्मनी जैसे 16 परसेंट देशों में इंप्लॉयर्स और सरकार, दोनों के मिले-जुले फंड से मेटरनिटी बेनेफिट को फाइनेंस किया जाता है. 58 परसेंट देशों में सरकारी सोशल सिक्योरिटी बेनेफिट्स के जरिए प्रेग्नेंट औरतों को कैश बेनेफिट मिलता है. इन देशों में नार्वे और ऑस्ट्रेलिया प्रमुख हैं.

वैसे आईएलओ की 2014 की रिपोर्ट मेटरनिटी एंड पेटरनिटी एट वर्क : लॉ एंड प्रैक्टिस एक्रॉस द वर्ल्ड का कहना है कि मेटरनिटी बेनेफिट की कॉस्ट उठाने का जिम्मा सिर्फ इंप्लॉयर का नहीं होना चाहिए. बल्कि इसे सोशल इंश्योरेंस या पब्लिक फंड से चुकाया जाना चाहिए. फिर देश के नागरिकों का स्वास्थ्य जनहित का मामला है. उसके लिए सरकार को जिम्मेदारी उठानी चाहिए.

पुरुषों पर भी डाला जाए बच्चा पालने का जिम्मा

पेड पेटरनिटी लीव भी एक विकल्प हो सकता है. इस व्यवस्था को अपनाएं तो कंपनी मालिक को पेरेंटहुड की पूरी लागत का वहन करना पड़ता है. लेकिन इसका लाभ सिर्फ औरतों को नहीं, पुरुषों को भी मिलता है. इसका एक लक्ष्य यह भी है कि बच्चों के लालन-पालन की आखिरी जिम्मेदारी सिर्फ औरत पर न आ जाए. पिता का भी उसमें पूरा हिस्सा हो. यह जेंडर इक्वालिटी से जुड़ा मामला है. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के अध्ययन कहते हैं कि जिन परिवारों में बच्चे के लालन-पालन में पिता बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं, वहां बच्चों के अच्छे प्रदर्शन करने की संभावना बढ़ती है. पेड पेटरनिटी लीव देने और काम के समय को लचीला बनाने से पुरुषों को पारिवारिक भूमिकाएं निभाने के लिए प्रोत्साहन मिल सकता है. साथ ही औरतों को भी काम पर लौटने में आसानी हो सकती है.


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क्रेश (पालना-घर) की सुविधा देना भी इस कानून के अंतर्गत आता है. हालांकि कानून सीधे-सीधे यह तो नहीं कहता कि कंपनी मालिक को क्रेश की पूरी लागत का वहन करना होगा. वह कहता है कि 50 या 50 से अधिक कर्मचारियों वाली हर कंपनी को एक निश्चित दूरी पर क्रेश की सुविधा प्रदान करनी होगी. इसलिए भी कंपनियां महिला कर्मचारियों को रखने से बच रही हैं, क्योंकि यह खर्चा भी उनके सिर आ पड़ा है. अव्वल यह नियम उन्हीं कंपनियों पर लागू है, जहां औरतें काम करती हैं. पुरुष कर्मचारियों वाली कंपनियों के लिए क्रेश बनाना जरूरी नहीं है.

मेटरनिटी बेनेफिट कानून को हम धारदार मान रहे थे, तो यह हमारी नासमझी थी. औरतें श्रमबल में पहले ही कम हो चुकी हैं. 2016 में देश के श्रमबल में औरतों का प्रतिशत 24 था, जबकि एक दशक पहले औरतों की हिस्सेदारी 36 प्रतिशत थी. विश्व बैंक के अनुमान बताते हैं कि 2004 के बाद सिर्फ आठ सालों में दो करोड़ औरतें श्रमबल से गायब हो गईं. यह संख्या न्यूयॉर्क, लंदन और पेरिस जैसे शहरों की कुल आबादी के बराबर है. अब मेटरनिटी बेनेफिट कानून औरतों के करियर पर और असर कर सकता है. अभी लाखों की नौकरियां खतरे में है- क्या हम औरतों को वर्कफोर्स से सिरे से गायब करना चाहते हैं. सो, सिर्फ तालियां और वोट बटोरने के लिए नीतियां और कानून न बनाए जाएं- उसके दूरगामी असर के बारे में भी सोचा जाना चाहिए.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं .यह लेखक का निजी विचार है.)

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